।। मूल पद्य ।।
अँखियाँ लागि रहन दो साधो, हिरदे नाम सम्हारा ।
रीझै बूझै साहिब तेरा, कौन पड़ा है द्वारा ।।1।।
जम-जालिम के सब डर मिटिगे, जा दिन दृष्टि निहारा ।
जब सतगरु ने किरपा कीन्हीं, लीन्हो आप उबारा ।।2।।
लख चौरासी बन्धन छूटे, सदा रहै गुरु संगी ।
प्रेम पियाला हरदम पीवै, सदा मस्त बौरंगी ।।3।।
जब लगि वस्तु पिछाने नाहीं, तब लगि झूठी आसा ।
झिलमिल ज्योति लखै कोइ गुरुमुख, उनमुनि घर कै वासा ।।4।।
सब की दृष्टि पड़ै अविनाशी, बिरला सन्त पिछानै ।
कहै कबीर यह भर्म किवाड़ी, जो खोलै सो जानै ।।5।।
।। मूल पद्य ।।
अँखियाँ लागि रहन दो साधो, हिरदे नाम सम्हारा ।
रीझै बूझै साहिब तेरा, कौन पड़ा है द्वारा ।।1।।
जम-जालिम के सब डर मिटिगे, जा दिन दृष्टि निहारा ।
जब सतगरु ने किरपा कीन्हीं, लीन्हो आप उबारा ।।2।।
लख चौरासी बन्धन छूटे, सदा रहै गुरु संगी ।
प्रेम पियाला हरदम पीवै, सदा मस्त बौरंगी ।।3।।
जब लगि वस्तु पिछाने नाहीं, तब लगि झूठी आसा ।
झिलमिल ज्योति लखै कोइ गुरुमुख, उनमुनि घर कै वासा ।।4।।
सब की दृष्टि पड़ै अविनाशी, बिरला सन्त पिछानै ।
कहै कबीर यह भर्म किवाड़ी, जो खोलै सो जानै ।।5।।
शब्दार्थ-बौरंगी=बौराहा।
पद्यार्थ-हे साधो! मानस जप करके दृष्टि को (मानस ध्यान और सुषुम्ना-द्वार में) लगे रहने दो। (इससे) तुम्हारा प्रभु तुमपर रीझेगा और बूझेगा कि द्वार पर कौन पड़ा हुआ है।।1।। जिस दिन दृष्टि से देखोगे, उसी दिन से निर्दय यम से मिलनेवाले सब दुःख मिट जाएँगे। जब सद्गुरु कृपा करेंगे, तब तुमको वह आप उबार लेंगे।।2।। गुरु का संगी सदा बना रहे, तो चौरासी लाख बन्धन छूटेंगे और गुरु तथा ईश्वर-सम्बन्धी प्रेम-रस को सदा पीता रहे, तो वह उस रस की मस्ती में मस्त रहेगा।।3।। जबतक परमात्म-तत्त्व का प्रत्यक्ष परिचय न हो, तबतक की आशा झूठी है। जो गुरुमुख मनोलय के घर में अपना बासा बनाता है, वह झिलमिल ज्योति को लखेगा।।4।। अविनाशी परमात्मा सबकी दृष्टि में पड़ते हैं; परन्तु बिरला ही संत उनको पहचानते हैं। कबीर साहब कहते हैं कि इस बात को वे जानते हैं, जो माया की किवाड़ी को खोल देते हैं।।5।।
परिचय
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