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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[37. जो कोइ निरगुन दरसन पावै ]


।। मूल पद्य ।।

जो कोइ निरगुन दरसन पावै ।। टेक ।।
प्रथमे सुरति जमावै तिल पर, मूल मन्त्र गहि लावै ।
गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै ।।1।।
बिन जिभ्या नामहिं को सुमिरै, अमि रस अजर चुवावै ।
अजपा लागि रहै सूरति पर, नैन न पलक डुलावै ।।2।।
गगन मंदिल में फूल फुलाना, उहाँ भँवर रस पावै ।
इंगला पिंगला सुखमनि सोधै, प्रेम जोति लौ लावै ।।3।।
सुन्न महल में पुरुष विराजै, जहाँ अमर घर छावै ।
कहै कबीर सतगुरु बिनु चीन्हे, कैसे वह घर पावै ।।4।।


।। मूल पद्य ।।

जो कोइ निरगुन दरसन पावै ।। टेक ।।
प्रथमे सुरति जमावै तिल पर, मूल मन्त्र गहि लावै ।
गगन गराजै दामिनि दमकै, अनहद नाद बजावै ।।1।।
बिन जिभ्या नामहिं को सुमिरै, अमि रस अजर चुवावै ।
अजपा लागि रहै सूरति पर, नैन न पलक डुलावै ।।2।।
गगन मंदिल में फूल फुलाना, उहाँ भँवर रस पावै ।
इंगला पिंगला सुखमनि सोधै, प्रेम जोति लौ लावै ।।3।।
सुन्न महल में पुरुष विराजै, जहाँ अमर घर छावै ।
कहै कबीर सतगुरु बिनु चीन्हे, कैसे वह घर पावै ।।4।।

शब्दार्थ-निरगुन=निर्गुण, त्रयगुण (रजोगुण, सत्त्वगुण, तमोगुण) से रहित। जमावै=स्थिर करे। तिल=विन्दु। मूलमंत्र=गुरु से प्राप्त जप का शब्द। मूल मंत्र गहि लावै=गुरु-मंत्र को पकड़कर अर्थात् विधिपूर्वक मंत्र का जप करके सुरत को तिल या विन्दु की ओर लावे। अमि=अमिय, अमृत। अजर=जो सदा एकरस रहे। चुवावै=चुलावे। गराजै=गरजे। गगन गराजै=आसमान गरजता है, जोर की आसमानी ध्वनि होती है, आसमानी ध्वनि की गर्जना होती है। दामिनि=दामिनी, बिजली। दमकै=चमकै। अनहद नाद=ध्यानाभ्यास में विदित होनेवाला अन्तर का शब्द। अजपा= जिसका उच्चारण न किया जा सके, सहज (स्वाभाविक) ध्वनि (‘जाप अजपा हो सहज ध्वनि, परख गुरु-गम धारिये।’-कबीरपंथ का ग्रंथ ‘अनुराग-सागर’), अनहद शब्द। मन्दिल=मंदिर। फूल फुलाना= ज्योति-मंडल का खुलना। भँवर=भौंरा (अभ्यासी)। इंगला=इड़ा। सोधै=सुधारे, संशोधन करे, शुद्ध करे। छावै=डेरा करे।

पद्यार्थ-जो कोई निर्गुण के दर्शन पाना चाहता हो, उसको चाहिए कि पहले वह गुरु-मंत्र का विधिपूर्वक जप करके सुरत को तिल या विन्दु की ओर लावे और तिल पर जमावे। अन्तर में बिजली की चमक देखते हुए अनहद नाद की आकाशी गर्जना को सुने, नाम को अर्थात् गुरु-मंत्र को बिना जिह्वा के सुमरे अर्थात् मानस जप करे और एकरस रहनेवाला अमृत रस (ज्योति और शब्द-रूप चेतन-धार को) चुलावे अर्थात् प्राप्त करे। उसकी सुरत वा चेतन-वृत्ति पर अनहद नाद की ध्वनि लगी रहे और वह अपनी आँखों और पलकों को नहीं डुलावे। अन्तर के आकाश-महल में, जहाँ प्रकाश-मंडल खुलता है, वहाँ भँवर (साधक) आनन्द प्राप्त करता है। इंगला (बायीं वृत्ति) और पिंगला (दायीं वृत्ति) को सुषुम्ना में (मध्यवृत्ति में लाकर) शुद्ध करे, (असम नहीं रहने दे, तब) प्रेम की ज्योति में लौ लगावे। जहाँ (वह निर्गुण) पुरुष शून्य-महल में विराजते हैं, (वहाँ) अमर घर में (अपना) डेरा करे। कबीर साहब का कथन है कि सद्गुरु को चीन्हे बिना उस घर को कैसे पा सकता है? (अर्थात् नहीं पा सकता है।)

टिप्पणी-इस शब्द में परम पुरुष सर्वेश्वर परमात्मा पुरुषोत्तम की प्राप्ति की युक्ति का वर्णन किया गया है। तिल पर सुरत जमाना दृष्टियोग है, जिसको शाम्भवी वा वैष्णवी मुद्रा भी कहते हैं। इसका निरापद वा सुगम साधन अमादृष्टि से वा आँख बन्द करके करना है*। पूरी आँख खोलकर वा आधी आँख बंद कर और आधी आँख खोलकर पूर्णिमा दृष्टि वा प्रतिपदा दृष्टि से करना निरापद और सुगम नहीं है। इस साधन में दृढ़ता प्राप्त किये बिना शब्द-ध्यान भी उत्तम नहीं है। जानकार साधनशील पुरुष से युक्ति जानकर इसका अभ्यास करना चाहिए।  

[* कबीर साहब के पद्य में आँख बन्द करके साधन करने की विधि है। जैसे-‘आँख कान मुख बन्द कराओ, अनहद झिंगा शब्द सुनाओ। दोनों तिल एक तार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है।।’ और ‘बन्द कर दृष्टि को फेरि अन्दर करै, घट का पाट गुरुदेव खोलै।’]

परिचय

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