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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[71. अवधू सो जोगी गुरु मेरा]


।। मूल पद्य ।।

अवधू सो जोगी गुरु मेरा, या पद का जो करै निबेरा ।। टेक।।
तरवर एक मूल बिन ठाढ़ा, बिन फूले फल लागे ।
साखा पत्र नहीं कछु वाके, अष्ट कमल दल गाजे ।।1।।
चढ़ तरवर दो पंछी बैठे, एक गुरू एक चेला ।
चेला रहा सो चुन-चुन खाया, गुरू निरन्तर खेला ।।2।।
बिन करताल पखावज बाजै, बिन रसना गुन गावै ।
गावनहार के रूप न रेखा, सतगुरु मिलें बतावै ।।3।।
गगन मंडल में अधोमुख कुइयाँ, जहाँ अमी को बासा ।
सगुरा होय सो भर-भर पीवै, निगुरा जाय पियासा ।।4।।
सुन्न सिखर पर गइया बियानी, धरती छीर जमाया ।
माखन रहा जो सन्तन खाया, छाछ जगत भरमाया ।।5।।
पंछी को खोज मीन को मारग, कहै कबीर दोउ भारी ।
अपरम्पार पार पुरुषोत्तम, मूरत की बलिहारी ।।6।।


।। मूल पद्य ।।

अवधू सो जोगी गुरु मेरा, या पद का जो करै निबेरा ।। टेक।।
तरवर एक मूल बिन ठाढ़ा, बिन फूले फल लागे ।
साखा पत्र नहीं कछु वाके, अष्ट कमल दल गाजे ।।1।।
चढ़ तरवर दो पंछी बैठे, एक गुरू एक चेला ।
चेला रहा सो चुन-चुन खाया, गुरू निरन्तर खेला ।।2।।
बिन करताल पखावज बाजै, बिन रसना गुन गावै ।
गावनहार के रूप न रेखा, सतगुरु मिलें बतावै ।।3।।
गगन मंडल में अधोमुख कुइयाँ, जहाँ अमी को बासा ।
सगुरा होय सो भर-भर पीवै, निगुरा जाय पियासा ।।4।।
सुन्न सिखर पर गइया बियानी, धरती छीर जमाया ।
माखन रहा जो सन्तन खाया, छाछ जगत भरमाया ।।5।।
पंछी को खोज मीन को मारग, कहै कबीर दोउ भारी ।
अपरम्पार पार पुरुषोत्तम, मूरत की बलिहारी ।।6।।

भावार्थ-हे साधारण जन! वह योगी मेरा गुरु है, जो इस पद का निर्णय करे।।टेक।। बिना मूल के एक श्रेष्ठ वृक्ष खड़ा है, उसमें बिना फूल के फल लगता है, डाल और पत्ते उसको कुछ नहीं है। अष्टकमल की पत्तियाँ उसमें खिली हुई हैं। (तात्पर्य यह कि जड़ात्मिका प्रकृति-रूप वृक्ष बिना मूल के खड़ा है। बिना फूल के ही इसमें मन, बुद्धि, अहंकार, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश-फल लगे हुए हैं। इस वृक्ष में इन आठ फलों के भिन्न-भिन्न आठ मण्डल बनकर उसकी प्रकृतियाँ-वृत्तियाँ पत्तों के रूप में खिली हुई हैं)।।1।। उस वृक्ष के ऊपर दो पक्षी बैठे हुए हैं। एक गुरु-परमात्मा, एक चेला-जीवात्मा है। चेला-जीवात्मा फलों को चुन-चुनकर खाता है अर्थात् अष्टधा प्रकृति का भोग भोगता है और गुरु-परमात्मा सर्वदा जीवात्मा के खेल को देखता है।।2।। बिना करताल और पखावज के बाजा बजता है, बिना जिह्वा के गुण गाया जाता है, गानेवाले को रूप-रेखा नहीं है-इस रहस्य को सद्गुरु मिलें तो बतावें।।3।। गगन-मण्डल में एक नीचे मुखवाला कुआँ है, वहाँ अमृत का वासा है। जो गुरु का साथी है, वह अमृत को पूरा-पूरा पीता है, परन्तु जो निगुरा है, वह प्यासा ही चला जाता है।।4।। स्थूल आकाश की चोटी पर गौ बियायी अर्थात् सब इन्द्रियों में की चेतन-धारें उनसे निकलकर उस शून्य शिखर पर एक रूप में प्रकट हुईं। इस भूमण्डल पर उसने (अर्थात् इस प्रकार का अभ्यास करनेवाले ने) ज्ञान-रूप दूध को जमा दिया अर्थात् प्रचार-द्वारा संसार में स्थिर कर दिया। उसमें जो सार-रूप मक्खन था, संतों ने खाया और जो छाँछ असार था, उसको लेकर सांसारिक जीव भ्रम में पड़ गया।।5।। पक्षी की खोज और मछली का रास्ता, दोनों को जानना भारी दुर्गम है। कबीर साहब कहते हैं कि क्षराक्षर-पार अपरम्पार पुरुषोत्तम की बलिहारी है।।6।।  

परिचय

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