।। मूल पद्य ।।
ठगिनी क्या नैना चमकावे, कबिरा तेरे हाथ न आवे ।।
कद्दू काटि मृदंग बनाया, नीबू काटि मजीरा ।
सात तरोई मंगल गावे, नाचे बालम खीरा ।।
रूपा पहिर के रूप दिखावे, सोना पहिर तरसावै ।
गले डाल तुलसी की माला, तीन लोक भरमावै ।।
भैंस पप्रिनी आसिक चूहा, मेढ़क ताल लगावै ।
छप्पर चढ़ कर गदहा नाचे, ऊँट विष्णु पद गावै ।।
आम डारि चढ़ि कछुआ तोड़ै, गिलहरी चुन-चुन लावै ।
कहत कबीर सुनो भाइ साधो, बगुला भोग लगावै ।।
।। मूल पद्य ।।
ठगिनी क्या नैना चमकावे, कबिरा तेरे हाथ न आवे ।।
कद्दू काटि मृदंग बनाया, नीबू काटि मजीरा ।
सात तरोई मंगल गावे, नाचे बालम खीरा ।।
रूपा पहिर के रूप दिखावे, सोना पहिर तरसावै ।
गले डाल तुलसी की माला, तीन लोक भरमावै ।।
भैंस पप्रिनी आसिक चूहा, मेढ़क ताल लगावै ।
छप्पर चढ़ कर गदहा नाचे, ऊँट विष्णु पद गावै ।।
आम डारि चढ़ि कछुआ तोड़ै, गिलहरी चुन-चुन लावै ।
कहत कबीर सुनो भाइ साधो, बगुला भोग लगावै ।।
शब्दार्थ-ठगिनी=माया। कद्दू=स्थूल शरीर, पिण्ड, अंधकार। मृदंग=अनहद ध्वनि। नीबू=श्याम विन्दु। सात तरोई=प्रकाश के सात तल (1- बिजली-तल, 2, पाँच तत्त्वों के रंगों का तल, 3- केवल एक ही तारा का तल, 4- अनेक ताराओं का तल, 5- चाँदनी-तल, 6- चाँद-तल तथा 7- सूर्य-तल)। बालम खीरा=संसार और परिवार सबसे मिला-जुला रहते हुए अन्तर में सबसे अलग रहने का गुणवाला। नाचे=आनन्द से अन्तर और बाहर विचरण करे। भैंस=छह चक्रों में बद्ध ज्ञान-अहंकारवाली सुरत। आसिक=प्रेमी। चूहा=पिण्ड-रूपी बिल में रहनेवाला मन। मेढ़क=केवल परोक्ष ज्ञान का वक्ता। छप्पर=स्थूल वा पिण्ड के ऊपर का विन्दु, जो सूक्ष्म या ब्रह्माण्ड के सबसे निम्नतल का विन्दु है। गदहा (गद=रोग+हा=हनन करनेवाला)=आध्यात्मिक रोगों को दूर करनेवाला। ऊँट=तीन गुणों के काँटों को खानेवाला और लम्बे-ऊँचे उठे हुए गले पर के मस्तक की ऊँचाई पर की आँखों की दृष्टि से दूर तक देखनेवाला अर्थात् सूक्ष्म दिव्य दृष्टि से देखनेवाला, जिसको सारे ब्रह्माण्ड का दृश्य देखने में आता है। विष्णु पद=सुषुम्ना की सात्त्विक अनहद ध्वनि। आम डारि=अमरत्व प्राप्त करानेवाली अमृत-धारा (अनहद ध्वनि)। कछुआ=जैसे कछुआ अपनी गर्दन और पैरों को अपने शरीर में बाहर से खींचकर रखता है, इसी तरह जो अभ्यासी अपनी चेतन-धारों को अपनी इन्द्रियों के गोलकों से अन्दर में केन्द्रित करता है। गिलहरी=ऊपर-चढ़ाई में प्रमाद-रहित अभ्यासी। बगुला=शरीर स्थिर रखकर एक दृष्टि से अभ्यास करनेवाला।
पद्यार्थ-कबीर साहब माया से कहते हैं कि अरी माया ठगनी! आँख क्या चमकाती है? कबीरा तेरे हाथ में नहीं आता।। कद्दू (अंधकार) को काटकर मृदंग के अनहद नाद और श्याम तिल का भेदन करके मँजीरे की ध्वनि मैंने सुनी है। सातो प्रकाश के तल से मंगलमयी ध्वनियाँ सुनने में आती हैं। मैं बालम खीरा बन (अन्तर में सम्बन्ध-रहित, बाहर में सबसे सम्बन्ध रखते हुए रहकर) अन्दर और बाहर विचरण करता हूँ।। सोने-रूपे के जेवरों से सजकर भक्ति के चिह्न तुलसी की माला पहनकर स्त्री ललचाती है और तीनों लोकों में भरमाती है।। छह चक्रों में बद्ध परन्तु ज्ञान-अहंकारवाली सुरत (भैंस) पप्रिनी सुन्दरी है, उसका प्रेमी पिण्ड-रूपी बिल में रहनेवाला पिण्डस्थ मन है। श्वेत विन्दु-रूप छप्पर पर चढ़कर मनोविकारों (आध्यात्मिक रोगों) को नष्ट करनेवाला अभ्यासी चलता है और दृष्टियोग का अभ्यासी (सुषुम्ना में) सात्त्विकी अनहद ध्वनि (विष्णु पद) को अवगत करता है।। आम-डारि-अमृत फल की डार-अमृत धारा-रूप शब्द पर चढ़कर अन्तर में सिमटी हुई सुरत (कछुआ) अमृत फल तोड़ता है और वह ऊपर चढ़ने में प्रमाद-रहित (अभ्यासी) गिलहरी चुन-चुनकर संग्रह करती है। कबीर साहब कहते हैं कि सुनो साधो भाई! शरीर को स्थिर रखकर एक ध्यान से रहनेवाला (बगुला) उस फल का भोग लगाता है।।
परिचय
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