।। मूल पद्य ।।
सखिया वा घर सबसे न्यारा, जहँ पूरन पुरुष हमारा ।। टेक।।
जहँ नहिं सुख दुख साँच झूठ नहिं, पाप न पुन्न पसारा ।
नहिं दिन रैन चन्द नहीं सूरज, बिना जोति उँजियारा ।। 1।।
नहिं तहँ ज्ञान ध्यान नहिं जप तप, वेद कितेब न बानी ।
करनी धरनी रहनी गहनी, ये सब जहाँ हिरानी ।। 2।।
धर नहिं अधर न बाहर भीतर, पिंड ब्रह्मण्ड कछु नाहीं ।
पाँच तत्त्व गुन तीन नहीं तहँ, साखी शब्द न ताहीं ।। 3।।
मूल न फूल बेलि नहिं बीजा, बिना बृच्छ फल सोहै ।
ओअं सोहं अर्ध उर्ध नहिं, स्वासा लेख न कोहै ।। 4।।
नहिं निर्गुन नहिं सर्गुन भाई, नहीं सूक्ष्म स्थूलं ।
नहिं अच्छर नहिं अविगत भाई, ये सब जग के मूलं ।। 5।।
जहाँ पुरुष तहवाँ कछु नाहीं, कहै कबीर हम जाना ।
हमरी सैन लखै जो कोई, पावै पद निरवाना ।। 6।।
।। मूल पद्य ।।
सखिया वा घर सबसे न्यारा, जहँ पूरन पुरुष हमारा ।। टेक।।
जहँ नहिं सुख दुख साँच झूठ नहिं, पाप न पुन्न पसारा ।
नहिं दिन रैन चन्द नहीं सूरज, बिना जोति उँजियारा ।। 1।।
नहिं तहँ ज्ञान ध्यान नहिं जप तप, वेद कितेब न बानी ।
करनी धरनी रहनी गहनी, ये सब जहाँ हिरानी ।। 2।।
धर नहिं अधर न बाहर भीतर, पिंड ब्रह्मण्ड कछु नाहीं ।
पाँच तत्त्व गुन तीन नहीं तहँ, साखी शब्द न ताहीं ।। 3।।
मूल न फूल बेलि नहिं बीजा, बिना बृच्छ फल सोहै ।
ओअं सोहं अर्ध उर्ध नहिं, स्वासा लेख न कोहै ।। 4।।
नहिं निर्गुन नहिं सर्गुन भाई, नहीं सूक्ष्म स्थूलं ।
नहिं अच्छर नहिं अविगत भाई, ये सब जग के मूलं ।। 5।।
जहाँ पुरुष तहवाँ कछु नाहीं, कहै कबीर हम जाना ।
हमरी सैन लखै जो कोई, पावै पद निरवाना ।। 6।।
शब्दार्थ-साँच=सत्, स्थायी, अपरिवर्त्तनशील पदार्थ, चेतन। झूठ=असत्, अस्थायी, परिवर्त्तनशील पदार्थ, जड़। रैन=रात। करनी=कर्म। धरनी=पकड़, ग्रहण, पकड़ने की क्रिया। रहनी=रहन, रहने की क्रिया, व्यवहार, आचार। हिरानी=मिट गई, दूर हो गई। बानी (वाणी)=शब्द, वचन। धर=पृथ्वी। अधर=अन्तरिक्ष, आकाश। पिण्ड=शरीर, छोटी सृष्टि। ब्रह्मंड=ब्रह्माण्ड, बड़ी सृष्टि। मूल=जड़। बेलि=बेल, लता, लत्तर। बीजा=बीज, बिच्चा। सोहै=शोभायमान। अर्ध=अधः, नीचे। उर्ध=ऊर्ध्व, ऊपर। लेख= लेखा, हिसाब। अच्छर=अक्षर, अनाश, अविनाशी। अविगत=सर्वव्यापी। सैन=इशारा।
टिप्पणी-यह शब्द इतना स्पष्ट है कि इसके शब्दार्थ जानने से ही पद्यार्थ विदित हो जाता है।
तात्पर्यार्थ-इस शब्द में प्रकृति परे और मायातीत परमात्म- स्वरूप, सर्वेश्वर, पुरुषोत्तमपद का वर्णन है, जहाँ सापेक्ष और द्वैती भावों का होना नहीं हो सकता है। वह साँच-सत्-परा प्रकृति रूपान्तर दशा से रहित तत्त्व-चेतन-निर्गुण-अक्षर पुरुष और झूठ-असत्-अपरा प्रकृति-रूपान्तर होनेवाले तत्त्व-अचेतन-जड़-सगुण-क्षर पुरुष से विलक्षण और परे है और वह अविगत अर्थात् सर्व (समस्त प्रकृति- मण्डल)-व्यापी ही नहीं है, इसलिए कि कथित मण्डल हो भरकर ही वह समाप्त नहीं हो जाता है। इस मण्डल के बाहर वह कितना अधिक है - यह अवर्णनीय है; क्योंकि वह स्वरूपतः अनादि-अनन्त है। पूरण पुरुष (पूर्ण पुरुष-सर्वेश्वर परमात्मा पुरुषोत्तम) के स्वरूप का इस प्रकार वर्णन करना कबीर साहब की कोई नवीन उक्ति नहीं है। इसके लिए महाभारत, भीष्म पर्वान्तर्गत श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 13, श्लोक 12; अध्याय 7, श्लोक 4-5; अध्याय 15, श्लोक 16-17; शान्तिपर्व, उत्तरार्द्ध, मोक्षधर्म, अध्याय 104 और श्रीमद्भगवद्गीता-रहस्य (लोकमान्य बालगंगाधर तिलक-लिखित), अध्यात्म-प्रकरण, पृ0 246 आदि का पढ़ना और मनन करना आवश्यक है।
परिचय
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