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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[67. है कोई गुरु ज्ञान पंडित]


।। मूल पद्य ।।

है कोई गुरु ज्ञान पंडित, उलटि वेद बूझे ।
पानी में आग लागी, अन्धे की सूझे ।। टेक।।
गदहा पिरथम तार धारी, कच्छ विलार नाचे ।
कूरम तेरे संग डोले, घूस पुरान बाचे ।।
हस्ती कर पान करे, भैंसा कर जोड़े ।
ऊँट घोड़े मगन भये, बैल तान तोड़े ।।
बकरी ने बाघ मार्यो, हिरन मार्यो चीता ।
चील नगारो दे चली, बटेरी बाज जीता ।।
अटकोरे पर ढोल बाजे, सुनु बे बहरे ।
अन्धे ने चोर धर्यो, धाये लँगरे ।।
टुण्डा मिरदंग झारे, गूंगा पद गावे ।
कहै कबीर इसको, बिरला लख पावे ।।



।। मूल पद्य ।।

है कोई गुरु ज्ञान पंडित, उलटि वेद बूझे ।
पानी में आग लागी, अन्धे की सूझे ।। टेक।।
गदहा पिरथम तार धारी, कच्छ विलार नाचे ।
कूरम तेरे संग डोले, घूस पुरान बाचे ।।
हस्ती कर पान करे, भैंसा कर जोड़े ।
ऊँट घोड़े मगन भये, बैल तान तोड़े ।।
बकरी ने बाघ मार्यो, हिरन मार्यो चीता ।
चील नगारो दे चली, बटेरी बाज जीता ।।
अटकोरे पर ढोल बाजे, सुनु बे बहरे ।
अन्धे ने चोर धर्यो, धाये लँगरे ।।
टुण्डा मिरदंग झारे, गूंगा पद गावे ।
कहै कबीर इसको, बिरला लख पावे ।।

शब्दार्थ-पण्डित=विद्वान। उलटि=उलटकर, बहिर्मुख से अन्तर्मुख होकर। पानी=जल, वीर्य। अन्धे=स्थूल दृष्टि से देखना जिसने छोड़ा है। गदहा=(गद=रोग। हा=हनन करनेवाला, मारनेवाला, दूर करनेवाला) आध्यात्मिक रोगों को दूर करनेवाला। पिरथम=प्रथम। तारधारी=सुरत-तार को ग्रहण करनेवाला। कच्छ=किनार, नदी का कछार, स्थूल मण्डल का अन्तिम विन्दु। विलार=(वि=विशेष। लार=साथ) विशेष साथ। कच्छ विलार=जिसको स्थूल मण्डल के अन्तिम विन्दु वा दृष्टियोग से प्रथम दर्शित श्याम विन्दु का विशेष साथ हो। कूरम=कूर्म, कछुआ, जैसे कछुआ अपनी गर्दन और पैरों को अपने शरीर में बाहर से खींचकर रखता है, इसी तरह जो अभ्यासी अपनी चेतनधारों को अपनी इन्द्रियों के गोलकों से अन्दर में केन्द्रित करता है। घूस=बड़ा मूसा अर्थात् बिल में रहनेवाला, जो अभ्यासी अपने को अपने स्थूल शरीर से समेटकर अपने अन्दर सूक्ष्म मण्डल में विशेष काल तक रख सकता है, जैसे कि चूहा बिल में रहता है। घूस पुरान बाचे=अपने को विशेष काल तक अपने अन्दर के सूक्ष्म मण्डल में रखनेवाले का ज्ञान बढ़ जाता है। वह पुरानी बातों का जानकार हो जाता है, जैसे किसी ने पुराणों को पढ़ा हो। कर=किरण (चेतन-धार), हाथ। भैंसा=तामसी वृत्तिवाला ज्ञान। ऊँट=ऊँचाई से देखनेवाला। घोड़े=तीव्र गति से चलनेवाले। मगन=मग्न, आनन्दित। तान तोड़े=आपेक्ष करे। बैल=मोटी बुद्धिवाला। बकरी=निर्बल पशु, बकरीवत् सुरत। बाघ=मन। हिरन (हिरण)=तीव्र गति से भागनेवाली हिरणवत् सुरत। चीता=मन। अटकोरे=मुँडेरा, पिण्ड का शिखर, तीसरा तिल। ढोल बाजे=अनहद ध्वनि होती है। टुण्डा=जिसका हाथ कट गया हो, लूला, लुंजा, लूल्हा, बाहरी इन्द्रियों से अन्दर की ओर सिमटी हुई सुरतवाला। मिरदंग झारे=अनहद ध्वनि सुनता है।

पद्यार्थ-क्या कोई गुरु के ज्ञान का विद्वान है, जो (बहिर्मुख से अन्तर्मुख) उलटकर ज्ञान बूझता है? पानी में आग लगी अर्थात् वीर्य-संचयी के अन्दर ब्रह्मतेज का उदय होता है। बाह्य दृश्य को नहीं देखनेवाले अन्धे को सूझता है।। आध्यात्मिक रोगों को मारनेवाला पहले सुरत को धारण करता है अर्थात् सुरत-धारों को समेटकर धारण करता है। वह स्थूल मण्डल के किनारे अर्थात् अन्तिम विन्दु के विशेष संग में नाचता है अर्थात् गतिशील होता है। इन्द्रियों के गोलकों से अपनी वृत्तियों को खींचकर अन्दर में केन्द्रित होनेवाला मन-रूपी कछुआ तुम्हारे संग विचरण करेगा। अपने को विशेष काल तक अपने अन्दर के सूक्ष्म मण्डल-रूप बिल में रखनेवाले अभ्यासी (चूहे) का ज्ञान बढ़ जाता है। वह पुरानी बातों का जानकार हो जाता है, जैसे किसी ने पुराणों को पढ़ा हो।। स्थूलता में फैले हुए विषय-मद-मत्त सुरत-रूप हाथी को चाहिए कि अपनी किरणों या धाराओं को समेटकर केन्द्रित करे अर्थात् पिये, तो तामसी वृत्तिवाला ज्ञान हाथ जोड़ेगा-अधीन हो जायगा अर्थात् प्रबल नहीं रहेगा। सूक्ष्म मण्डल पर चढ़ा हुआ अभ्यासी ऊँचाई से देखनेवाला (ऊँट) और तीव्र गति से ऊर्ध्व को चलनेवाला अभ्यासी (घोड़ा) प्रसन्न हुआ और मोटी बुद्धि के लोग उसपर कटाक्ष करते हैं।। मन और इन्द्रियों के वश में पड़ी हुई सुरत (बकरी) ने ध्यानाभ्यास-द्वारा मन और इन्द्रियों का संग छोड़कर मन-मण्डल के ऊपर उठ, मन को वश में कर लिया। ध्यानाभ्यास-द्वारा ऊर्ध्व-पथ में तीव्रता से गतिशील सुरत (हिरण) ने चीता-रूप मन को मार डाला। ध्यान-बल में तथा गगन-पथ में विचरण करने में न्यून सुरत (बटेरी या बटेर) विशेष ध्यानाभ्यास से अनहद ध्वनि (नगाड़ा) बजाकर अर्थात् धरकर चली, विशेष बलवती (चील) हुई और मन-मण्डल को पार कर मन-रूप बाज को मार डाला अर्थात् वश में कर लिया।। मुँडेरे-तीसरे तिल पर ढोल बजता है अर्थात् अनहद ध्वनि होती है। अरे स्थूल ज्ञान से ऊपर उठे हुए, स्थूल ध्वनियों को नहीं सुनते हुए बहरे! सुन, दृष्टियोग में निरत स्थूल दृश्यों को नहीं देखते हुए अन्धे ने (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और मात्सर्य) मन के विकार-रूप चोरों को वश में किया और स्थूल विषयों की ओर की गति में शिथिल (लँगड़ा) अन्तर-पथ में दौड़ा।। स्थूल विषयों के कर्मों में नहीं रहनेवाला लूल्हा मृदंग बजाता है अर्थात् अनहद ध्वनि ग्रहण करता है और उस दशा में तब वह मुँह से कुछ नहीं बोलता है। गूँगा होकर अनहद नाद सुनता रहता है, मानो पद गाता हो। कबीर साहब कहते हैं कि उस वर्णन को थोड़े लोग देख पाते हैं।।  

परिचय

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