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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[64. फल मीठा पै ऊँचा तरवर]


।। मूल पद्य ।।

फल मीठा पै ऊँचा तरवर, कौनि जतन करि लीजै ।
नेक निचोड़ सुधा रस वाको, कौनि जुगति से पीजै ।।1।।
पेड़ विकट है महा सिलहला, अगह गह्यो नहिं जावै ।
तन मन डारि चढ़ै सरधा से, तब वा फल को खावै ।।2।।
बहुतक लोक चढै़ बिन भेदै, देखी देखा याहीं ।
रपटि पाँव गिरि पड़े अधर तें, आइ पड़े भुइँ माहीं ।।3।।
सत्त सब्द के खूँटे धरि पग, गहि गुरु-ज्ञानहिं डोरा ।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, तब वा फल को तोरा ।।4।।


।। मूल पद्य ।।

फल मीठा पै ऊँचा तरवर, कौनि जतन करि लीजै ।
नेक निचोड़ सुधा रस वाको, कौनि जुगति से पीजै ।।1।।
पेड़ विकट है महा सिलहला, अगह गह्यो नहिं जावै ।
तन मन डारि चढ़ै सरधा से, तब वा फल को खावै ।।2।।
बहुतक लोक चढै़ बिन भेदै, देखी देखा याहीं ।
रपटि पाँव गिरि पड़े अधर तें, आइ पड़े भुइँ माहीं ।।3।।
सत्त सब्द के खूँटे धरि पग, गहि गुरु-ज्ञानहिं डोरा ।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, तब वा फल को तोरा ।।4।।

शब्दार्थ-पै=परन्तु। तरवर=श्रेष्ठ वृक्ष, पुरुषोत्तम, परमात्मा (अछय पुरुष एक पेड़ है, निरंजन वाका डार। तिरदेवा साखा भये, पात भया संसार।। -कबीर साहब) नेक=थोड़ा। निचोड़=निचोड़कर, गारकर। डारि=नीचे गिराकर। रपटि=पिछड़कर।

पद्यार्थ-परम पुरुष परमात्मा-रूपी श्रेष्ठ वृक्ष का फल मीठा है; परन्तु वह (तरुवर) ऊँचा है। किस यत्न से उस फल को लिया जाय? उस फल को निचोड़कर थोड़ा अमृत रस किस यत्न से पिया जाय? वह वृक्ष बड़ा भयंकर है, बड़ा पिच्छड़ है, ग्रहण करने-योग्य नहीं है, ग्रहण किया नहीं जाता है। तन-मन को नीचे गिराकर, श्रद्धायुक्त हो (केवल चेतन-निर्मल सुरत) उसपर चढ़े, तब उस फल को खाय।। बिना युक्ति जाने देखा-देखी से बहुत लोग इसपर चढ़े, ऊपर से पैर पिछलकर धरती पर आ गिरे।। कबीर साहब कहते हैं कि गुरु-ज्ञान की डोरी को पकड़कर सत्यशब्द के खूँटे पर पैर धरे (सत्शब्द में सुरत लगावे), तब उस फल को तोड़े।।  

परिचय

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