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।। मूल पद्य ।।
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साधो भाई जीवत ही करो आसा ।। टेक।।
जीवत समुझै जीवत बूझै, जीवत मुक्ति निवासा ।
जियत करम की फाँस न काटी, मुए मुक्ति की आसा ।।1।।
तन छूटे जिव मिलन कहत है, सो सब झूठी आसा ।
अबहुँ मिला सो तबहुँ मिलैगा, नहिं तो जमपुर वासा ।।2।।
दूर दूर ढूँढ़ै मन लोभी, मिटै न गर्भ तरासा ।
साध सन्त की करै न बंदगी, कटै करम की फाँसा ।।3।।
सत्त गहै सतगुरु को चीन्है, सत्तनाम विश्वासा ।
कहै कबीर साधन हितकारी, हम साधन के दासा ।।4।।
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।। मूल पद्य ।।
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साधो भाई जीवत ही करो आसा ।। टेक।।
जीवत समुझै जीवत बूझै, जीवत मुक्ति निवासा ।
जियत करम की फाँस न काटी, मुए मुक्ति की आसा ।।1।।
तन छूटे जिव मिलन कहत है, सो सब झूठी आसा ।
अबहुँ मिला सो तबहुँ मिलैगा, नहिं तो जमपुर वासा ।।2।।
दूर दूर ढूँढ़ै मन लोभी, मिटै न गर्भ तरासा ।
साध सन्त की करै न बंदगी, कटै करम की फाँसा ।।3।।
सत्त गहै सतगुरु को चीन्है, सत्तनाम विश्वासा ।
कहै कबीर साधन हितकारी, हम साधन के दासा ।।4।।
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शब्दार्थ-तरासा=त्रस, डर।
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पद्यार्थ-हे साधु भाई! जीवित काल में ही (मोक्ष-लाभ करने की) आशा करो। जीते-जी समझो, जीते-जी बूझो और जीते-जी मुक्ति में निवास करो। जिसने जीते-जी कर्मों के बंधन को नहीं काट डाला है और वह मरने पर मुक्ति की आशा करता है-शरीर छूट जाने पर जीव जो मुक्ति मिलने को कहता है, सो सब झूठी आशा है। इस समय (जीवन-काल) में जो मिला, सो तब (जीवन-काल के बाद) भी मिलेगा, नहीं तो यमपुर में वास करना होगा। लोभी मन दूर-दूर ढूँढ़ता है, इससे गर्भवास का त्रस नहीं मिटता है। साधु-संत की वन्दना नहीं करता है, जिससे कर्म की फाँस कट जाए। (उसे चाहिए कि वह) सत् को पकड़े, सद्गुरु को पहचाने और सत्नाम का विश्वास करे। कबीर साहब कहते हैं कि साधु भलाई करनेवाले होते हैं, मैं साधुओं का दास हूँ।
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टिप्पणी-जीते-जी मुक्ति मिलनी ठीक है। उपनिषदों में भी यह स्पष्ट रूप से कहा गया है-
पिण्डपातेन या मुक्तिः सा मुक्तिर्न तु मन्यते ।
देहे ब्रह्मत्वमायाते जलानां सैन्धवं यथा ।।
अनन्यतां यदा याति तदा मुक्तः स उच्यते ।
-योगशिखोपनिषद्
अर्थ-मरने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है। मुक्ति वह है, जबकि जीव ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है, जैसे नमक समुद्र में घुलकर एक हो जाता है। इस तरह जीव जब उससे अन्य नहीं रह जाता, तब मुक्ति होती है।
इह चेदशकद्बोद्धुं प्राक्शरीरस्य विस्त्रसः ।
ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ।।4।।
-कठोपनिषद्, अ0 2, व 3
अर्थ-यदि इस देह में इसके पतन से पूर्व ही (ब्रह्म को) जान सका, तो बंधन से मुक्त होता है। यदि नहीं जान पाया, तो इस जन्म-मरणशील लोकों में वह शरीर-भाव को प्राप्त होने में समर्थ होता है।
सहोवाच श्रीरामः। पुरुषस्य कर्तृत्वभोक्तृत्वसुख- दुःखादिलक्षणश्चित्तधर्मः क्लेशरूपत्वाद्बन्धो भवति। तन्निरोधनं जीवन्मुक्तिः। उपाधिविनिर्मुक्तघटाकाशवत्प्रारब्धक्षयाद्विदेहमुक्तिः । जीवन्मुक्तिविदेहमुक्त्योरष्टोत्तरशतोपनिषदः प्रमाणम्। कर्तृत्वादि- दुःखनिवृत्तिद्वारा नित्यानन्दावाप्तिः प्रयोजनं भवति। तत्पुरुषप्रयत्न- साध्यं भवति। यथा पुत्रकामेष्टिना पुत्रं वाणिज्यादिना वित्तं ज्योतिष्टोमेन स्वर्गं तथापुरुषप्रयत्नसाध्य वेदान्तश्रवणादिजनित- समाधिना जीवन्मुक्त्यादि लाभो भवति।। 1।।
-मुक्तिकोपनिषद्, अध्याय 2
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भावार्थ-श्रीराम कहने लगे-‘मैं कर्त्ता, भोक्ता, सुखी तथा दुःखी हूँ इत्यादि वृत्ति ही चित्त का धर्म है। इस तरह की वृत्ति ही पुरुष को क्लेश देनेवाली और बंधन का कारण है। इन वृत्तियों के निरोध को ही जीवन्मुक्ति कहते हैं और जब उपाधिमुक्त घटाकाश की तरह प्रारब्ध कर्म क्षय होकर देह नष्ट हो जाती है, उसी अवस्था को विदेह मुक्ति कहते हैं। जीवन्मुक्ति तथा विदेह मुक्ति के संबंध में 108 उपनिषद् ही प्रमाण हैं। जब कर्तृत्वादि दुःख निवृत्त हो जाता है, तब पुरुष को नित्यानन्द प्राप्त होता है। इसी आनन्द की प्राप्ति के लिए मुक्ति का प्रयोजन है। यह मुक्ति मनुष्य के प्रयत्न से साधित होती है। जैसे पुत्रकामी व्यक्ति पुत्रेष्टि यज्ञ-द्वारा पुत्र, धनार्थी व्यक्ति वाणिज्यादि-द्वारा धन तथा स्वर्गकामी मनुष्य ज्योतिष्टोम यज्ञ-द्वारा स्वर्ग-लाभ करते हैं, वैसे ही पुरुष के प्रयत्न से साधन-द्वारा वेदान्त श्रवणादि-जनित समाधि से जीवन्मुक्त्यादि लाभ होते हैं।’
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परिचय
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