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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[63. जियत न मार मुआ मत लैयो]


।। मूल पद्य ।।

जियत न मार मुआ मत लैयो, मास बिना मत ऐयो रे ।। टेक।।
परली पार एक बेल का बिरवा, वाके पात नहीं है रे ।
पात होत चुगि जात मिरगवा, मृगा के सीस नहीं है रे ।। 1 ।।
धनुष बान ले चढ़ा पारधी, धनुआँ के परच नहीं है रे ।
सर-सर बान तकातक मारे, मिरगा के घाव नहीं है रे ।। 2।।
उर बिनु खुर बिनु चरण चोंच बिनु, उड़त पंख नहिं जाके रे ।
जो कोइ हंसा मारि लियावै, रक्त मांस नहीं ताके रे ।। 3।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, यह पद अति ही दुहेला रे ।
जौ या पद को अर्थ बतावै, सोई गुरु हम चेला रे ।। 4।।

साध सिंह की एक मति, जीवत ही को खाय ।
भावहीन मिरतक दसा, ताके निकट न जाय ।।


।। मूल पद्य ।।

जियत न मार मुआ मत लैयो, मास बिना मत ऐयो रे ।। टेक।।
परली पार एक बेल का बिरवा, वाके पात नहीं है रे ।
पात होत चुगि जात मिरगवा, मृगा के सीस नहीं है रे ।। 1 ।।
धनुष बान ले चढ़ा पारधी, धनुआँ के परच नहीं है रे ।
सर-सर बान तकातक मारे, मिरगा के घाव नहीं है रे ।। 2।।
उर बिनु खुर बिनु चरण चोंच बिनु, उड़त पंख नहिं जाके रे ।
जो कोइ हंसा मारि लियावै, रक्त मांस नहीं ताके रे ।। 3।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, यह पद अति ही दुहेला रे ।
जौ या पद को अर्थ बतावै, सोई गुरु हम चेला रे ।। 4।।

साध सिंह की एक मति, जीवत ही को खाय ।
भावहीन मिरतक दसा, ताके निकट न जाय ।।

शब्दार्थ-जियत=ईश्वर का प्रेमी, भक्त। मुआ=अभक्त। मास= चन्द्रमा। परली पार=दूसरे किनारे पर। बेल=लता, लत्तर। बिरवा=अंकुर। चुगि=एक-एक को चुनकर खाना। पारधी=अहेरी, शिकारी। चढ़ा=धावा किया। परच=प्रत्यंचा, धनुष की डोरी, रोदा। सर-सर=जमीन पर रेंगने का शब्द, वायु के चलने से उत्पन्न ध्वनि, यहाँ पर अनहद ध्वनि से तात्पर्य है। तकातक=ताक-ताककर। उर=छाती। चोंच=मुँह। दुहेला=कठिन।

पद्यार्थ-ईश्वर के प्रेमी भक्त को दुःख मत दो, अभक्त को मत लाओ। चन्द्रमा के बिना लौटकर मत आओ*।। (अंधकार-मण्डल के) दूसरे किनारे पर एक लत्तर का अंकुर है, उसमें पत्ता नहीं है। पत्ता होता है-उन्नति होती है, तो एक-एक को चुनकर मृगा खा जाता है, उस मन-रूप मृगा को माथा नहीं है।। (उस मृगा को मारने के लिए) धनुष-वाण लेकर (ध्यान-अभ्यासी साधक) अहेरी ने धावा किया, उसके धनुष में डोरी नहीं है। वह अहेरी ताक-ताककर अर्थात् दृष्टियोग-अभ्यास करके अनहद ध्वनि के तीर से उस मन-मृगा को मारता है; परन्तु मृगा को दुःख नहीं होता है।। (वह मृगा ऐसा है) जिसको छाती, खुर, पैर, मुँह और उड़ने के पंख नहीं हैं। जो कोई हंसा (शुद्ध अन्तःकरणवाला) उस मृगा को मार लाता है, (तो वह पाता है कि) उसको रक्त-मांस नहीं है।। कबीर साहब कहते हैं कि सुनो साधु भाइयो! यह पद-दर्जा बहुत ही कठिन है। जो इस पद्य (गीत, भजन) का अर्थ बतावे, वही गुरु और मैं चेला हूँ।।

टिप्पणी-जबतक मन पूर्ण रूप से जीता नहीं जाता है, तबतक मन मरा हुआ नहीं कहलाता है। दृष्टियोग-अभ्यास से शब्द-योग करने की योग्यता हो जाती है। शब्द-अभ्यास से ही मन पूर्णरूपेण वश में आता है-गोया मारा जाता है**।
साध सबद सौं मिलि रहै, मन राखै बिलमाइ ।
साध सबद बिन क्यौं रहै, तबहीं बीखरि जाइ ।।
-संत दादू दयालजी
मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः।
नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः।।
अर्थ-नाद मदान्ध हाथी-रूप चित्त को, जो विषयों की आनन्द-वाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है।
नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते ।
अन्तरंगसमुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा ।।
अर्थ-मृग-रूपी चित्त को बाँधने के लिए यह (नाद) जाल का काम करता है। समुद्र-तरंग-रूपी चित्त के लिए यह (नाद) तट का काम करता है।  

[* चन्दा झलकै एहि घट माहीं । अन्धी आँखिन सूझत नाहीं ।।
-संत कबीर साहब
ध्यान-अभ्यास में चन्द्र-दर्शन किये बिना ध्यान नहीं छोड़ो।]
[** सबद खोजि मन बस करै, सहज योग है येहि ।
सत्त सब्द निज सार है, यह तो झूठी देहि ।।
-संत कबीर साहब] 

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