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।। मूल पद्य ।।
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अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै ।। टेक।।
घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि वन नहिं जावै ।
वन के गये कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै ।। 1।।
घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै ।
सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै ।। 2।।
उनमुनी रहै ब्रह्म को चीन्है, परम तत्त को ध्यावै ।
सुरत निरत सों मेला करिकै, अनहद नाद बजावै ।। 3।।
घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।
कहै कबीर सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावै ।। 4।।
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।। मूल पद्य ।।
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अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै ।। टेक।।
घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि वन नहिं जावै ।
वन के गये कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै ।। 1।।
घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जो गुरु अलख लखावै ।
सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै ।। 2।।
उनमुनी रहै ब्रह्म को चीन्है, परम तत्त को ध्यावै ।
सुरत निरत सों मेला करिकै, अनहद नाद बजावै ।। 3।।
घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।
कहै कबीर सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावै ।। 4।।
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शब्दार्थ-भूले=भटके। जन=भक्त। भावै=पसन्द आता है, सुहाता है, अच्छा लगता है। कलपना=दुःख। समावै=प्रवेश करे, घुसे। उनमुनी= संकल्प-विकल्प-विहीन होकर मन का रहना। परम तत्त (परम तत्त्व)= मूल तत्त्व, जिससे सम्पूर्ण विश्व का विकास है, प्रणव-ध्वनि, सारशब्द। ध्यावै=ध्यान करे। सुरत=संवित्, चेतन-धार। निरत=लीन।
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पद्यार्थ-हे अवधू (अबोध लोग, अज्ञानी लोग)! जो भक्त भटके हुए को घर में ले आता है, वह मुझको सुहाता है। योग-अभ्यास घर में (होता है) और घर ही में भोग मिलता है। घर छोड़कर जंगल में नहीं जाए; क्योंकि यदि जंगल में जाने से दुःख उत्पन्न हो, तब वह कहाँ जाकर प्रवेश करेगा? (तब तो फिर घर ही में जाकर रहना पड़ेगा) यदि गुरु अलख के लखने की युक्ति बतला दें, तो मुक्ति घर ही में है। सरलता से ध्यान लगाकर सहज ही सुन्न में समाकर रहे। मन से संकल्प-विकल्प को त्यागकर रहे, तो ब्रह्म को पहचाने और प्रणव- ध्वनि-सारशब्द का ध्यान करे। लीनता-युक्त सुरत से अनहद नाद को सुने। घर में बसता है, वस्तु भी घर ही में है, घर ही वस्तु (ब्रह्म) से मिलाएगा। कबीर साहब कहते हैं कि ऐ साधु भाई! सुनो, जैसा-का-तैसा घर ही में ठहरे रहो।
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परिचय
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