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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[62. उठि पछिलहरा पिसना पीस ]


।। मूल पद्य ।।

उठि पछिलहरा पिसना पीस ।। टेक।।
ढोरु पछोरु पलक छिन दम दम, अनहद जाँत गड़ा तेरे सीस ।।1।।
कर बिनु चलै झींक बिन निधरै, बंक नाल चलै बिस्वाबीस ।।2।।
मन मैदा मींहीं कर चालो, चोकर तजियो पाँच पचीस ।।3।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, आपुइ आय मिलैं जगदीश ।।4।।


।। मूल पद्य ।।

उठि पछिलहरा पिसना पीस ।। टेक।।
ढोरु पछोरु पलक छिन दम दम, अनहद जाँत गड़ा तेरे सीस ।।1।।
कर बिनु चलै झींक बिन निधरै, बंक नाल चलै बिस्वाबीस ।।2।।
मन मैदा मींहीं कर चालो, चोकर तजियो पाँच पचीस ।।3।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, आपुइ आय मिलैं जगदीश ।।4।।

शब्दार्थ-पछिलहरा=पिछले पहर रात। पिसना=आटा। ढोरु पछोरु= लुढ़का-फटककर, पैंच-फटककर। जाँत=चक्की, जाँता। निधरै=पूर्ण रूप में पिस जाना। बिस्वाबीस=पूरा-पूरा।

पद्यार्थ-पल-पल, क्षण-क्षण और श्वास-श्वास अर्थात् सदा-सर्वदा (मन को) पैंच-फटककर अर्थात् विशुद्ध करके पिछले पहर रात्रि में उठकर तुम्हारे माथे में गड़ी हुई अनहद की चक्की में मन का आटा पीसो।। (वह चक्की) बिना हाथ से ही चलाये चलती है और बिना झींक के ही मन का आटा पूर्ण रूप से पिस जाता है अर्थात् मन महीन हो जाता है। तब वह बंकनाल से पूरा-पूरा चलता है।। मन-मैदे को महीन करके चालो और पाँच तत्त्व तथा पचीस प्रकृतियों के चोकर को त्याग दो।। कबीर साहब कहते हैं कि हे साधु भाइयो! तो जगत्पति परमात्मा आप ही आकर मिलेंगे।।  

परिचय

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