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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[27. ससी परकास तें सूर ऊगा सही]

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।। मूल पद्य ।।
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ससी परकास तें सूर ऊगा सही, तूर बाजै तहाँ सन्त भूलै ।
तत्त झनकार तहँ नूर बरसत रहै, रस्स पीवै तहाँ पाँच भूलै ।।1।।
दरियाव औ बुन्द ज्यों देखु अन्तर नहीं, जीव और सीव यों एक आहीं ।
कहै कब्बीर या सैन गूँगा तईं, वेद कितेब की गम्म नाहीं ।।2।।
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।। मूल पद्य ।।
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ससी परकास तें सूर ऊगा सही, तूर बाजै तहाँ सन्त भूलै ।
तत्त झनकार तहँ नूर बरसत रहै, रस्स पीवै तहाँ पाँच भूलै ।।1।।
दरियाव औ बुन्द ज्यों देखु अन्तर नहीं, जीव और सीव यों एक आहीं ।
कहै कब्बीर या सैन गूँगा तईं, वेद कितेब की गम्म नाहीं ।।2।।
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शब्दार्थ-ससी (शशि)=चन्द्रमा। सूर=सूर्य। तूर=तुरही, अनहद ध्वनि। तत्त झनकार=तत्त्व-झनकार। नूर=प्रकाश। रस्स (रस)=स्वाद। पाँच भूले=पंच विषयों के पञ्च भोगों का भूलना। दरियाव=समुद्र। आहीं=है। सैन=इशारा, संकेत। गम्म (गम)=पहुँच, प्रवेश।
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पद्यार्थ-चन्द्र-ज्योति का प्रकाश होने पर ठीक ही सूर्य उगता है, अनहद नाद की तुरही बजती है। (इन अनुभूतियों को प्राप्त करके) वहाँ संत (अहं-बुद्धि और विषय-वासना को) भूल जाते हैं। जहाँ तत्त्व की झनकार होती है, वहाँ प्रकाश की वर्षा होती रहती है। इस रस को पीते ही अर्थात् इस आनन्द को प्राप्त करते ही (स्थूल) पाँच (विषयों) को (अभ्यासी) भूल जाता है। देखो, समुद्र और बूँद (की तत्त्वरूपता) में जैसे भेद नहीं है, इसी तरह जीव (आत्मा) और कल्याणकारी (परमात्मा) एक है। कबीर साहब कहते हैं कि यह संकेत गूँगे-से (गूँगे को) है। वेद और कुरान का प्रवेश या पहुँच (इसमें) नहीं है।
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सारांश-उल्लिखित पद्य में अन्तर-साधन का वर्णन है। अन्तर- साधन में जो-जो अनुभूति होती है, जैसी-की-तैसी सब कथन में नहीं आ सकतीं और न लेखबद्ध ही हो सकती हैं। किसी पुस्तक में इस विषय का जो लेख है, सो संकेत मात्र है। अन्तर की अनुभूतियों में अभ्यासी को जो रस आता है, वह अकथनीय है। कोई भी पुस्तक इसका बोध नहीं करा सकती।
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टिप्पणी-पद्य में वर्णित प्रकाश और अनहद नाद के विषय में कथन उपनिषदों में भी बहुत हैं। इस पुस्तक में कुछ जानकारी के लिए थोड़े-से लिखे भी जा चुके हैं। इसलिए यहाँ और विशेष नहीं लिखे गये। ध्यानाभ्यास में तत्त्वों के अलग-अलग रंग के प्रकाश दर्शित होते हैं। उनके दर्शन-काल में जो अनहद ध्वनि सुनने में आती है, वही तत्त्व की झनकार है। 
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