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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[72. कोई सुनता है गुरु ज्ञानी]


।। मूल पद्य ।।

कोई सुनता है गुरु ज्ञानी, गगन में आवाज होती झीनी ।।1।।
पहले होता नाद विन्दु से, फेर जमाया पानी ।।2।।
सब घट पूरन पूर रहा है, आदि पुरुष निर्वानी ।।3।।
जो तन पाया पटा लिखाया, त्रिस्ना नहीं बुझानी ।।4।।
अमृत छोड़ि विषय रस चाखा, उलटी फाँस फँसानी ।।5।।
ओअं सोहं बाजा बाजै, त्रिकुटी सुरत समानी ।।6।।
इड़ा पिंगला सुखमन सोधे, सुन्न धुजा फहरानी ।।7।।
दीद बरदीद हम नजरों देखा, अजरा अमर निसानी ।।8।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, यही आदि की बानी ।।9।।
शब्दार्थ-दीद=आँख। बरदीद=ऊपर की आँख।


।। मूल पद्य ।।

कोई सुनता है गुरु ज्ञानी, गगन में आवाज होती झीनी ।।1।।
पहले होता नाद विन्दु से, फेर जमाया पानी ।।2।।
सब घट पूरन पूर रहा है, आदि पुरुष निर्वानी ।।3।।
जो तन पाया पटा लिखाया, त्रिस्ना नहीं बुझानी ।।4।।
अमृत छोड़ि विषय रस चाखा, उलटी फाँस फँसानी ।।5।।
ओअं सोहं बाजा बाजै, त्रिकुटी सुरत समानी ।।6।।
इड़ा पिंगला सुखमन सोधे, सुन्न धुजा फहरानी ।।7।।
दीद बरदीद हम नजरों देखा, अजरा अमर निसानी ।।8।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, यही आदि की बानी ।।9।।
शब्दार्थ-दीद=आँख। बरदीद=ऊपर की आँख।

पद्यार्थ-अन्तराकाश में झीनी ध्वनि होती है, जिसको कोई ज्ञानी गुरु सुुनता है।। पहले विन्दु से नाद होता है, तब उस नाद में मन लगाकर मन-रूपी पानी को जमाया जाता है।।2।। इस तरह मन के थिर हो जाने पर उस अभ्यासी को निर्वाणपद-स्थित आदिपुरुष घट-घट में भरपूर व्यापक प्रत्यक्ष होता है।।3।। जिसने शरीर पाकर तृष्णा को शान्त नहीं किया, उसने मानो शरीर को अपने साथ रखने का पट्टा या अधिकार-पत्र (अधिकारी-सृष्टिकर्त्ता से) लिखा लिया हो। भावार्थ यह कि तृष्णा शान्त किये बिना ही शरीर में रहने से शरीर का भोग सुख-दुःखादि सदा पाता रहेगा अर्थात् आवागमन का चक्र नहीं छूटेगा।।4।। वह अमृत को छोड़कर विषय-रस चखता है और अपने को उलटे फाँस में फँसाता है अर्थात् मनुष्य-शरीर पाकर आवागमन से छूटना हो सकता था, सो नहीं होकर उलटे ही उस चक्र की फाँस में फँस गया।।5।। त्रिकुटी में समायी हुई सुरत ॐ एवं सोऽहम् के बजते हुए बाजां को सुनती है।।6।। इड़ा-पिंगला को सुषुम्ना में लाकर शुद्ध करे, तो उसकी ध्वजा शून्य में फहराएगी अर्थात् उसको शून्य पर अधिकार होगा।।7।। आँख के ऊपर की आँख (तीसरी आँख, शिवनेत्र) से अजर-अमर के चिह्न को मैंने नजरों से देखा है।।8।। कबीर साहब कहते हैं कि हे साधु भाई! सुनो, आदिपद को व्यक्त करने का शब्द यही है।।9।।  

परिचय

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