।। मूल पद्य ।।
बाबा अगम अगोचर कैसा, तातें कहि समझाओ ऐसा ।।
जो दीसै सो तो है नाहीं, है सो कहा न जाई ।
सैना बैना कहि समझाओं, गूँगे का गुर भाई ।।
दृष्टि न दीसै मुष्टि न आवै, बिनसे नाहिं नियारा ।
ऐसा ज्ञान कथा गुरु मेरे, पण्डित करौ विचारा ।।
बिन देखे परतीत न आवै, कहै न कोउ पतियाना ।
समझा होय सो सब्दै चीन्है, अचरज होय अयाना ।।
कोई ध्यावै निराकार को, कोई ध्यावै साकारा ।
वह तो इन दोऊ तें न्यारा, जानै जाननहारा ।।
काजी कथै कतेब कुराना, पंडित वेद पुराना ।
वह अच्छर तो लखा न जाई, मात्र लगै न कानाऽ ।।
नादी वादी पढ़ना गुनना, बहु चतुराई भीना ।
कहै कबीर सो पड़ै न परलय, नाम भक्ति जिन चीना ।।
पद्यार्थ-लोग पूछते हैं कि हे बाबा! अगम-अगोचर कैसा है? इसलिए मैं ऐसा कहकर समझाता हूँ।। जो देखने में आता है, सो तो वह नहीं है और जो वह है, सो कहा नहीं जाता है। गूँगे का गुरुभाई बनकर सैन के बैन में कहकर समझाता हूँ।। वह दृष्टि से नहीं दिखता है, मुट्ठी में नहीं आता है और नष्ट नहीं होता है, न्यारा ही है। मेरे गुरु ने ऐसा ज्ञान कहा है, हे पण्डित! विचार करो।। बिना देखे विश्वास नहीं आता है और कहने से कोई नहीं पतियाता है। जिसने समझा हो, सो शब्द को चीन्हता है और अनजान को आश्चर्य होता है।। कोई निराकार का ध्यान करता है और कोई साकार का ध्यान करता है। (परन्तु) वह तो इन दोनों से अलग है। जाननेवाला जानता है।। काजी कुरान-किताब का कथन करते हैं और पण्डित वेद-पुराण का कथन करते हैं; परन्तु जिसमें मात्र और कान नहीं लगते अर्थात् जिसमें न मात्र लगती है और जो न कान से सुना जाता है, वह अक्षर लखा नहीं जाता है।। नाद-ज्ञानवाले (राग-रागिनी के स्वर के ज्ञानवाले-गान-विद्या के जाननेवाले) और वाद-विवाद करनेवाले पढ़ने-विचारने में लगे हुए बहुत चतुराई में भींगे हुए रहते हैं। कबीर साहब कहते हैं कि वे नाश में नहीं पड़ते हैं, जो नाम-भक्ति को पहचानते हैं।।
।। मूल पद्य ।।
बाबा अगम अगोचर कैसा, तातें कहि समझाओ ऐसा ।।
जो दीसै सो तो है नाहीं, है सो कहा न जाई ।
सैना बैना कहि समझाओं, गूँगे का गुर भाई ।।
दृष्टि न दीसै मुष्टि न आवै, बिनसे नाहिं नियारा ।
ऐसा ज्ञान कथा गुरु मेरे, पण्डित करौ विचारा ।।
बिन देखे परतीत न आवै, कहै न कोउ पतियाना ।
समझा होय सो सब्दै चीन्है, अचरज होय अयाना ।।
कोई ध्यावै निराकार को, कोई ध्यावै साकारा ।
वह तो इन दोऊ तें न्यारा, जानै जाननहारा ।।
काजी कथै कतेब कुराना, पंडित वेद पुराना ।
वह अच्छर तो लखा न जाई, मात्रा लगै न काना* ।।
नादी वादी पढ़ना गुनना, बहु चतुराई भीना ।
कहै कबीर सो पड़ै न परलय, नाम भक्ति जिन चीना ।।
पद्यार्थ-लोग पूछते हैं कि हे बाबा! अगम-अगोचर कैसा है? इसलिए मैं ऐसा कहकर समझाता हूँ।। जो देखने में आता है, सो तो वह नहीं है और जो वह है, सो कहा नहीं जाता है। गूँगे का गुरुभाई बनकर सैन के बैन में कहकर समझाता हूँ।। वह दृष्टि से नहीं दिखता है, मुट्ठी में नहीं आता है और नष्ट नहीं होता है, न्यारा ही है। मेरे गुरु ने ऐसा ज्ञान कहा है, हे पण्डित! विचार करो।। बिना देखे विश्वास नहीं आता है और कहने से कोई नहीं पतियाता है। जिसने समझा हो, सो शब्द को चीन्हता है और अनजान को आश्चर्य होता है।। कोई निराकार का ध्यान करता है और कोई साकार का ध्यान करता है। (परन्तु) वह तो इन दोनों से अलग है। जाननेवाला जानता है।। काजी कुरान-किताब का कथन करते हैं और पण्डित वेद-पुराण का कथन करते हैं; परन्तु जिसमें मात्र और कान नहीं लगते अर्थात् जिसमें न मात्र लगती है और जो न कान से सुना जाता है, वह अक्षर लखा नहीं जाता है।। नाद-ज्ञानवाले (राग-रागिनी के स्वर के ज्ञानवाले-गान-विद्या के जाननेवाले) और वाद-विवाद करनेवाले पढ़ने-विचारने में लगे हुए बहुत चतुराई में भींगे हुए रहते हैं। कबीर साहब कहते हैं कि वे नाश में नहीं पड़ते हैं, जो नाम-भक्ति को पहचानते हैं।।
[* आकार की मात्र को भी ‘काना’ कहते हैं। इस स्थान पर ‘काना’- श्रवणेन्द्रिय भी हो सकता है।]
परिचय
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