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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[73. साईं ने पठाया,

न्यामत हू मत लाना]


।। मूल पद्य ।।

साईं ने पठाया, न्यामत हू मत लाना ।।
पहली भिक्षा अन्न का लाना, गाँव नगर के पास न जाना ।
अमीर-गरीब छोड़ के लाना, लाना झोली भर के ।।1।।
दूजी भिक्षा मास् का लाना, जीव-जन्तु के पास न जाना ।
जिन्दा मुर्दा छोड़ के लाना, लाना हंडी भर के ।।2।।
तीजी भिक्षा जल का लाना, कुआँ बावरी पास न जाना ।
ताल तलैया छोड़ के लाना, लाना तुम्बी भर के ।।3।।
चौथी भिक्षा लकड़ी लाना, रूख वृक्ष के पास न जाना ।
गीली-सूखी छोड़ के लाना, लाना गट्ठर भर के ।।4।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, यह पद है निरबाना ।
जो या पद को अर्थ लगावै, सोई चतुर सुजाना ।।5।।


।। मूल पद्य ।।

साईं ने पठाया, न्यामत हू मत लाना ।।
पहली भिक्षा अन्न का लाना, गाँव नगर के पास न जाना ।
अमीर-गरीब छोड़ के लाना, लाना झोली भर के ।।1।।
दूजी भिक्षा मास् का लाना, जीव-जन्तु के पास न जाना ।
जिन्दा मुर्दा छोड़ के लाना, लाना हंडी भर के ।।2।।
तीजी भिक्षा जल का लाना, कुआँ बावरी पास न जाना ।
ताल तलैया छोड़ के लाना, लाना तुम्बी भर के ।।3।।
चौथी भिक्षा लकड़ी लाना, रूख वृक्ष के पास न जाना ।
गीली-सूखी छोड़ के लाना, लाना गट्ठर भर के ।।4।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, यह पद है निरबाना ।
जो या पद को अर्थ लगावै, सोई चतुर सुजाना ।।5।।

शब्दार्थ-अन्न=चेतनात्मिका ज्योति, जो साधक को ध्यान में प्राप्त होती है। झोली=अनुभव का थैला। मास््=चन्द्र, चन्द्रमा, जिसका दर्शन ध्यान में अभ्यासी को प्राप्त होता है। हंडी=हाँड़ी, मूर्द्धा या मस्तक। जल=चेतनात्मिक शब्दमयी चेतन-धारा, जो अभ्यासी को ध्यानाभ्यास में मिलती है। तुम्बी=सुरत। लकड़ी=दसो इन्द्रियों के अन्दर की चेतन-धारें, ध्यान-अभ्यास में सिमटाव होने पर इसका गट्ठर बँध जाता है।

पद्यार्थ-श्री गुरु-प्रभु ने आज्ञा देकर भेजा कि उत्तम भोज्य पदार्थ भी मत लाना।। परन्तु पहली भिक्षा आन्तरिक चेतनात्मिका ज्येति-रूप अन्न की लाना। गाँव-नगर और अमीर-गरीब के पास नहीं जाना; परन्तु अनुभव की झोली को भरकर लाना। (जिस तरह अन्न के सेवन से भूख मिटती है और तृप्ति होती है, उसी तरह आन्तरिक चेतनात्मिका ज्योति को साधन-द्वारा अन्तर में पाने पर आन्तरिक ज्योति प्राप्त करने की भूख मिटती है और तृप्ति होती है। यह समाधि-जनित अनुभव में प्राप्त होनेयोग्य है। अतएव उपर्युक्त अन्न को अनुभव की झोली में भरकर लाने कहा)।।1।। दूसरी भिक्षा यह लाना कि जीव-जन्तु और जिन्दा-मुर्दा को छोड़कर मास् अर्थात् चन्द्र को मूर्द्धा या मस्तक में भरकर लाना। तात्पर्य यह कि जन-समूह से अलग हो, एकान्त में बैठ, बाहर की ओर से अपनी वृत्तियों को उलट अन्तर्मुख हो नेत्र-स्थान से ऊपर उठ, सहस्त्रदलकमल में चन्द्र-दर्शन करके अपने मस्तक-रूप हण्डी को भर लो।।2।। तीसरी भिक्षा चेतनात्मक शब्द-धार-जल को सुरत-रूप तुम्बी में भरकर लाना; परन्तु किसी जलाशय के पास नहीं जाना। (यह जल साधन-द्वारा अपने में मिलता है, बाहर के जलाशयों में जाने की कोई आवश्यकता नहीं होती है)।।3।। चौथी भिक्षा इस तरह की लाना कि इन्द्रियस्थ चेतन-धारों को अन्दर में ध्यानाभ्यास से समेटकर, मानो उन धारों की लकड़ियों को समेट-एकत्र कर यानी गट्ठर बाँध कर लाना।।4।।
संत कबीर साहब कहते हैं कि हे साधु भाइयो! यह बन्धन- रहित पद की बात है। जो इस पद्य का अर्थ लगाता है, वह सही सुजान है।।5।।  

परिचय

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