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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[60. पाँचो नौबत बाजती]


।। मूल पद्य, साखी ।।

पाँचो नौबत बाजती, होत छतीसो राग ।
सो मन्दिर खाली पड़ा, बैठन लागे काग ।।
जाकी जिभ्या बन्ध नहीं, हिरदे नाहीं साँच ।
ताके संग न लागिये, घालै बटिया काँच ।।
अगवानी तो आइया, ज्ञान विचार विवेक ।
पीछे गुरु भी आयँगे, सारे साज समेत ।।
जब दिल मिला दयाल से, तब कछु अन्तर नाहिं ।
पाला गलि पानी मिला, यों हरिजन हरि माहिं ।।
कबीर भेदी भक्त से, मेरा मन पतियाय ।
सेरी पावै शब्द की, निर्भय आवै जाय ।।
बूँद समानी समुँद में, यह जानै सब कोय ।
समुँद समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ।।
निरबन्धन बंधा रहै, बंधा निरबन्ध होय ।
करम करै करता नहीं, दास कहावै सोय ।।
जहँ आपा तहँ आपदा, जहाँ संसय तहँ सोग ।
कह कबीर कैसे मिटै, चारो दीरघ रोग ।।


।। मूल पद्य, साखी ।।

पाँचो नौबत बाजती, होत छतीसो राग ।
सो मन्दिर खाली पड़ा, बैठन लागे काग ।।
जाकी जिभ्या बन्ध नहीं, हिरदे नाहीं साँच ।
ताके संग न लागिये, घालै बटिया काँच ।।
अगवानी तो आइया, ज्ञान विचार विवेक ।
पीछे गुरु भी आयँगे, सारे साज समेत ।।
जब दिल मिला दयाल से, तब कछु अन्तर नाहिं ।
पाला गलि पानी मिला, यों हरिजन हरि माहिं ।।
कबीर भेदी भक्त से, मेरा मन पतियाय ।
सेरी पावै शब्द की, निर्भय आवै जाय ।।
बूँद समानी समुँद में, यह जानै सब कोय ।
समुँद समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ।।
निरबन्धन बंधा रहै, बंधा निरबन्ध होय ।
करम करै करता नहीं, दास कहावै सोय ।।
जहँ आपा तहँ आपदा, जहाँ संसय तहँ सोग ।
कह कबीर कैसे मिटै, चारो दीरघ रोग ।।

शब्दार्थ-छतीसो राग=गाने के छत्तीस प्रकार के लय वा स्वर, इसमें छह राग और तीस रागिनियाँ कही जाती हैं। गान-विद्या में इतने ही प्रकार के लय वा स्वर हैं, ऐसा लोग कहते हैं। यहाँ के ‘छतीसो राग’ से तात्पर्य है-सब प्रकार के स्वर। गुरु=ज्ञानदाता; आदि-ज्ञानदाता परमात्मा है, इसीलिए उसके अनेक नामों में से यह भी एक विशेष नाम है। साज=सामग्री। सेरी=सीढ़ी। आपा=अहंकार। आपदा=दुःख, विपत्ति। दीरघ=दीर्घ, बड़ा।

पद्यार्थ-जिस शरीर-रूपी मन्दिर में पाँचो नौबतें बजती हैं और सब प्रकार की राग-रागिनियों के स्वर ध्वनित होते रहते हैं, वह मन्दिर खाली हो गया और उसपर काग बैठने लग गया। जिसकी जिह्वा में बन्धन नहीं है और हृदय में सचाई नहीं है, उसके संग में नहीं लगना चाहिए; क्योंकि वह कुमार्ग में डाल देगा।। पहले ज्ञान, विवेक और विचार आया करते हैं, पीछे मोक्ष-संबंधी सब सामग्रियों के सहित परमात्मा गुरु भी आएँगे।। जब जीव दयालु परमात्मा से मिलता है, तब जीव को परमात्मा से कुछ भेद नहीं रहता है। जिस तरह पाला गलकर पानी में मिल जाता है, इसी तरह हरिभक्त हरि में मिल जाता है।। कबीर साहब कहते हैं कि भेदी भक्त से मेरे मन को विश्वास होता है, जो शब्द की सीढ़ी पाते हैं, जिसके द्वारा (जीवन-काल में) परम प्रभु तक जाते और आते रहते हैं।। पिण्ड-रूपी बूँद ब्रह्माण्ड-रूपी समुद्र में समायी हुई है, यह सब कोई जानते हैं; परन्तु ब्रह्माण्ड-रूपी समुद्र पिण्ड-रूपी बूँद में समाया हुआ है, यह बिरला ही कोई बूझता है।। जो पापों के त्याग का तथा सत्संग-भजन का बंधन नहीं रखता है, वह संसार में बँधा रहता है और जो कथित बंधनों में बँधा रहता है, वह संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है। जो कर्त्तव्य कर्म करता हुआ अपने को कर्म करने का अहंकारी नहीं मानता है, वही भक्त कहलाता है।। जहाँ अहंकार है, वहाँ विपत्ति भी है। जहाँ संशय है, वहाँ शोक है। कबीर साहब कहते हैं कि ये चारो (अहंकार, विपत्ति, संशय और शोक) बड़े-बड़े रोग कैसे मिटेंगे?  

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