।। मूल पद्य ।।
संतो भक्ति सतोगुर आनी ।
नारी एक पुरुष दुइ जाया, बूझो पंडित ज्ञानी ।।
पाहन फोरि गंग इक निकसी, चहुँ दिसि पानी पानी ।
तेहि पानी दोउ पर्वत बूड़े, दरिया लहर समानी ।।
उड़ि माखी तरुवर कै लागै, बोलै एकै बानी ।
वह माखी को माखा नाहीं, गर्भ रहा बिनु पानी ।।
नारी सकल पुरुष लै खाये, तातैं रहै अकेला ।
कहहि कबीर जो अबकी समझै, सोइ गुरू हम चेला ।।
।। मूल पद्य ।।
संतो भक्ति सतोगुर आनी ।
नारी एक पुरुष दुइ जाया, बूझो पंडित ज्ञानी ।।
पाहन फोरि गंग इक निकसी, चहुँ दिसि पानी पानी ।
तेहि पानी दोउ पर्वत बूड़े, दरिया लहर समानी ।।
उड़ि माखी तरुवर कै लागै, बोलै एकै बानी ।
वह माखी को माखा नाहीं, गर्भ रहा बिनु पानी ।।
नारी सकल पुरुष लै खाये, तातैं रहै अकेला ।
कहहि कबीर जो अबकी समझै, सोइ गुरू हम चेला ।।
पद्यार्थ-हे सन्तगण! सद्गुरु जिस भक्ति का प्रचार करते हैं, वह (साधारण-जड़ात्मिका-अपरा-स्थूल) भक्ति (से भिन्न ही है) दूसरी ही है। जड़ात्मिका मूल प्रकृति-रूपा नारी से ब्रह्म* और जीव-रूप, दो पुरुषों को उत्पन्न किया। हे पण्डित ज्ञानी! इस बात को बूझो।। पत्थर (जड़ तत्त्व) को फोड़कर एक बहती हुई पवित्र धारा गंगा (निर्मल सुुरत) निकल गई और निर्मल सुरत-सागर अर्थात् चेतन सिन्धु में जाकर समा गई, जहाँ सर्वत्र चेतन-ही-चेतन है। उस चेतन सिन्धु-रूप पानी में जीव और ब्रह्म-रूप दोनों पर्वत विलीन हो गये। मानो तरंगें समुद्र में समा गयीं।। सिमटी हुई सुरत उड़ी और श्रेष्ठ वृक्ष** रूप परम प्रभु परमेश्वर में जाकर लग गई। जहाँ से एक ही ध्वन्यात्मक प्रणव ध्वनि-सारशब्द ध्वनित होता है। परम प्रभु परमात्मा से लगी हुई उस मुक्त निर्मल सुरत को वश में रखनेवाला (मन और माया) अब नहीं है। उसको पानी-वीर्य-कारण के बिना ही (अनुभव या ज्ञान से पूरित) गर्भ रहा अर्थात् उसको लिखित या कथित ज्ञान की अपेक्षा नहीं रही।। अद्वैतावस्था को प्राप्त उस निर्मल सुरत-रूपी नारी ने ज्ञान, योग, विराग आदि पुरुषों को तथा काम-क्रोध आदि विकार-रूप पुरुषों को भी खाया अर्थात् अपने अन्दर में लेकर पचा गई। इस हेतु वह अकेली रह गई। कबीर साहब कहते हैं कि इस बार अर्थात् मनुष्य-शरीर प्राप्त करने के समय में जो इसको समझता है, वह ज्ञानदाता ज्ञानी पुरुष है और हम अर्थात् अहंकार उसका शिष्य अर्थात् वशवर्ती है।।
[*'अवधू छाड़हु मन विस्तारा ।
सो पद गहहु जाहि ते सद्गति, पार ब्रह्म ते न्यारा ।।’
‘नहिं अच्छर नहिं अविगत भाई, ये सब जग के मूलं।।’ -कबीर साहब]
[** अछय पुरुष एक पेड़ है, निरंजन वाका डार ।
तिरदेवा साखा भये, पात भया संसार ।।]
परिचय
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