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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[68. कोई देखो लोगो नैया बीच]


।। मूल पद्य ।।

कोई देखो लोगो नैया बीच, नदिया डूबी जाय ।। टेक।।
चिंउटी चलल अपन ससुररिया, नौ मन कजला लगाय ।
हाथी मारि बगल तर लीन्हा, ऊँटवा के लियो लटकाय ।।
एक चिंउटी के मरने से, नौ सौ गिद्ध अघाय।
ताहू में कुछ बाकी रह गये, ता पर चिल्ह मँडराय ।।
एक चिंउटी के थूके से, बन गये नदी हजार ।
पापी नरकी पार उतर गये, धर्मों बूड़े मझधार ।।
एक आश्चर्य हम ऐसा देखा, गदहा के दो सींग ।
चिंउटी गला में रस्सी बाँधि के, खैंचत अर्जुन भीम ।।
एक आश्चर्य हम ऐसा देखा, बन्दर दूहे गाय ।
दूध दही सब खाय-खाय के, माखन बनारस जाय ।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, यह पद है निरवानी ।
जो कोइ याको अर्थ लगावै, पहुँचे मूल ठेकानी ।।



।। मूल पद्य ।।

कोई देखो लोगो नैया बीच, नदिया डूबी जाय ।। टेक।।
चिंउटी चलल अपन ससुररिया, नौ मन कजला लगाय ।
हाथी मारि बगल तर लीन्हा, ऊँटवा के लियो लटकाय ।।
एक चिंउटी के मरने से, नौ सौ गिद्ध अघाय।
ताहू में कुछ बाकी रह गये, ता पर चिल्ह मँडराय ।।
एक चिंउटी के थूके से, बन गये नदी हजार ।
पापी नरकी पार उतर गये, धर्मों बूड़े मझधार ।।
एक आश्चर्य हम ऐसा देखा, गदहा के दो सींग ।
चिंउटी गला में रस्सी बाँधि के, खैंचत अर्जुन भीम ।।
एक आश्चर्य हम ऐसा देखा, बन्दर दूहे गाय ।
दूध दही सब खाय-खाय के, माखन बनारस जाय ।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, यह पद है निरवानी ।
जो कोइ याको अर्थ लगावै, पहुँचे मूल ठेकानी ।।

पद्यार्थ-हे लोगो! कोई देखो, शरीर-रूपी नाव में अन्तर्मुखी होती हुई सुरत डूबी जा रही है।।टेक।। पिण्ड के नौ द्वारों में मन के पसार को समेटकर उसे अपने में काजलवत् लगाकर सुरत-रूप चींटी अपने प्रभु के पास चली। मन-रूपी हाथी को मारकर और तृष्णा-रूपी ऊँट को लटकाकर अर्थात् काबू में रखकर वह ले चली।। सिमटी हुई सुरत (एक चींटी) स्थूल शरीर से ऊपर उठकर सूक्ष्म शरीर में प्रवेश पाकर, उसके इस दिव्य मृत्यु में मरने पर बहुत-से दूरदर्शी-दृष्टियोग-साधक (विन्दुग्राही* बहुत दूर तक देखनेवाले) रूप गिद्धगण संतुष्ट होते हैं। जिस आनन्द-भोग से उपर्युक्त गिद्धगण संतुष्ट होते हैं, उसमें और कुछ बचा रहता है, जिसके चारो तरफ शब्द-अभ्यासी शून्यगामी (चील) मँड़राते रहते हैं।। एक सिमटी हुई सुरत-चींटी ने अन्तर की सूक्ष्मता में प्रवेश कर आध्यात्मिक अनुभूतियाँ प्राप्त कीं। फिर स्थूल ज्ञान में उतरकर थूक दिया अर्थात् अपनी अनुभूतियों के ज्ञान को मुख से कहा, जिसे हजारों-अनेक मनुष्यों ने प्राप्त किया और इन अनेकों के द्वारा ज्ञान-प्रचार की अनेक धाराएँ बह गईं। पापी और नारकीय लोगों ने इस ज्ञान-नदियों को पार कर लिया अर्थात् इनकी अवहेलना की और धर्मात्मा लोग कथित ज्ञान-नदियों में डूब गये अर्थात् बहुत आदर किया।। मैंने एक ऐसा आश्चर्य देखा कि आध्यात्मिक रोगों को दूर करनेवाले (गद+हा) के ज्ञान और ध्यान-रूप दो सींग हैं (जिनसे वह संसार के आक्षेपों को दूर करता है।) और सुरत-चींटी को गुरु-भेद के रस्से में बाँधकर, मन और इन्द्रिय आदि के अन्दर से ज्ञान-बल के बड़े- बड़े बलवान खींच रहे हैं।। एक आश्चर्य मैंने ऐसा देखा कि चंचल और उछल-कूद करनेवाला मन (बन्दर) इन्द्रिय-(गो) गाय को दुहता है अर्थात् ध्यानाभ्यास-द्वारा सुरत की धारों को इन्द्रियों में से निकालकर केन्द्रित करता है। सुरत के खिंचाव के सुख-रूप दूध-दही को वह खाता है और उसका सार निर्मल सुरत-रूप मक्खन बनारस (वाराणसी**) रूप आज्ञाचक्र में जा पहुँचता है।। कबीर साहब कहते हैं कि सुनो भाई साधो! यह निर्वाणी पद है अर्थात् मोक्ष-विषयक शब्द है। जो कोई इसका अर्थ लगावे, वह मूल स्थान को पहुँचे।।  


[* विन्दौ मनोलयं कृत्वा दूरदर्शनमाप्नुयात् ।। -योगशिखोपनिषद्, अ0 5, श्लोक 47
अर्थ-विन्दु में मन को लीन करके दूर-दर्शन प्राप्त करते हैं।।47।।]

[** सर्वानिन्द्रियकृतान्दोषान्वारयतीति तेन वरणा भवति । सर्वानिन्द्रियकृतान्पापान्नाशयतीति तेन नाशी भवतीति ।।
कतमं चास्य स्थानं भवतीति। भ्रुवोर्घ्राणस्य च यः सन्धिः स एष द्योर्लोकस्य
परस्य च सन्धिर्भवतीति। एतद्वै सन्धिं सन्ध्यां ब्रह्मविद् उपासत इति ।। 2।।
-जाबोलोपनिषद्
अर्थ-सब इन्द्रिय-कृत दोषों को जो दूर करता है, वही वरणा है और जो सब इन्द्रिय-कृत पापों को नष्ट करता है, वही नाशी कहलाता है। कहाँ वह स्थान है ? दोनों भौंओं का और नासिका का जो मिलन-स्थान है (वही वह स्थान है)। वह द्युर्लोक और परलोक का भी मिलन-स्थान है। इस संधि-स्थान में ब्रह्मज्ञानी अपनी सन्ध्या की उपासना करते हैं अर्थात् वहाँ पर ध्यान करके ब्रह्म-साक्षात्कार की चेष्टा करते हैं।।2।।
बनारस का पुराना नाम वाराणसी है, वरणा और नाशी कहकर वाराणसी को ही व्यक्त किया जाता है। ] 

परिचय

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