।। मूल पद्य ।।
रैन दिन संत यों सोवता देखता, संसार की ओर से पीठि दीये ।
मन औ पवन फिर फूटि चालै नहीं, चंद औ सूर को सम्म कीये ।।
टकटकी चंद चक्कोर ज्यों रहतु है, सुरत औ निरत का तार बाजै ।
नौबत घुरत है रैन दिन सुन्न में, कहै कबीर पिउ गगन गाजै ।।
।। मूल पद्य ।।
रैन दिन संत यों सोवता देखता, संसार की ओर से पीठि दीये ।
मन औ पवन फिर फूटि चालै नहीं, चंद औ सूर को सम्म कीये ।।
टकटकी चंद चक्कोर ज्यों रहतु है, सुरत औ निरत का तार बाजै ।
नौबत घुरत है रैन दिन सुन्न में, कहै कबीर पिउ गगन गाजै ।।
शब्दार्थ-सम्म (सम)=बराबर। निरत=अतिशय अनुरक्त, किसी कार्य में लगा हुआ। घुरत=शब्द करता है, बजता है। गाजै=शब्द करता है, गर्जन करता है।
पद्यार्थ-संत दिन-रात इस तरह सोये देखे जाते हैं कि वे संसार की ओर पीठ दिये रहते हैं अर्थात् संसार की सुधि भूले हुए रहते हैं। वे चन्द्र और सूर्य को अर्थात् इड़ा और पिंगला को बराबर रखते हैं अर्थात् उन दोनों की धारों को एक तल के एक विन्दु पर रखते हैं। उनका मन और पवन फूट करके नहीं चलता है।।
चन्द्रमा में चकोर की टकटकी की तरह उनकी टकटकी रहती है, सुरत और अत्यन्त अनुरक्ति का तार उनका बजता रहता है। कबीर साहब कहते हैं कि प्रभु की आकाशी गर्जना की नौबत दिन-रात शून्य में बजती रहती है।। (संत का उपर्युक्त सुरत और निरत का तार इसी शब्द से सदा युक्त रहता है।)
परिचय
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