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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[22. बिन सतगुरु नर रहत भुलाना]

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।। मूल पद्य ।।
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बिन सतगुरु नर रहत भुलाना, खोजत फिरत राह नहिं जाना ।। टेक।।
केहर सुत ले आयो गड़रिया, पाल-पोस उन कीन्ह सयाना ।
करत कलोल रहत अजयन संग, आपन मर्म उनहुँ नहिं जाना ।।1।।
केहर इक जंगल से आयो, ताहि देखि बहुतै रिसियाना ।
पकड़ि के भेद तुरत समुझाया, आपन दसा देखि मुसक्याना ।।2।।
जस कुरंग बिच बसत बासना, खोजत मूढ़ फिरत चौगाना ।
कर उसवास मनै में देखै, यह सुगंधि धौं कहाँ बसाना ।।3।।
अर्ध उर्ध बिच लगन लगी है, छक्यो रूप नहिं जात बखाना ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, उलटि आपु में आपु समाना ।।4।।
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।। मूल पद्य ।।
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बिन सतगुरु नर रहत भुलाना, खोजत फिरत राह नहिं जाना ।। टेक।।
केहर सुत ले आयो गड़रिया, पाल-पोस उन कीन्ह सयाना ।
करत कलोल रहत अजयन संग, आपन मर्म उनहुँ नहिं जाना ।।1।।
केहर इक जंगल से आयो, ताहि देखि बहुतै रिसियाना ।
पकड़ि के भेद तुरत समुझाया, आपन दसा देखि मुसक्याना ।।2।।
जस कुरंग बिच बसत बासना, खोजत मूढ़ फिरत चौगाना ।
कर उसवास मनै में देखै, यह सुगंधि धौं कहाँ बसाना ।।3।।
अर्ध उर्ध बिच लगन लगी है, छक्यो रूप नहिं जात बखाना ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, उलटि आपु में आपु समाना ।।4।।
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शब्दार्थ-केहर=केहरी, सिंह। सुत=बेटा। कलोल=क्रीड़ा, खेल-कूद। अजयन=बकरियाँ। मर्म=स्वरूप, भेद। कुरंग=मृग। बासना=गन्ध, कस्तूरी। चौगाना=मैदान। उसवास=उच्छ्वास, ऊपर की ओर खींची हुई साँस। धौं=एक अव्यय, जो ऐसे प्रश्नों के पहले लगाया जाता है, जिनमें जिज्ञासा का भाव कम और संशय का भाव अधिक होता है। बसाना=गन्ध करता है। अर्ध=अर्द्ध, आधा। उर्ध=ऊर्ध्व, ऊपर। लगन=लौ। छक्यो=तृप्त हुआ।
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पद्यार्थ-बिना सद्गुरु के आदमी भूला हुआ रहता है, ढूँढ़ता फिरता है, रास्ता नहीं जानता है। एक गड़ेरिया सिंह के बच्चे को जंगल से ले आया और पाल-पोसकर उसने उसको सयाना किया। वह (सिंह-पुत्र) भेड़-बकरियों के संग में रहता था, खेल-कूद करता था और अपने स्वरूप को नहीं जानता था। एक सिंह जंगल से आया और उस (सिंह-पुत्र) को भेड़-बकरियों के संग में देखकर अति क्रोधित हुआ। उस सिंह-पुत्र को पकड़कर उसको तुरत भेद समझा दिया अर्थात् उसको स्वरूप का ज्ञान करा दिया। तब वह (सिंह-पुत्र) अपनी अवस्था देखकर हँसा। जिस तरह मृग के भीतर सुगन्ध रहती है और वह अज्ञानी पशु उस सुगन्ध को मैदान में ढूँढ़ता फिरता है। साँस को ऊपर खींच-खींचकर अर्थात् सूँघ-सूँघकर अपने मन में सोचता है कि यह सुगन्ध न मालूम कहाँ से आती है? आधे ऊपर बीच में जिसकी लौ लगती है, तो वह वहाँ के रूप के दर्शन से ऐसा तृप्त होता है, जो वर्णित नहीं किया जा सकता। कबीर साहब कहते हैं कि हे साधु भाई! सुनो, वह उलटकर अपने-आपमें समाता है।
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सारांश-ईश्वर-अंश जीव सिंह-पुत्र है। सिंह-पुत्र मन-रूप गड़ेरिये के वश इन्द्रियगण-रूप भेड़-बकरियों के संग में स्वरूप को भूलकर रहता है। संत-सिंह इस जीव को स्वरूप-ज्ञान कराते हैं। जैसे अज्ञानी मृग अपने अन्दर की सुगन्धित कस्तूरी को अज्ञानवश बाहर में ढूँढ़ता है, उसी तरह अज्ञानी जीव अपने अन्दर व्याप्त परमात्म-स्वरूप को बाहर ढूँढ़ने जाता है। चाहिए कि मनुष्य तनधार जीव अपने अंदर में ही ढूँढ़े। आज्ञाचक्र के निचले आधे भाग के ऊपर बीच में ध्यानाभ्यास के द्वारा लौ लगाने से वहाँ के रूप के दर्शन में अवर्णनीय तृप्ति होती है। इस तरह के साधन-अभ्यास से बहिर्मुख से उलट अन्तर्मुख हो अपनी वृत्ति को अपने स्वरूप में लीन करो। यह कबीर साहब का आदेश है।
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परिचय

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