।। मूल पद्य ।।
भाई कोई सतगुरु संत कहावै । नैनन अलख लखावै ।। टेक।।
डोलत डिगै न बोलत बिसरै, जब उपदेस दृढ़ावै ।
प्राण पूज्य किरिया तें न्यारा, सहज समाधि सिखावै ।। 1 ।।
द्वार न रूँधे पवन न रोकै, नहिं अनहद अरुझावै ।
यह मन जाय जहाँ लगि जबहीं, परमातम दरसावै ।। 2 ।।
करम करै निःकरम रहै जो, ऐसी जुगत लखावै ।
सदा विलास त्रस नहिं मन में, भोग में जोग जगावै ।। 3 ।।
धरती त्यागि अकासहु त्यागै, अधर मड़इया छावै ।
सुन्न सिखर के सार सिला पर, आसन अचल जमावै ।। 4 ।।
भीतर रहा सो बाहर देखै, दूजा दृष्टि न आवै ।
कहत कबीर बसा है हंसा, आवागमन मिटावै ।। 5 ।।
।। मूल पद्य ।।
भाई कोई सतगुरु संत कहावै । नैनन अलख लखावै ।। टेक।।
डोलत डिगै न बोलत बिसरै, जब उपदेस दृढ़ावै ।
प्राण पूज्य किरिया तें न्यारा, सहज समाधि सिखावै ।। 1 ।।
द्वार न रूँधे पवन न रोकै, नहिं अनहद अरुझावै ।
यह मन जाय जहाँ लगि जबहीं, परमातम दरसावै ।। 2 ।।
करम करै निःकरम रहै जो, ऐसी जुगत लखावै ।
सदा विलास त्रस नहिं मन में, भोग में जोग जगावै ।। 3 ।।
धरती त्यागि अकासहु त्यागै, अधर मड़इया छावै ।
सुन्न सिखर के सार सिला पर, आसन अचल जमावै ।। 4 ।।
भीतर रहा सो बाहर देखै, दूजा दृष्टि न आवै ।
कहत कबीर बसा है हंसा, आवागमन मिटावै ।। 5 ।।
शब्दार्थ-रूँधे=रोके, बन्द करे। अधर=अन्तरिक्ष, पृथ्वी और सूर्यादि लोकों के बीच का स्थान (यहाँ पिण्ड और ब्रह्माण्ड के बीच का स्थान)। सुन्न सिखर की सार सिला=शून्य की चोटी पर के श्रेष्ठ और दृढ़ स्थान अर्थात् जड़ात्मिका प्रकृति-अपरा और चैतन्यात्मिका परा प्रकृति की संधि। सार=श्रेष्ठ, परा प्रकृति। सिला=चट्टान, सिला का तात्पर्य यहाँ दृढ़ तत्त्व से है।
पद्यार्थ-हे भाई! जो कोई सद्गुरु संत कहलाते हैं, वे आँखों से अलख लखाते हैं। (स्थूल दृष्टि को सूक्ष्म वा दिव्य रूप अलख है। सद्गुरु संत दृष्टियोग का भेद बताकर सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त करने को कहते हैं, जिससे सूक्ष्म वा दिव्य रूप के दर्शन होते हैं तथा परमात्म-स्वरूप, जो सूक्ष्म दृष्टि को भी अलख है, केवल चेतन आत्मा के द्वारा ही दर्शित होनेयोग्य है, उसके लिए भी नादानुसंधान-सुरत-शब्द-योग की युक्ति वे बतलाते हैं, जिससे उस अलख के भी दर्शन होते हैं*।।टेक।। वे चलते-फिरते हुए (परम तत्त्व से) विचलित नहीं होते हैं और जब उपदेश सुनाने के लिए वे बोलते हैं, तब भी उस तत्त्व को नहीं भूलते हैं**, वे प्राणों से पूजनेयोग्य हैं। वे सहज समाधि सिखाते हैं।।1।। वे न शरीर के द्वारों को बन्द करते हैं, न पवन को रोकते हैं और न अनहद में उलझते हैं। सहज समाधि के द्वारा इस मन की गति जहाँ तक है, वहाँ तक जब मन जाता है, तब मन की गति के आगे चैतन्य आत्मा को परमात्मा का दर्शन होता है।।2।। वे ऐसी युक्ति लखाते हैं कि जिससे कर्म करनेवाला कर्म-रहित रहता है। वे सदा आनन्दित रहते हैं, उनके मन में डर नहीं रहता है और वे भोग में योग जगाते हैं।।3।।
टिप्पणी-भोग में योग जगाने से तात्पर्य- " सांसारिक जीवन में संसार के भोगों के अन्दर स्वाभाविक ही रहना पड़ता है; परन्तु भोग में योग जगानेवाला योगी उन भोगों का स्वल्प भोगी होकर रहता है और योग-अभ्यास करता है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपनी रामायण में संत को ‘अमित बोध अनीह मित भोगी। सत्य सार कवि कोविद जोगी।।’ कहा है।"
शरीर-रूपी धरती और बाहरी आकाश को छोड़कर अपने अन्दर शून्य में सुरत को जगाते हैं। शून्य की चोटी पर के दृढ़ तत्त्व और परिवर्त्तन-रहित (चेतन) तत्त्व पर अविचलित भाव से रहते हैं।।4।। जो भीतर में था, वह उन्हें बाहर में दरसता है। उनकी दृष्टि में दूसरा नहीं आता है। कबीर साहब कहते हैं कि वे पवित्र पुरुष (हंस) मोक्ष-धाम में बस गये हैं। संसार में उनका आवागमन नष्ट हो गया।।5।।
[* ब्रह्मप्रणव संधानं नादो ज्योतिर्मयः शिवः ।
स्वयमाविर्भवेदात्मा मेघापायेंऽशुमानिव ।।-नादविन्दूनिषद्
अर्थ-ब्रह्म और प्रणव के योग (सन्धान) से यह नाद प्रकट होता है, जो ज्योतिर्मय और कल्याणकारी है। और बादल के छिन्न-भिन्न हो जाने पर जैसे सूर्य चमकता है, वैसे ही आत्मा स्वयं प्रकाशित होती है।]
[**‘ऊठत बैठत कबहुँ न छूटै ऐसी ताड़ी लागी ।’ -कबीर साहब
‘सोवत जागत ऊठत बैठत, टुक विहीन नहिं तारा ।
झिन झिन जन्तर निस दिन बाजै, जम जालिम पचिहारा ।।’
-संत दरिया साहब (बिहारवाले)]
परिचय
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