।। मूल पद्य, साखी ।।
नाम जपत इस्थिर भया, ज्ञान कथत भया लीन ।
सुरति शब्द एकै भया, जल ही ह्वैगा मीन ।।
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।
बाँका परदा खोलि के, सन्मुख ले दीदार ।
बाल सनेही साइयाँ, आदि अन्त का यार ।।
गगन मण्डल के बीच में, तहँवाँ झलकै नूर ।
निगुरा महल न पावई, पहँुचेगा गुरु पूर ।।
नैनों की करि कोठरी, पुतली पलँग बिछाय ।
पलकों की चिक डारि के, पिय को लिया रिझाय ।।
कबीर कमल प्रकासिया, ऊगा निर्मल सूर ।
रैन अँधेरी मिटि गई, बाजै अनहद तूर ।।
पंज असमाना जब लिया, तब रन धसिया सूर ।
दिल सौंपा सिर ऊबरा, मुजरा धनी हजूर ।।
धुजा फरक्कै सुन्न में, बाजै अनहद तूर ।
तकिया है मैदान में, पहुँचेगा कोइ सूर ।।
।। मूल पद्य, साखी ।।
नाम जपत इस्थिर भया, ज्ञान कथत भया लीन ।
सुरति शब्द एकै भया, जल ही ह्वैगा मीन ।।
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ।।
बाँका परदा खोलि के, सन्मुख ले दीदार ।
बाल सनेही साइयाँ, आदि अन्त का यार ।।
गगन मण्डल के बीच में, तहँवाँ झलकै नूर ।
निगुरा महल न पावई, पहँुचेगा गुरु पूर ।।
नैनों की करि कोठरी, पुतली पलँग बिछाय ।
पलकों की चिक डारि के, पिय को लिया रिझाय ।।
कबीर कमल प्रकासिया, ऊगा निर्मल सूर ।
रैन अँधेरी मिटि गई, बाजै अनहद तूर ।।
पंज असमाना जब लिया, तब रन धसिया सूर ।
दिल सौंपा सिर ऊबरा, मुजरा धनी हजूर ।।
धुजा फरक्कै सुन्न में, बाजै अनहद तूर ।
तकिया है मैदान में, पहुँचेगा कोइ सूर ।।
शब्दार्थ-मूल=जड़, आदि, आरम्भ, नींव, प्रधान। मूल ध्यान= ध्यान का आरम्भ। सत्य=साँच। सत=स्थायी। भाव=प्रेम। बाँका=टेढ़ा, कठिन। दीदार=दर्शन। नूर=प्रकाश, ज्योति। गुरु पूर=गुरु का पूरा शिष्य, गुरु-ज्ञान के अनुकूल पूर्ण रूप से चलनेवाला शिष्य। कमल प्रकासिया= मण्डल खुल गया। सूर=सूर्य। रैन=रात। तूर=तुरही। पंज=पाँच। पंज असमाना=पाँच आकाश [स्थूलाकाश, सूक्ष्माकाश, कारणाकाश, महाकारणाकाश और कैवल्याकाश अथवा मण्डलब्राह्मणोपनिषद् के अनुकूल-(1) आकाश=जो बाहर और अन्दर अन्धकारमय हो। (2) पराकाश=जो बाहर और अन्दर कालाग्नि के समान हो। (3) महाकाश=जो बाहर और अन्दर अपरिमित तेज के समान तत्त्व हो। (4) सूर्याकाश= जो अन्दर और बाहर सूर्य के समान चमकवाला हो और (5) परमाकाश=जो सर्वव्यापक सर्वोत्तम आनन्द-ज्योति अकथनीय हो] रन=लड़ाई। सूर=बहादुर लड़ाका। सिर ऊबरा=मस्तक अर्थात् प्रतिष्ठा का उद्धार हुआ। मुजरा=प्रणाम, अभिवादन। धनी=प्रभु, परम प्रभु परमेश्वर। हजूर=सम्मुख। धुजा (ध्वजा)=पताका, चिह्न। फरक्कै=फहरै, चिह्नित होवै। तकिया=सहारा, अवलम्ब।
पद्यार्थ-(वर्णात्मक) नाम के जपते-जपते स्थिर हुआ, ज्ञान कथन करते-करते (सारतत्त्व के विचार में) डूब गया और सुरत-शब्द का अभ्यास (ध्वन्यात्मक नाम-भजन) करते-करते (उस सारतत्त्व अर्थात् सर्वेश्वर में मिलकर) एक ही हो गया, (मानो) मछली पानी ही हो गई।। ध्यान का आरम्भ गुरु-रूप से होता है, पूजा का आरम्भ गुरु-चरण-पूजा से होता है। प्रधान नाम गुरु का वचन है और स्थायी प्रेम सत्य (धर्म) की जड़ है।। (अन्तर-स्थित) कठिन परदे को खोलकर सम्मुख दर्शन प्राप्त करो। प्रभु (सर्वेश्वर) तुम्हारे बालपन से तुमसे स्नेह करनेवाला है। आदि से अन्त तक का तुम्हारा मित्र है।। (अन्तर-स्थित) गगन-मण्डल के बीच में प्रकाश झलकता है। इस महल को निगुरा नहीं पाता है, गुरु का पूरा शिष्य पहुँचेगा।। आँखों की कोठरी बना, पुतली का पलँग बिछा और पलकों का परदा गिराकर स्वामी (सर्वेश्वर) को रिझा लिया*।। कबीर साहब कहते हैं-(अन्तर का) मंडल खुल गया, पवित्र सूर्य उग गया, अँधेरी रात मिट गई और अनहद ध्वनि की तुरही बज रही है।। पाँच आकाशों को जब जिस योद्धा ने जीत लिया, तब वह (आत्मोन्नति) के संग्राम में प्रवेश कर गया। उसने अपना मन (प्रभु को) सौंप दिया। उसकी आत्मप्रतिष्ठा ** का उद्धार हुआ और उसने (परम प्रभु) पूर्ण धनी के सामने प्रणाम किया।। अभ्यासी को शून्य में चिह्न चिह्नित होता है, अनहद की तुरही बजती है, (उस शून्य के) मैदान में उसको सहारा मिलता है। (अभ्यास में डटा रहनेवाला) कोई शूरमा वहाँ पहुँचेगा।।
[* यह दृष्टियोग-सम्बन्धी संकेत है।
]
[** परमाकाश वा कैवल्याकाश के अतिरिक्त अन्य चारो आकाशों में रहनेवाले का शिर (आत्म-प्रतिष्ठा) माया से ग्रसित रहता है। लिखित पाँचवें आकाश में प्रवेश करने पर उसका उद्धार होता है। ]
परिचय
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