।। मूल पद्य ।।
जानता कोइ ख्याल ऐसा, जानता कोइ ख्याल ।।टेक।।
धरती बेध पताले गयऊ, शेषनाग को वश करि लिएऊ,
बाँसुरी बाजत सत की ताली, तासों भये सकल विस्तारी,
कमल बीच पट ताल ।।ऐसा0।।1।।
दिन को सोधि रैन मो लाओ, रैन के भीतर भानु चलाओ,
भानु के भीतर ससि के वासा, ससि के भीतर दो परकासा,
बोलत सारंग ताल ।।ऐसा0।।2।।
पूरब सोधि पछिम दिसि लावै, अर्ध उर्ध के भेद बतावै,
सिला नाथि दक्खिन को धाओ, उत्तर दिसा को सुमिरन चाखो,
चारो दिसा का हाल ।।ऐसा0।।3।।
नौ को सोधि सिढ़ी सिढ़ी लाओ, एक बेर सुमेर चढ़ाओ,
मेरुदंड पर आसन मारो, सन्मुख आगे प्रेम दृढ़ाओ,
गगन गुफा का हाल ।।ऐसा0।।4।।
गगन गुफा में अति उजियाला, अजपा जाप जपै बिनु माला,
बीना संख सहनाई बाजै, अलख निरंजन चहुँ दिसि गाजै,
हीरा बरत मोहाल ।।ऐसा0।।5।।
सब्द ही दिल दिल बिच राखै, दया धर्म सन्तोष दृढ़ावै,
कहै कबीर कोइ बिरला पावै, जाको सतगुरु आप लखावै,
चढ़त हमारो लाल ।।ऐसा0।।6।।
।। मूल पद्य ।।
जानता कोइ ख्याल ऐसा, जानता कोइ ख्याल ।।टेक।।
धरती बेध पताले गयऊ, शेषनाग को वश करि लिएऊ,
बाँसुरी बाजत सत की ताली, तासों भये सकल विस्तारी,
कमल बीच पट ताल ।।ऐसा0।।1।।
दिन को सोधि रैन मो लाओ, रैन के भीतर भानु चलाओ,
भानु के भीतर ससि के वासा, ससि के भीतर दो परकासा,
बोलत सारंग ताल ।।ऐसा0।।2।।
पूरब सोधि पछिम दिसि लावै, अर्ध उर्ध के भेद बतावै,
सिला नाथि दक्खिन को धाओ, उत्तर दिसा को सुमिरन चाखो,
चारो दिसा का हाल ।।ऐसा0।।3।।
नौ को सोधि सिढ़ी सिढ़ी लाओ, एक बेर सुमेर चढ़ाओ,
मेरुदंड पर आसन मारो, सन्मुख आगे प्रेम दृढ़ाओ,
गगन गुफा का हाल ।।ऐसा0।।4।।
गगन गुफा में अति उजियाला, अजपा जाप जपै बिनु माला,
बीना संख सहनाई बाजै, अलख निरंजन चहुँ दिसि गाजै,
हीरा बरत मोहाल ।।ऐसा0।।5।।
सब्द ही दिल दिल बिच राखै, दया धर्म सन्तोष दृढ़ावै,
कहै कबीर कोइ बिरला पावै, जाको सतगुरु आप लखावै,
चढ़त हमारो लाल ।।ऐसा0।।6।।
शब्दार्थ-बेध=छेद। धरती बेध पताले गयेऊ=(धरती) बहिरंग- स्थूल पिण्ड को भेदन करके (पाताल) अन्तरंग-सूक्ष्मता में चला गया। शेषनाग=हजार फणोंवाला महाविषधर सर्प, हजारों इच्छा-रूप फणवाला मन। कमल=सहस्त्रदलकमल। ताल=झाँझ, मजीरा आदि की ध्वनि। सोधि=सुधारकर। दिन=पिंगला, सूर्य। रैन=इड़ा, चन्द्र। दिन को सोधि रैन मो लाओ, रैन के भीतर भानु चलाओ=इड़ा-पिंगला का मिलाप करो। भानु के भीतर ससि का वासा=त्रिकुटी में स्थित शीतल किरणोंवाला सूर्य, इन किरणों की शीतलता से सारे मानस रोगों का शमन हो जाता है, इसका वर्णन तुलसीकृत रामायण के उत्तरकाण्ड में ‘राम प्रताप प्रबल दिनेसा’ कहकर है। शिला=पत्थर, जड़ता। नाथि=वश में करके। पूरब=अंधकार। पछिम (पश्चिम)=प्रकाश। दक्खिन (दक्षिण)=शब्द। उतर (उत्तर)=निःशब्द। नौ को सोधि=नव द्वारों (कान के दो छिद्र, आँख के दो छिद्र, नाक के दो छिद्र, मुँह का एक छिद्र तथा मल-मूूत्र त्याग करने के दो छिद्र) में की चेतन-धारों को शुद्ध करके अर्थात् नवो द्वारों से खींचकर उनके केन्द्र (तीसरे तिल) में केन्द्रित करके। सिढ़ी सिढ़ी लाओ=अंधकार से प्रकाश में, प्रकाश से शब्द में तथा शब्द से निःशब्द में। बेर=बार। सुमेरु=केन्द्र, उत्तर ध्रुव। गाजै=गरजना, सिंहनाद करना, हर्षित होना। मोहाल=दुर्लभ। लाल=प्यारा।
पद्यार्थ-ऐसा ख्याल कोई-कोई जानते हैं।। पिण्ड का भेदन करके सूक्ष्म में प्रवेश कर गया और मन को वश में कर लिया। सत् ध्वनि की बाँसुरी (मीठी सुरीली ध्वनि) बजती है। उससे सारा विस्तार अर्थात् सारी सृष्टि हुई है। मण्डल (आज्ञाचक्र) के बीच के तल पर ध्वनि है।। इड़ा और पिंगला का मिलाप करो। त्रिकुटी में विराजित सूर्य के अन्दर चन्द्रमा का निवास है, चन्द्रमा के भीतर दो प्रकाश हैं, सारंगी की ध्वनि होती है।। सुरत को अंधकार से शुद्ध करके प्रकाश में लावे, अर्ध-ऊर्ध्व* का भेद बतलावे। जड़ तत्त्व को वश में करके शब्द में दौड़ जाय और निःशब्द की ओर के भजन-रस को चखे; ये चारो दिशाओं के वृत्तान्त है। नौ द्वारों में की सुरत की नवो धारों को शुद्ध करके अर्थात् नवो द्वारों से छुड़ाकर एक-एक निम्न तल से दूसरे-दूसरे ऊँचे तलों पर ले आओ और एक बार केन्द्र में केन्द्रित करो। मेरुदण्ड को सीधा रखकर आसन जमाकर बैठो और सम्मुख लौ लगाओ, तब गगन-गुफा का हाल व्यक्त-प्रकट होगा।। गगन-गुफा में बहुत प्रकाश है। बिना माला के ही अजपा जप जपो। वीणा, शंख और शहनाई बजती हैं, (जो) अलख निरंजन का चारो ओर सिंहनाद करता है। दुर्लभ हीरा प्रकाश कर रहा है।। अन्तर के शब्द में मन को रखो। दया, धर्म और संतोष को दृढ़ रखो। कबीर साहब कहते हैं कि इस पद को कोई बिरला ही पाता है। जिनको सद्गुरु स्वयं ही दिखला देते हैं, जो इस पद पर चढ़ते हैं, वे हमारे प्यारे हैं।।
टिप्पणी-‘ससि के भीतर दो परकासा’ से तात्पर्य है कि सूर्य-ब्रह्मपद के भीतर में प्रवेश करके आगे बढ़ने पर जिस सुधामय ब्रह्म-रूप के दर्शन अभ्यासी को होता है, उस तेज के कारण कारण-रूप जड़ का और उसमें व्यापक चेतन का प्रत्यक्ष ज्ञान उसको होता है।
[* इसका अर्थ 33 के शब्दार्थ एवं सारांश में देखें।]
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