।। मूल पद्य, साखी ।।
गागर ऊपर गागरी, चोले ऊपर द्वार ।
सूली ऊपर साँथरा, जहाँ बुलावै यार ।।
बास सुरति ले आवई, सब्द सुरति लै जाय ।
परिचय स्त्रुति है इस्थिरे, सो गुरु दई बताय ।।
हम चाले अमरापुरी, टारे टूरे टाट ।
आवन होय तो आइयो, सूली ऊपर बाट ।।
कबीर का घर सिखर पर, जहाँ सिलहिली गैल ।
पाँव न टिकै पपीलिका, पण्डित लादै बैल ।।
जहाँ न चींटी चढ़ि सकै, राई ना ठहराय ।
मनुवाँ तहँ ले राखिये, तहँ हीं पहुँचे जाय ।।
कबीर काया समुँद है, अन्त न पावै कोय ।
मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।
मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक ।
मूठी लाया ज्ञान की, जामें वस्तु अनेक ।।
डुबकी मारी समुँद में, निकसा जाय अकास ।
गगन मंडल में घर किया, हीरा पाया दास ।।
मैं मरजीवा समुँद का, पैठा सप्त पताल ।
लाज कानि कुल मेटि के, गहि ले निकसा लाल ।।
ऊँचा तरवर गगन फल, बिरला पंछी खाय ।
इस फल को तो सो चखै, जो जीवत ही मरि जाय ।।
मरते-मरते जग मुआ, औसर मुआ न कोय ।
दास कबीरा यों मुआ, बहुरि न मरना होय ।।
।। मूल पद्य, साखी ।।
गागर ऊपर गागरी, चोले ऊपर द्वार ।
सूली ऊपर साँथरा, जहाँ बुलावै यार ।।
बास सुरति ले आवई, सब्द सुरति लै जाय ।
परिचय स्त्रुति है इस्थिरे, सो गुरु दई बताय ।।
हम चाले अमरापुरी, टारे टूरे टाट ।
आवन होय तो आइयो, सूली ऊपर बाट ।।
कबीर का घर सिखर पर, जहाँ सिलहिली गैल ।
पाँव न टिकै पपीलिका, पण्डित लादै बैल ।।
जहाँ न चींटी चढ़ि सकै, राई ना ठहराय ।
मनुवाँ तहँ ले राखिये, तहँ हीं पहुँचे जाय ।।
कबीर काया समुँद है, अन्त न पावै कोय ।
मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।
मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक ।
मूठी लाया ज्ञान की, जामें वस्तु अनेक ।।
डुबकी मारी समुँद में, निकसा जाय अकास ।
गगन मंडल में घर किया, हीरा पाया दास ।।
मैं मरजीवा समुँद का, पैठा सप्त पताल ।
लाज कानि कुल मेटि के, गहि ले निकसा लाल ।।
ऊँचा तरवर गगन फल, बिरला पंछी खाय ।
इस फल को तो सो चखै, जो जीवत ही मरि जाय ।।
मरते-मरते जग मुआ, औसर मुआ न कोय ।
दास कबीरा यों मुआ, बहुरि न मरना होय ।।
शब्दार्थ-गागर=घैला, घड़ा, शरीर। गागर ऊपर गागरी=शरीर के ऊपर शरीर (कैवल्य-जड़-विहीन चेतनमय के ऊपर महाकारण, महाकारण के ऊपर कारण, कारण के ऊपर सूक्ष्म तथा सूक्ष्म के ऊपर स्थूल)। चोले ऊपर द्वार=शिवनेत्र, सुषुम्न-विन्दु, दशम द्वार। सूली=लोहे की एक नोकदार छड़, जिसपर प्राण-दण्ड देनेयोग्य दण्डित अभियुक्त को इस तरह बैठाया जाता था कि वह छड़ गुदा-मार्ग से प्रवेश करती हुई उसके मस्तक होकर बाहर निकल जाती थी। यहाँ पर इस शब्द का प्रयोग आदिनाद (प्रणवध्वनि, सारशब्द) के लिए किया गया है; क्योंकि यह नाद पिण्ड के सब चक्रों तथा ब्रह्माण्ड के सब कमलों का भेदन करते हुए एक धाररूप से वर्त्तमान है1। साँथरा=बिछावन। यार=मित्र (परमात्मा)। बास=वासना, इच्छा। टाट=सन या पटुए की बनी हुई चट्टी, जिससे बोरा या थैला बनता है। यहाँ पर चैतन्य आत्मा के ऊपर के शरीर-रूपी जड़-आवरण के लिए ‘टाट’ का प्रयोग है। सिलहिली= पिच्छड़। गैल=संकीर्ण मार्ग, गली। पण्डित लादै बैल=पढ़े-लिखे व्यक्ति, जो अपने मन पर बहुत वक्तव्य धरे रहते हैं, ध्यान-अभ्यासकाल में भी उनका मन उन वक्तव्यों को नहीं छोड़ता। समुँद=समुद्र। मिरतक= मृतक, इन्द्रियों से चेतन-धार को समेटकर रहनेवाला। मानिक=लाल रंग का एक मणि, पप्रराग। मरजीवा=समुद्र में डूबकर उसके भीतर से मोती आदि निकालनेवाला, पानी में डूबकर विशेष काल तक रहनेवाला। सप्त पताल=पृथ्वी के नीचे के सात लोक। यहाँ पर इन सात लोकों से तात्पर्य नहीं है; बल्कि काया-रूपी समुद्र के अन्दर के सात तलों से तात्पर्य है, जिनके नाम ये हैं-सहस्त्रदल कमल, त्रिकुटी, शून्य, महाशून्य, भँवरगुफा, सत्लोक और अनाम वा शब्दातीत पद। कानि=लोक-लज्जा, मर्यादा का ध्यान।
पद्यार्थ-शरीर के ऊपर शरीर है2। चोले-शरीर के ऊपर (शिवनेत्र) द्वार है तथा शूली2 के ऊपर बिछावन है, जहाँ मित्र3 पुकार रहा है।। सुरति-जीवात्मा को इच्छा संसार में ले आती है और शब्द उसको परम प्रभु परमात्मा के पास ले जाता है। और उस प्रभु की पहचान हो जाने पर जीवात्मा स्थिर हो जाता है-आवागमन से मुक्त हो जाता है, सो गुरु ने बतला दिया है।। मायिक आवरणों को हटाते हुए हम अमरपुर-मोक्षधाम को चले। तुमको भी आना हो, तो आइये, शूली के ऊपर रास्ता है।। कबीर का घर चोटी पर है-परमात्म-पद में है, जहाँ जाने की गली-सूक्ष्म मार्ग पिच्छड़ है। उसपर चींटी के पैर नहीं ठहर सकते हैं और जो विद्वान अपने मन-रूपी बैल पर ध्यानाभ्यास-काल में वक्तव्यों का भार लादे रहते हैं, वे उस मार्ग पर नहीं जाते हैं।। जहाँ चींटी नहीं चढ़ सकती है और राई का दाना भी नहीं ठहर सकता है, जो मन को वहाँ रखता है, वह वहीं (मोक्ष-धाम में) जाकर पहुँचता है।। कबीर साहब कहते हैं कि यह शरीर समुद्र है। इसका अन्त कोई नहीं पाता है। मृतक2 होकर इसमें जो रहता है, वह लाल मणि को पाता है।। मैं समुद्र में डुबकी लगानेवाला हूँ। मैंने एक डुबकी लगायी, मैं ज्ञान की मुट्ठी लाया हूँ, जिसमें अनेक वस्तुएँ हैं।। जिसने समुद्र में डुबकी मारी, आकाश में जाकर जो निकल गया और गगन-मण्डल में घर किया, उस दास ने हीरा प्राप्त किया।। मैं काया-समुद्र में डूबनेवाला हूँ, मैं कुल-मर्यादा और लाज को मेटकर सातो पातालों 4 में पैठ गया हूँ और लाल को ग्रहण कर निकला हूँ।। (ब्रह्माण्ड) ऊँचा श्रेष्ठ वृक्ष है, गगन उसका फल है, बिरला पक्षी इस फल को खाता है। इस फल को वही चखता है, जो जीते-जी मर जाता है।। मरते-मरते संसार के लोग मर गये, कोई अवसर पर नहीं मरा। कबीर साहब कहते हैं कि भक्त इस तरह मरा कि फिर उसको मरना नहीं होता।।
टिप्पणी-काया-समुद्र में डुबकी मारकर आकाश में निकल जाने की प्रत्यक्षता दृष्टियोग के साधक को होती है। ऊँचे तरुवर के गगन-फल को खाकर चखनेवाला भी दृष्टियोग-साधक-विहंगममार्गी, इन्द्रियों के घाटों से चेतन-धारों को समेटनेवाला जीते-जी मरनेवाला अभ्यासी भक्त ही होता है। इन बातों को कहकर ठीक-ठीक समझाया नहीं जा सकता।
[1- इन चक्रों और कमलों को ‘सत्संग-योग’ के दूसरे और चौथे भाग के नक्शों में पढ़कर जानिये।]
[2- ब्योरा शब्दार्थ में दखिये।]
[3- सख्य भाव की भक्ति में परम प्रभु को सखा, मित्र, यार कहा गया है। प्रणवध्वनि या सारशब्द ही उसकी पुकार है।]
[4- का ब्योरा शब्दार्थ में देखिये। ]
परिचय
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