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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[38. बिनु गुरु ज्ञान नाम नहिं पैहो]


।। मूल पद्य ।।

बिनु गुरु ज्ञान नाम नहिं पैहो, मिरथा जनम गँवाई हो ।। टेक।।
जल भरि कुंभ धरे जल भीतर, बाहर भीतर पानी हो ।
उलटि कुंभ जल जलहि समैहैं, तब का करिहौ ज्ञानी हो ।। 1।।
बिन करताल पखावज बाजै, बिनु रसना गुन गाया हो ।
गावनहार के रूप न रेखा, सतगुरु अलख लखाया हो ।। 2।।
है अथाह थाह सबहिन में, दरिया लहर समानी हो ।
जाल डारि का करिहौ धीमर, मीन के ह्वै गै पानी हो ।। 3।।
पंछीक खोज व मीन कै मारग, ढूँढ़े न कोइ पाया हो ।
कहै कबीर सतगुरु मिल पूरा, भूले को राह बताया हो ।। 4।।


।। मूल पद्य ।।

बिनु गुरु ज्ञान नाम नहिं पैहो, मिरथा जनम गँवाई हो ।। टेक।।
जल भरि कुंभ धरे जल भीतर, बाहर भीतर पानी हो ।
उलटि कुंभ जल जलहि समैहैं, तब का करिहौ ज्ञानी हो ।। 1।।
बिन करताल पखावज बाजै, बिनु रसना गुन गाया हो ।
गावनहार के रूप न रेखा, सतगुरु अलख लखाया हो ।। 2।।
है अथाह थाह सबहिन में, दरिया लहर समानी हो ।
जाल डारि का करिहौ धीमर, मीन के ह्वै गै पानी हो ।। 3।।
पंछीक खोज व मीन कै मारग, ढूँढ़े न कोइ पाया हो ।
कहै कबीर सतगुरु मिल पूरा, भूले को राह बताया हो ।। 4।।

शब्दार्थ-मिरथा=बिरथा, व्यर्थ। कुम्भ=घड़ा, कलश, घैला। रसना=जिह्वा। अथाह=जिसकी थाह वा पता न हो। गूढ़=गुप्त, जिसके जानने में कठिनता हो।

पद्यार्थ-गुरु के ज्ञान के बिना नाम नहीं पाओगे, व्यर्थ ही जन्म गँवाओगे। घड़े को जल से भरकर जल के अन्दर रखे, तो उस घड़े के बाहर और भीतर पानी-ही-पानी है। (और) कुम्भ-जल को उलटने पर जल जल में समा जाएगा, हे ज्ञानी! तब तुम क्या करोगे? बिना करताल और पखावज के (करताल और पखावज का बाजा) बजता है, बिना जिह्वा के गुण गाया जाता है। गानेवाले की रूप-रेखा नहीं है। सद्गुरु ने अलख (परमात्मा) लखाया है। वह परमात्मा गूढ़ (गुप्त) है, उसका पता सबमें है। लहर वा तरंग वा ढेव में समुद्र समाया हुआ है। हे धीवर! जाल डालकर क्या करोगे? मछली पानी हो गई है। पक्षी की खोज और मछली का रास्ता ढूँढ़ने पर (भी) किसी ने नहीं पाया है। कबीर साहब कहते हैं कि पूरे सद्गुरु से मिलकर भूले हुए को रास्ता बतलाया है।

तात्पर्यार्थ-जैसे जल से भरा घड़ा जल में रखा हो, उसी तरह जीव-रूप चेतन आत्मा या सुरत से भरा पिण्ड परमात्मा में रहता है। जैसे कुम्भ-जल के उलटने पर वह जल घड़े-रूप आवरण से छूटकर घड़े के बाहर के जल से मिल जाता है, इसी तरह पिण्ड से आवृत्त चेतन आत्मा या सुरत उलटकर (बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो) पिण्ड से छूटकर परमात्मा से मिल जाएगी। तब ज्ञान-साधन का कर्म करना ज्ञानी को नहीं रहेगा। अन्तर्मुखी चेतन आत्मा को करताल और पखावज बाजे की तरह अनहद नाद की ध्वनियाँ सुनने में आती हैं। यह अन्तर्मुखगामिनी चेतन आत्मा बिना रूप-रेखा और जिह्वा के होकर सद्गुरु का गुण-गान करती है, जिन्होंने उसको अलख लखाया है। परमात्मा इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है, अतएव उसकी थाह-पता इन्द्रियों-द्वारा नहीं लगता है; परन्तु वह अपरम्पार-स्वरूपी और सर्वव्यापी है। इसलिए जैसे समुद्र अपनी लहर में है, उसी तरह अपनी लहर-रूप चेतन आत्मा में वह समाया हुआ है। इसी तरह उसका पता ज्ञान-गम्य रूप से सबके अन्दर है। अन्तर्मुख हुई चेतन आत्मा जब आत्म-ज्ञान-द्वारा परमात्म-स्वरूप को पहचान जाती है, तब उसकी लहर-रूप जीवत्व-दशा छूट जाती है और वह काल-जाल में फँसनेयोग्य नहीं रहती है। कबीर साहब विहंगम और मीनमार्ग से चलने का आदेश देते हैं। जो सद्गुरु से मिलेगा, उसको ऊपरकथित अन्तर्मार्ग मिलेगा और तब वह दूसरे को भी रास्ता बता सकेगा।

टिप्पणी-अनहद ध्वनियाँ विविध प्रकार की होती हैं, केवल करताल और पखावज की तरह नहीं। वहाँ करताल और पखावज सब कहकर अनहद ध्वनियों का संकेत किया गया है। शून्य-ध्यान से पक्षी वा विहंगम की तरह शून्य-पथ पर चला जाता है, इसको विहंगम-मार्ग कहते हैं। इसपर दृष्टियोग-द्वारा यात्र की जाती है। पक्षीवत्् देखना और आकाश में गमन होना, इस यात्र में होता रहता है; इसीलिए यह विहंगम-मार्ग कहलाता है। जैसे मछली भाठे से सिरे की ओर जल की उलटी धारा पर सुगमता से चलती है, इसी तरह शब्द-धारों पर सुरत नीचे से ऊँचे-से-ऊँचे की ओर अर्थात् स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर (शब्द-धार के प्रवाह की ओर से उसके उद्गम की ओर अर्थात् शब्द की उलटी धार पर) सुगमता से चल सकती है। इसलिए नादानुसंधान या सुरत-शब्द-योग को मीन-मार्ग कहते हैं। शून्य-ध्यान और शब्द-ध्यान का वर्णन तो कबीर साहब की तरह अन्य संतों की वाणियों में भी भरा हुआ है। संस्कृत-ग्रंथों में भी इसका कम वर्णन देखने में नहीं आता। प्रमाण के लिए ‘सत्संग-योग’ पढ़कर देखिये।  

परिचय

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