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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[39. छैल चिकनियाँ अभै घनेरे]


।। मूल पद्य ।।

छैल चिकनियाँ अभै घनेरे, छका फिरै दीवाना ।
छाया माया इस्थिर नाहीं, फिर आखिर पछिताना ।।
छर अच्छर निःअच्छर बूझै, सूझि गुरू परिचावै ।
छर परिहरि अच्छर लौ लावै, तब निःअच्छर पावै ।।
अच्छर गहै विवेक करि, पावै तेहि से भिन्न ।
कहै कबीर निःअच्छरहिं, लहै पारखी चीन्ह ।।


।। मूल पद्य ।।

छैल चिकनियाँ अभै घनेरे, छका फिरै दीवाना ।
छाया माया इस्थिर नाहीं, फिर आखिर पछिताना ।।
छर अच्छर निःअच्छर बूझै, सूझि गुरू परिचावै ।
छर परिहरि अच्छर लौ लावै, तब निःअच्छर पावै ।।
अच्छर गहै विवेक करि, पावै तेहि से भिन्न ।
कहै कबीर निःअच्छरहिं, लहै पारखी चीन्ह ।।

शब्दार्थ-छैल चिकनियाँ=शौकीन, व्यसनी। अभै=अभय, निडर। छका=नशे में चूर हुआ। दीवाना=पागल। छाया-माया=छाया-रूप माया। छर=क्षर, नाशवान। अच्छर=अक्षर, अनाश। निःअच्छर=निःअक्षर, अक्षरातीत, अक्षर से परे, अक्षर पर। सूझि=सूझ। परिचावै=परिचय करावे। परिहरि=छोड़कर। पारखी=परखनेवाला, खरा=खोटा जाँचकर पहचाननेवाला। चीन्ह=चिह्न, पहचान।

पद्यार्थ-बहुत-से शौकीन (व्यसनी) मनुष्य निडर होते हैं, जो पागल या मस्त (की तरह) माया-मद में चूर फिरा करते हैं। छाया-रूपी माया स्थिर नहीं है, अन्त में पछताते हैं।। क्षर (नाशवान तत्त्व), अक्षर (अविनाशी तत्त्व) और अक्षर के (भी) परे या ऊपर पद के तत्त्व को समझे। गुरु (इसकी) सूझ का परिचय कराते हैं। नाशवन्त तत्त्वों को छोड़कर नाश-रहित (अपरिवर्त्तनशील तत्त्व) से लौ लगावे, तब निःअक्षर (निरक्षर) को प्राप्त करेगा।।
सार तथा असार का निर्णय करके नाश-रहित (अपरिवर्त्तनशील पदार्थ) को पकड़े, (तो) उससे पृथक् निःअक्षर को प्राप्त करे। कबीर साहब कहते हैं कि खरा-खोटा जाँचकर पहचान करनेवाला निःअक्षर की पहचान पाता है।
टिप्पणी-श्रीमद्भगवद्गीता में भी क्षर और अक्षर पुरुषों से भिन्न उत्तम पुरुष का वर्णन है-

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वानि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।16।।
उत्तमः पुरुषत्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।।17।।
-अध्याय 15
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक महोदयजी के ‘गीता-रहस्य’ में इन श्लोकों के अर्थ इस प्रकार हैं-

अर्थ-(इस) लोक में क्षर और अक्षर-दो पुरुष हैं। सब (नाशवान) भूतों को क्षर कहते हैं और कूटस्थ को अर्थात् इन सब भूतों के मूल (कूट) में रहनेवाले (परा प्रकृति-रूप अव्यक्त तत्त्व) को अक्षर कहते हैं; परन्तु उत्तम पुरुष (इन दोनों से) भिन्न है। उसको परमात्मा कहते हैं। वही अव्यय ईश्वर त्रैलोक्य में प्रविष्ट होकर (त्रैलोक्य का) पोषण करता है।

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकारं इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।4।।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।।5।।
-श्रीमद्भगवद्गीता, अ0 7

अर्थ-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार-इन आठ प्रकारों में मेरी प्रकृति विभाजित है। यह अपरा प्रकृति अर्थात् निम्न श्रेणी की प्रकृति है। हे महाबाहु अर्जुन! यह जानो कि इससे भिन्न जगत् को धारण करनेवाली परा अर्थात् उच्च श्रेणी की जीव-स्वरूपा मेरी दूसरी प्रकृति है।

‘अनासक्ति-योग’ में महात्मा गाँधी-लिखित टिप्पणी-

‘इन आठ तत्त्वोंवाला स्वरूप क्षेत्र या क्षर पुरुष है। देखो अ0 13, श्लोक 5 और अध्याय 15, श्लोक 16।’

महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ।।5।।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ।।6।।

अर्थ-(पृथ्वी आदि पाँच स्थूल) महाभूत, अहंकार, बुद्धि (महान), अव्यक्त (प्रकृति), दस (सूक्ष्म) इन्द्रियाँ और एक (मन) तथा (पाँच) इन्द्रियों के पाँच (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध-ये सूक्ष्म) विषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतना अर्थात् प्राण आदि का व्यक्त व्यापार और धृति यानी धैर्य; इन (31 तत्त्वों के) समुदाय को सविकार क्षेत्र कहते हैं।

महाभारत, शांति-पर्व, उत्तरार्द्ध, मोक्ष-धर्म, अध्याय 104 में वर्णन है कि परा प्रकृति रूपान्तर-दशा से रहित है।
चेतन कम्पनमय होने के कारण अपने सहचर शब्द के सहित अवश्य है। यह शब्द भी चेतन और अक्षर कहलाता है। यह व्यक्त शब्द के सदृश आकाश का गुण नहीं है। यह चेतन का गुण-रूप है। इसको शब्दब्रह्म, स्फोट, उद्गीथ, ॐ, प्रणव, रामनाम, सत्यनाम, आदिनाम, सत्यशब्द और सारशब्द कहते हैं। यह वचन में आनेयोग्य या कान से सुननेयोग्य शब्द नहीं है। परम ध्यानशील पुरुष को अपने अन्तर में इसकी अनुभूति होती है। जो क्षर-अपरा प्रकृति को पार करके त्याग देता है, उससे ऊपर चढ़ जाता है, वही उपर्युक्त चेतनमय अक्षर शब्द को प्राप्त करके उसमें लौ लगाता है। इसकी विलीनता निःअक्षर पुरुषोत्तम में होती है, जहाँ से यह स्फुटित हुआ है। इसके आकर्षण से साधक उसके उद्गम-स्थान में पहुँचकर निःअक्षर पुरुषोत्तम को प्राप्त करता है।
उपनिषदों में और संतवाणी में इस अक्षर परमानन्द शब्द के बारे में इस प्रकार वर्णन है-
द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत् ।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।।
-ब्रह्मविन्दूपनिषद्
अर्थ-दो विद्याएँ समझनी चाहिए-एक तो शब्दब्रह्म और दूसरी परब्रह्म। शब्द ब्रह्म में जो निपुण हो जाता है, वह परब्रह्म को प्राप्त करता है।
अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते ।
-योगशिखोपनिषद्
अर्थ-अक्षर (अनाश) परम नाद को शब्द-ब्रह्म कहते हैं।
अधोषम् अव्यञ्जनम् अस्वरं च अकण्ठताल्वोष्ठम् अनासिकं च ।
अरेफजातम् उभयोष्ठवर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।।
-अमृतनाद उपनिषद्
‘कल्याण’ के साधनांक, पृष्ठ 600 में श्रीस्वामी भूमानन्दजी महाराज के ॐकार के बारे में निम्नलिखित वाक्यों के सहित उपर्युक्त श्लोक भी है। श्रीस्वामीजी के वाक्य ये हैं-
‘वर्त्तमान युग में प्रणव के स्वरूप को बहुत थोड़े लोग ही जानते हैं। अधिक लोग तो ॐकार के उच्चारण को या मन-ही-मन जप करने को ‘प्रणव-साधन’ समझते हैं; परन्तु उपनिषद् के कथनानुसार ॐकार का उच्चारण नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह स्वर या व्यञ्जन नहीं है और वह कण्ठ, ओष्ठ, नासिका, जीभ, दाँत, तालु और मूर्द्धा आदि के योग से या उनके घात-प्रतिघात से उच्चरित नहीं होता।’
शब्द शब्द सब कोइ कहै, वो तो शब्द विदेह ।
जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह ।।
-कबीर साहब
तुलसी तोल बोल अबोल बानी, बूझि लखि बिरले लई ।।
- संत तुलसी साहब
संत कबीर साहब का आदेश है कि ऊपरकथित शब्दब्रह्मरूप अक्षर को ग्रहण करे।  

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