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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[65. रस गगन गुफा में अजर झरै]


।। मूल पद्य ।।

रस गगन गुफा में अजर झरै ।।
बिन बाजा झनकार उठै जहँ, समुझि पड़ै जब ध्यान धरै ।।1।।
बिना ताल जहँ कमल फुलाने, तेहि चढ़ि हंसा केल करै ।।2।।
बिन चन्दा उजियारी दरसै, जहँ तहँ हंसा नजर परै ।।3।।
दसमें द्वारे ताड़ी लागी, अलख पुरुष जाको ध्यान धरै ।।4।।
काल कराल निकट नहिं आवै, काम क्रोध मद लोभ जरै ।।5।।
जुगुन जुगन की तृष्णा बुझानी, कर्म भर्म अघ व्याधि टरै ।।6।।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, अमर होय कबहूँ न मरै ।।7।।


।। मूल पद्य ।।

रस गगन गुफा में अजर झरै ।।
बिन बाजा झनकार उठै जहँ, समुझि पड़ै जब ध्यान धरै ।।1।।
बिना ताल जहँ कमल फुलाने, तेहि चढ़ि हंसा केल करै ।।2।।
बिन चन्दा उजियारी दरसै, जहँ तहँ हंसा नजर परै ।।3।।
दसमें द्वारे ताड़ी लागी, अलख पुरुष जाको ध्यान धरै ।।4।।
काल कराल निकट नहिं आवै, काम क्रोध मद लोभ जरै ।।5।।
जुगुन जुगन की तृष्णा बुझानी, कर्म भर्म अघ व्याधि टरै ।।6।।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, अमर होय कबहूँ न मरै ।।7।।

शब्दार्थ-रस=सुख, स्वाद। गगन-गुफा=आकाशी गुफा। अजर= अमृत। ताल=सरोवर, तालाब। तृष्णा=प्यास, अभिलाषा। अघ=पाप। व्याधि=रोग।

पद्यार्थ-सुख-स्वाद की आकाशी गुफा में अमृत झरता है।। बिना बाजे के जहाँ झनकार उठती है। यह बात तब समझ में आती है, जब कोई ध्यान धरता है।। बिना सरोवर के जहाँ कमल फूलता है, उसपर चढ़कर जीवात्मा क्रीड़ा करता है।। बिना चाँद के प्रकाश देखने में आता है और (उस मण्डल में) जहाँ-तहाँ निर्मल सुरतगण देखने में आते हैं। दसवें द्वार (शिवनेत्र) में ध्यान लगा। अलख पुरुष का, जिसका ध्यान धरा जाता है, दर्शन हुआ।। भयंकर काल नजदीक नहीं आता है और काम, क्रोध, मद और लोभ जल जाते हैं।। युग-युग (विषय-सुख) की इच्छा बुत गई। कर्म, भ्रम, पाप और रोग दूर हो गये।। कबीर साहब कहते हैं कि हे साधो भाई! सुनो, वह अमर हो जाता है और कभी नहीं मरता है।।

टिप्पणी-संत-साधना का भेद जाननेवाले साधक को यह रस, गगन-गुफा में प्रत्यक्षतः पहचान में आता है। इसको गगन-गुफा क्यों कहते हैं, यह बात उसको ठीक-ठीक समझ में आती है; और वह रस क्या है, जिसके कारण उस गगन-गुफा को ‘रस-गगन-गुफा’ कहते हैं, सो भी उसके लिए प्रत्यक्ष हो जाता है। समझने और समझाने से वह बात दूर है।  

परिचय

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