।। मूल पद्य ।।
लोका मति का भोरा रे ।
जौं काशी तन तजे कबीरा, रामहिं कौन निहोरा रे ।।
तब हम ऐसे अब हम ऐसे, यही जनम का लाहा ।
जौं जल में जल पैस न निकसे, यौं ढुरि मिला जुलाहा ।।
राम भगति में जाको हित चित, वाको अचरज काहा ।
गुरु प्रसाद साधु की संगति, जग जीते जात जुलाहा ।।
कहै कबीर सुनो हो संतो, भरम पड़ो जनि कोई ।
जस कासी तस मगहा ऊसर, हृदय राम जौं होई ।।
।। मूल पद्य ।।
लोका मति का भोरा रे ।
जौं काशी तन तजे कबीरा, रामहिं कौन निहोरा रे ।।
तब हम ऐसे अब हम ऐसे, यही जनम का लाहा ।
जौं जल में जल पैस न निकसे, यौं ढुरि मिला जुलाहा ।।
राम भगति में जाको हित चित, वाको अचरज काहा ।
गुरु प्रसाद साधु की संगति, जग जीते जात जुलाहा ।।
कहै कबीर सुनो हो संतो, भरम पड़ो जनि कोई ।
जस कासी तस मगहा ऊसर, हृदय राम जौं होई ।।
शब्दार्थ-मति=बुद्धि। भोरा=भोला, सीधा। निहोरा=प्रार्थना, विनय। लाहा=लाभ। पैस=प्रवेश। ढुरि=ढरककर। हित=अनुराग, प्रेम।
पद्यार्थ-अरे सीधी बुद्धि का मनुष्य! यदि काशी में कबीर शरीर छोड़े अर्थात् काशी की लोकोक्ति-महिमा के भरोसे कबीर काशी में शरीर छोड़े, तो राम से विनय करने का (राम-भजन करने का) कौन-सा फल? तब अर्थात् शरीर-धारण से पूर्व मैं ऐसा था और अब अर्थात् शरीर-धारण करके ऐसा हूँ अर्थात् शरीर-धारण के पूर्व मैं विकार-रहित था और अब शरीर-धारण करने पर भी विकार से रहित हूँ-यही मनुष्य-जन्म का लाभ है। जिस तरह जल में जल प्रविष्ट होकर फिर भिन्न होकर नहीं निकलता है, उसी तरह मैं (जुलाहा) शरीर-रूपी घड़े से ढरककर ईश्वर से जा मिला*। राम-भक्ति में जिसका चित्त प्रेम से लगा है, उसके लिए यह कौन-सा आश्चर्य है? गुरु की कृपा और साधु के संग से जुलाहा (कबीर) संसार को जीत कर जाता है।। कबीर साहब कहते हैं कि हे सन्तो! भ्रम में मत कोई पड़ो। यदि हृदय में राम हो, तो काशी जैसा है, ऊसर (मगह) भी वैसा ही है।।
[* कबीर साहब की यह वाणी अद्भुत है, समझ में नहीं आती।]
परिचय
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