।। मूल पद्य ।।
विमल विमल अनहद धुनि बाजै, सुनत बने जाको ध्यान लगे ।। टेक।।
सिंगी नाद शंख धुनि बाजै, अबुझा मन जहाँ केलि करे ।
दह की मछली गगन चढ़ि गाजै, बरसत अमिरस ताल भरे ।। 1।।
पछिम दिसा को चलली विरहिन, पाँच रतन लिये थार भरे ।
अष्ट कमल द्वादश के भीतर, सो मिलने की चाह करे ।। 2।।
बारह मास बुन्द जहाँ बरसै, रैन दिवस वहाँ लखि्ा न परे ।
बिरला समुझि परे वहि गलियन, बहुरि न प्रानी देह धरे ।।3।।
काया पैसि करम सब नासै, जरा मरन के संसे गये ।
निरंकार निरगुन अविनासी, तीनि लोक में जोति बरे ।।4।।
कहै कबीर जिनको सतगुरु साहब, जन्म जन्म के कष्ट हरे ।
धन्य भाग्य जिनकी अटल साहिबी, नाम बिना नर भटकि मरे ।।5।।
।। मूल पद्य ।।
विमल विमल अनहद धुनि बाजै, सुनत बने जाको ध्यान लगे ।। टेक।।
सिंगी नाद शंख धुनि बाजै, अबुझा मन जहाँ केलि करे ।
दह की मछली गगन चढ़ि गाजै, बरसत अमिरस ताल भरे ।। 1।।
पछिम दिसा को चलली विरहिन, पाँच रतन लिये थार भरे ।
अष्ट कमल द्वादश के भीतर, सो मिलने की चाह करे ।। 2।।
बारह मास बुन्द जहाँ बरसै, रैन दिवस वहाँ लखि्ा न परे ।
बिरला समुझि परे वहि गलियन, बहुरि न प्रानी देह धरे ।।3।।
काया पैसि करम सब नासै, जरा मरन के संसे गये ।
निरंकार निरगुन अविनासी, तीनि लोक में जोति बरे ।।4।।
कहै कबीर जिनको सतगुरु साहब, जन्म जन्म के कष्ट हरे ।
धन्य भाग्य जिनकी अटल साहिबी, नाम बिना नर भटकि मरे ।।5।।
शब्दार्थ-विमल=निर्मल। अनहद धुनि=गिनती की सीमा से विहीन ध्वनियाँ, असंख्य ध्वनियाँ। केलि=खेल, क्रीड़ा। दह=कुण्ड, स्थूल शरीर का पिण्ड-रूप कुण्ड। दह की मछली=पिण्ड में रहनेवाला जीवात्मा, सुरत। गाजै=हर्षित होता है। ताल=कुण्ड (ज्योति-कुण्ड)। पछिम (पश्चिम) दिशा=ज्योति की ओर। विरहिन=(परम प्रभु परमात्मा के) वियोग से दुःखी होनेवाली। पाँच रतन=(1) असत्य-त्याग (2) चोरी-त्याग (3) व्यभिचार-त्याग (4) हिंसा-त्याग और (5) नशा-त्याग। अष्ट कमल=अष्टदलकमल, वह मण्डल जहाँ से तीन गुणों और पाँच तत्त्वों की आठ वृत्तियाँ स्थूल रूप में प्रकट होती हैं, इसको छठा चक्र और आज्ञाचक्र भी कहते हैं। पैसि=पैठ-प्रवेश करके, विशेष अन्तर्मुख होकर।
पद्यार्थ-घट के अंदर पवित्र-पवित्र असंख्य ध्वनियाँ बजती हैं, जिसका ध्यान लगता है, उसे ये सुनने में आती हैं।। सिंगी नाद और शंख-ध्वनि बजती हैं, जहाँ अबोध मन* खेलता है। पिण्डस्थ सुरत गगन पर चढ़कर हर्षित होती है, जहाँ अमृत-रस से ज्योति-कुण्ड भरा है।। परम प्रभु परमात्मा के वियोग से दुःखी विरहिणी सुरत प्रकाश की ओर हृदय-थाल में पञ्च पाप-त्यागरूप पञ्चरत्नों को भरकर गमन करती है। जो आज्ञाचक्र के द्वादशाङ्गुल ** के अन्दर रहे, वह परम प्रभु परमात्मा से मिलने की इच्छा करता है।। जहाँ बारहो महीने अमृत की बूँदें बरसती हैं, वहाँ दिन-रात का ज्ञान नहीं होता है। (साधन की) उस गली में कोई बिरले ही समझ में आते हैं। कथित गली में रहनेवाला प्राणी फिर देह नहीं धरता है।। शरीर में प्रवेश करके जो कर्मां को नष्ट करता है अर्थात् कर्म-मण्डल को पार कर जाता है, उसके बुढ़ापे और मृत्यु के सब संशय दूर हो जाते हैं। निराकार, निर्गुण और अक्षय प्रभु की ज्योति तीनों लोकों में बल रही है।। कबीर साहब कहते हैं कि जिनको सद्गुरु साहब मिले हैं, उनके जन्म-जन्म के कष्टों को वे हर लेते हैं। इनका धन्य भाग्य है और इनका प्रभुत्व स्थिर है। (परम प्रभु परमात्मा के) नाम के बिना आदमी भटककर मरते हैं।।
[* मन साधारणतया बाह्य विषयों के संग ही क्रीड़ा करता रहता है, यह नहीं बूझता कि बाहरी विषयों में क्रीड़ा करने में जो आनन्द मिलता है, उससे विशेष आनन्द अन्तर्मुख होकर आन्तरिक नादों में क्रीड़ा करने से होगा; इसलिए इसको अबुझा-अबोध मन कहा गया है।]
[** इसका वर्णन और संतों की वाणी में और शाण्डिल्योपनिषद् में भी है। यह ध्यान-साधन के अन्दर की बात है।]
परिचय
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