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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[29. जाके नाम न आवत हिये ]

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।। मूल पद्य ।।
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जाके नाम न आवत हिये ।। टेक।।
कहा भये नर काशी बसे से, का गंगा जल पिये ।।1।।
काह भये नर जटा बढ़ाये, का गुदरी के सिये ।।2।।
का रे भये कंठी के बाँधे, काह तिलक के दिये ।।3।।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, नाहक ऐसे जिये ।।4।।
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।। मूल पद्य ।।
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जाके नाम न आवत हिये ।। टेक।।
कहा भये नर काशी बसे से, का गंगा जल पिये ।।1।।
काह भये नर जटा बढ़ाये, का गुदरी के सिये ।।2।।
का रे भये कंठी के बाँधे, काह तिलक के दिये ।।3।।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, नाहक ऐसे जिये ।।4।।
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पद्यार्थ-जिसके हृदय में नाम नहीं आता है, उस मनुष्य को काशी में बसने से और गंगा-जल पीने से क्या लाभ हुआ? अर्थात् लाभ नहीं हुआ। उस आदमी को जटा बढ़ाने से और गुदड़ी सीने से क्या लाभ हुआ? अर्थात् लाभ नहीं हुआ। उस आदमी को कण्ठी बाँधने और तिलक लगाने से क्या लाभ हुआ? अर्थात् नहीं लाभ हुआ। कबीर साहब कहते हैं कि हे भाई! सुनो, इस तरह का जीना व्यर्थ ही है।
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टिप्पणी-नाम के विषय में कबीर साहब का कथन है-
‘राम राम सब कोइ कहै, नाम न चीन्है कोय ।
नाम चीन्हि सतगुरु मिलै, नाम कहावै सोय ।।
आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह ।।
मुख कर की मेहनत मिटी, सतगुरु करी सहाइ ।
घट में नाम प्रगट भया, बक बक मरै बलाय ।।
सहजे ही धुन होत है, हरदम घट के माहिं ।
सुरत शब्द मेला भया, मुख की हाजत नाहिं ।।’
‘अजर अमर एक नाम है, सुमिरन जो आवे ।
बिन ही मुख के जप करो, नहिं जीभ डुलाओ ।।
उलटि सुरत ऊपर करो, नैनन दरसाओ ।।’
इन सब कथनों के अनुसार हिय में आनेवाला नाम ध्वन्यात्मक अनाहत नाद ज्ञात होता है, जो घट में प्रकट होता है।  
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परिचय

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