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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[25. मोरे जियरा बड़ा अन्देसवा]

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।। मूल पद्य ।।
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मोरे जियरा बड़ा अन्देसवा, मुसाफिर जैहो कौनी ओर ।। टेक।।
मोह का शहर कहर नर नारी, दुइ फाटक घनघोर ।
कुमती नायक फाटक रोके, परिहौ कठिन झिंझोर ।। 1।।
संशय नदी अगाड़ी बहती, विषम धार जल जोर ।
क्या मनुवाँ तुम गाफिल सोवौ, इहवाँ मोर न तोर ।।2।।
निसदिन प्रीति करो साहब से, नाहिंन कठिन कठोर ।
काम दिवाना क्रोध है राजा, बसैं पचीसो चोर ।।3।।
सत्त पुरुष इक बसैं पछिम दिसि, तासों करो निहोर ।
आवै दरद राह तोहि लावै, तब पैहो निज ओर ।।4।।
उलटि पाछिलो पैंड़ो पकड़ो, पसरा मना बटोर ।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, तब पैहो निज ठौर ।।5।।
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।। मूल पद्य ।।
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मोरे जियरा बड़ा अन्देसवा, मुसाफिर जैहो कौनी ओर ।। टेक।।
मोह का शहर कहर नर नारी, दुइ फाटक घनघोर ।
कुमती नायक फाटक रोके, परिहौ कठिन झिंझोर ।। 1।।
संशय नदी अगाड़ी बहती, विषम धार जल जोर ।
क्या मनुवाँ तुम गाफिल सोवौ, इहवाँ मोर न तोर ।।2।।
निसदिन प्रीति करो साहब से, नाहिंन कठिन कठोर ।
काम दिवाना क्रोध है राजा, बसैं पचीसो चोर ।।3।।
सत्त पुरुष इक बसैं पछिम दिसि, तासों करो निहोर ।
आवै दरद राह तोहि लावै, तब पैहो निज ओर ।।4।।
उलटि पाछिलो पैंड़ो पकड़ो, पसरा मना बटोर ।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, तब पैहो निज ठौर ।।5।।
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शब्दार्थ-अंदेसवा=चिन्ता। मोह=भ्रम। कहर=विपत्ति, भयंकर। घनघोर=देखने में बहुत भयानक। कुमती (कुमति)=दुर्बुद्धि। नायक=सरदार। झिंझोर (झकझोर)=झटका। संशय=सन्देह। विषम=भीषण, बहुत कठिन। गाफिल=अचेत।
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पद्यार्थ-हे पथिक! मेरे हृदय में बड़ी चिन्ता है कि तुम किस ओर जाओगे? यह संसार भ्रम का भयंकर नगर है। (इसमें आने-जाने के लिए) नर तथा नारी-रूप देखने में बहुत भयंकर दो फाटक हैं और कुबुद्धि-रूप सरदार फाटक पर रोकता है। (निकलने नहीं देता है), कठिन झकझोर में पड़ोगे। आगे संशय-रूपी नदी बहती है, जिसमें (संदेह और तर्क-वितर्क-रूप) जल की धारा जोरों से बह रही है। रे मन! तू क्या अचेत सोता है? यहाँ (इस संसार में) न कुछ तेरा है, न मेरा है। दिन-रात प्रभु परमात्मा से प्रेम करो, नहीं तो कठिन-कठोर काम-मंत्री, क्रोध-राजा और पचीस चोर (इस नगर में) बसते हैं (जो तुझे सताया करते हैं और सताया करेंगे; परन्तु परमात्मा से प्रेम करनेवाले पर इसका जोर नहीं चलता है), (कोई) एक अर्थात् बिरले सत्य पुरुष (साधु-संत), जो पश्चिम (प्रकाश) में रहते हैं, उनसे विनय करो। (उनको तुमपर) दया आएगी, तब तुम अपनी ओर आओगे। (जिस रास्ते से आये हो, उसी) पिछले पथ को उलटकर पकड़ लो, पसरे हुए मन को समेट लो। कबीर साहब कहते हैं कि हे साधु भाई! सुनो, तब अपने स्थान को पाओगे।
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टिप्पणी-एक-एक तत्त्व के पाँच-पाँच स्वभाव हैं; जैसे-

(1) पृथ्वी तत्त्व के-हाड़, नस, चमड़ा, केश और मांस।
(2) जल-तत्त्व के-रक्त, वीर्य, पसीना, लार और मूत्र।
(3) अग्नि-तत्त्व के-भूख, प्यास, आलस्य, नींद और हाँफी (जँभाई)।
(5) वायु-तत्त्व के-चलना, बोलना, बल करना, पसरना एवं सिकुड़ना।
(4) आकाश तत्त्व के-काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार।

ये ही पचीसो चोर हैं। इस शरीर में अंधकार, प्रकाश, शब्द और निःशब्द; इस तरह से ये चार मण्डल हैं। अंधकार को पूर्व, प्रकाश को पश्चिम, शब्द को दक्षिण और निःशब्द को उत्तर, भेदी साधुओं में बोलने का रिवाज है। इस तरह बोलने का रिवाज प्राचीन है; परन्तु बहुत लोग अब इस बात को नहीं जानते हैं। उपर्युक्त रिवाज से कथन करने की प्राचीनता मण्डलब्राह्मणोपनिषद् में कहे गये निम्नलिखित वाक्यों से विदित होती है-

तदभ्यासान्मनः स्थैर्यम्। ततो वायुस्थैर्यम्। तच्चिह्नानि। आदौ तारकवद्दृश्यते। ततो वज्रदर्पणम्। तत उपरिपूर्णचन्द्रमण्डलम्। ततो नवरत्नप्रभामण्डलम्। ततो मध्याह्नार्कमण्डलम्। ततो वह्निशिखामण्डलं क्रमाद्दृश्यते। तदा पश्चिमाभिमुखप्रकाशः स्फटिकधूम्रविन्दुनादकला नक्षत्रखद्योतदीपनेत्रसुवर्णनवरत्नादि प्रभा दृश्यन्ते। तदेव प्रणवस्वरूपम्।

अर्थ-उसके अभ्यास से मन की स्थिरता आती है। इससे वायु स्थिर होता है। उसके ये चिह्न हैं-आरम्भ में तारा-सा दीखता है, तब हीरा के ऐना की तरह दीखता है। उसके बाद पूर्ण चन्द्रमण्डल दिखाई देता है। उसके बाद नौ रत्नों का प्रभामण्डल दिखाई देता है। उसके बाद दोपहर का सूर्यमण्डल दिखाई देता है। उसके बाद अग्नि-शिखामण्डल दिखाई देता है। ये सब क्रम से दिखाई देते हैं, तब पश्चिम की ओर प्रकाश दिखाई देता है। स्फटिक, धूम्र (धुआँ) विन्दु, नाद, कला, तारे, जुगनू, दीपक, नेत्र, सोने और नवरत्न आदि की प्रभा दिखाई देती है। केवल यही प्रणव का स्वरूप है।
उपरिलिखित उपनिषद्-वाक्य में कथित दर्शन शरीर के अन्दर का है, बाहर का नहीं। ध्यानाभ्यास-द्वारा तुरीय अवस्था में रहते हुए ऊपरकथित सब अनुभूतियाँ होती हैं। जाग्रत् अवस्था में जो दिशा का ज्ञान होता है, उससे तुरीय अवस्थावाला दिशा-ज्ञान विलक्षण है। किस महापुरुष की सुरत की स्थिति पश्चिम (प्रकाश) में रहती है, यह जानना कठिन है। परन्तु जिनके सत्संग से इस विषय की बातें ‘विशेष रूप से’ समझ में आवें और उनके चरित में दोष नहीं ज्ञात हो, उनमें इस बात के लिए श्रद्धा की जा सकती है।
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परिचय

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