।। मूल पद्य, साखी ।।
गगन गरजि बरसे अमी, बादल गहिर गम्भीर ।
चहुँ दिसि दमकै दामिनी, भींजै दास कबीर ।।1।।
प्रथमै नगर पहूँचते, परिगो सोग सन्ताप ।
एक अचम्भा हम देखा, जो बिटिया ब्याहै बाप ।।2।।
समधी के घर समधी आये, आये बहू के भाय ।
गोडे चूल्हा दै दै, चरखा दियो रि ढाय ।।3।।
पहले जनम पुत्र का भयऊ, बाप जनमिया पाछै ।
बाप पूत के एकै नारी, इ अचरज कोइ काछै ।।4।।
इन्दुर राजा टीका बैठे, विषहर करे खवासी ।
स्वान बापुरो घरनि ढाकल्रो, बिल्ली घर में दासी ।।5।।
।। मूल पद्य, साखी ।।
गगन गरजि बरसे अमी, बादल गहिर गम्भीर ।
चहुँ दिसि दमकै दामिनी, भींजै दास कबीर ।।1।।
प्रथमै नगर पहूँचते, परिगो सोग सन्ताप ।
एक अचम्भा हम देखा, जो बिटिया ब्याहै बाप ।।2।।
समधी के घर समधी आये, आये बहू के भाय ।
गोडे चूल्हा दै दै, चरखा दियो रि ढाय ।।3।।
पहले जनम पुत्र का भयऊ, बाप जनमिया पाछै ।
बाप पूत के एकै नारी, इ अचरज कोइ काछै ।।4।।
इन्दुर राजा टीका बैठे, विषहर करे खवासी ।
स्वान बापुरो घरनि ढाकल्रो, बिल्ली घर में दासी ।।5।।
शब्दार्थ-प्रथमै नगर=पहला नगर, संत-साधना का पहला स्थान-आज्ञाचक्र, योग-हृदय, षष्ठचक्र। बिटिया=कन्या, पिण्डी मन की पुत्री इच्छा। बाप=पिता, पिण्डी मन। गोडे चूल्हा दै दै=दृष्टिधारों को विन्दु में दे-देकर। चरखा=मन-चक्र। रि=सम्बोधन। ढाय=ढाह गिराया, नष्ट किया। इन्दुर=चूहा (जीवात्मा)। टीका=गादी, प्रणव-विन्दु। विषहर= साँप, विषधर मन। घरनि=घरनी, गृहिणी, भार्या।
पद्यार्थ-कबीर साहब कहते हैं कि (अन्तर) आकाश में (अंधकार) बादल गहिर-गम्भीर गर्जन (अनहद ध्वनि) करके अमृत (चेतन-धार) बरसाता है। चारों तरफ बिजली चमकती है। (इस वर्षा में) अन्तर-साधक भक्त भींगता है।।1।। सुरत की चढ़ाई या पहुँच पहले स्थान (आज्ञाचक्र) में होते ही (काम-क्रोधादिक मनोविकारों को) शोक-संताप पड़ गया। मैंने एक आश्चर्य देखा कि पिण्डी मन* (बाप) से उत्पन्न हुई, उसकी पुत्री इच्छा से उस मन-रूपी पिता ने विवाह कर लिया अर्थात् मन के वश में इच्छा हो गई।।2।।
अरी सखी! प्रणव-विन्दु-रूप चूल्हे में युगल दृष्टि-धारों (गोड़ों, पैरों) को दे-देकर अर्थात् दृष्टियोग का अभ्यास कर-करके पिण्डी मन सिमटकर ब्रह्माण्डी मन में जा मिला। आत्मबोध का उदय हुआ। इच्छा, चिन्ता, डर और मानस-चक्र ढह गये-नष्ट हो गये।।3।। भक्त साधक के अन्तर में पहले विवेक उत्पन्न होता है, पीछे परम प्रभु परमात्मा सर्व-पिता को भी वह पाता है। अतएव पहले पुत्र का जन्म हुआ, पीछे पिता का जन्म हुआ**। तब परम प्रभु के वश में रहनेवाली माया उस भक्त के वश में भी हो गयी। इसलिए बाप-पुत्र की एक ही स्त्री हुई। ऐसा आश्चर्य कोई बनावे।।4।। जीवात्मा-रूप चूहा प्रणव-विन्दु-रूप गद्दी पर बैठा हुआ राजा है। मन-रूप सर्प उसकी खवासी करता है। कुत्ती-रूप इच्छा उस जीवात्मा के वश में होती है-विषयों की ओर से फिरी रहती है, अध्यात्म-बल को सुरक्षित रखती है और हिंसा-वृत्ति-रूपी बिल्ली उसकी दासी बन जाती है अर्थात् अधीन हो जाती है।।5।।
[* आज्ञाचक्र में स्थित मन के केन्द्रीय रूप को ब्रह्माण्डी मन कहते हैं और पिण्ड में फैलनेवाली उसकी धारों को पिण्डी मन कहते हैं। पिण्डी मन की दूसरी पुत्री चिन्ता है, ब्रह्माण्डी मन का पुत्र बोध है। बोध और चिन्ता का विवाह हुआ। अर्थात् चिन्ता बोध के वश में हो गयी। चिन्ता का भाई डर है; क्योंकि यह भी पिण्डी मन से उत्पन्न हुआ है। साधन-द्वारा पिण्डी मन ब्रह्माण्डी मन के घर गया, उससे मिला। इस तरह समधी के घर समधी गया। ब्रह्माण्डी मन की बहू-पतोहू चिन्ता का भाई डर भी अपने बाप के साथ वहाँ गया। पिंडी मन में इच्छा, चिन्ता और डर उपजते रहते हैं। जब यह सिमटकर अपने केन्द्र (ब्रह्माण्डी मन) में केन्द्रित होता है, तब आत्म-बोध का उदय होता है; इच्छा, चिन्ता और डर दूर हो जाते हैं। दृष्टि-धारों को आज्ञाचक्र के केन्द्र-विन्दु में बारम्बार लगाने से पिंडी मन ब्रह्माण्डी मन से मिलकर रहता है और इच्छा, चिन्ता, डर तथा सारे मनोविकारों से बना पिण्डी मन का चक्र नाश को प्राप्त होता है।]
[** अगवानी तो आइया, ज्ञान विचार विवेक।
पीछे गुरु भी आयेंगे, सारे साज समेत ।। -कबीर साहब ]
परिचय
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