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।। मूल पद्य ।।
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जिनकी लगन गुरू सों नाहीं ।। टेक।।
ते नर खर कूकर सम जग में, बिरथा जन्म गँवाहीं ।।1।।
अमृत छोड़ि विषय रस पीवैं, धृग-धृग तिनके ताईं ।।2।।
हरि बेल की कोरी तुमड़िया, सब तीरथ करि आई ।।3।।
जगन्नाथ के दरसन करके, अजहुँ न गई करुवाई ।।4।।
जैसे फूल उजाड़ को लागो, बिन स्वारथ झरि जाई ।।5।।
कहै कबीर बिन वचन गुरू के, अन्त काल पछिताई ।।6।।
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।। मूल पद्य ।।
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जिनकी लगन गुरू सों नाहीं ।। टेक।।
ते नर खर कूकर सम जग में, बिरथा जन्म गँवाहीं ।।1।।
अमृत छोड़ि विषय रस पीवैं, धृग-धृग तिनके ताईं ।।2।।
हरि बेल की कोरी तुमड़िया, सब तीरथ करि आई ।।3।।
जगन्नाथ के दरसन करके, अजहुँ न गई करुवाई ।।4।।
जैसे फूल उजाड़ को लागो, बिन स्वारथ झरि जाई ।।5।।
कहै कबीर बिन वचन गुरू के, अन्त काल पछिताई ।।6।।
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शब्दार्थ-लगन=प्रेम। खर=गदहा। कूकर=कुत्ता। बिरथा=व्यर्थ, निरर्थक, बिना लाभ के। गँवाहीं=बिताते हैं। धृग=धिक्कार। ताईं=वास्ते, लिये। बेल=लता, लत्तर। कोरी=नयी। तुमड़ियाा=तितलौकी की छोटी तुम्बी या तुमरी, गृहत्यागी, साधु-वैरागी जिसका जलपात्र बनाते हैं। करुवाई=तीतापन। उजाड़=उजड़ा हुआ स्थान, निर्जन, स्थान, जंगल। स्वारथ=स्वार्थ, निज लाभ।
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पद्यार्थ-जिनको गुरु से प्रेम नहीं है, वे सब मनुष्य इस संसार में गदहे और कुत्ते के समान निरर्थक जन्म बिताते हैं। वे अमृत छोड़कर विषय-रस पीते हैं, उनके लिए धिक्कार है, धिक्कार है! हरी लत्तर की नयी (तीत) लौकी सब तीर्थों में नहाकर आई और जगन्नाथ के दर्शन करने पर भी उसकी तिताई दूर नहीं हुई। जैसे उजड़े हुए निर्जन स्थान में-जंगल में कोई फूल फूलता है, तो बिना किसी निज लाभ के ही झड़ जाता है, इसी तरह गुरु से नहीं प्रेम करनेवाला संसार में जन्म लेकर अपने जीवन-रूपी फूल से बिना निज लाभ लिए ही मर जाता है। कबीर साहब कहते हैं कि गुरु के वचन के बिना वह अन्तकाल में पछताता है।
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तुमड़ी की कथा-दो भाई थे। बड़े भाई ज्ञानी, भक्त और सत्संगी थे। छोटा भाई संसारी और घर का कारबारी था। कारबार करते-करते छोटे भाई का मन एक बार ऊबा और बड़े भाई के पास जाकर उसने कहा-‘अगर आप आज्ञा दीजिए, तो मैं कुछ काल के लिए यात्र करूँ, तीर्थों में जाकर स्नान करूँ और धामों में जाकर देव-मूर्त्तियों के दर्शन करूँ?’ बड़े भाई ने कहा-‘बहुत अच्छा, जाओ और कुशलतापूर्वक लौट आओ। मेरी इस समूची कोरी तुमड़ी को अपने साथ लेते जाओ। जिन-जिन तीर्थों में तुम स्नान करना, उन-उन तीर्थों में इस तुमड़ी को भी स्नान करा देना और जिन-जिन धामों में तुम दर्शन करना, उन-उन धामों में इसको भी दर्शन करा देना।’
छोटा भाई उस तुमड़ी को लेकर चल पड़ा। कुछ दिनों के बाद तीर्थयात्र करके तुमड़ी को लेते हुए घर लौटा। बड़े भाई को प्रणाम करके उस तुमड़ी को सामने रख दिया। छोटे-भाई को देखकर बड़ा भाई बड़ा प्रसन्न हुआ तथा आशीर्वाद दिया। उस तुमड़ी को बड़े भाई ने विधि से काटा और उसके भीतर का गूदा निकाल दिया। उस तुमड़ी के भीतर जल रखनेयोग्य स्थान हो गया। उसमें जल भरकर बड़े भाई ने छोटे भाई से कहा-‘इस जल को जरा चखो।’ छोटे भाई ने वैसा ही किया। मुँह में उस जल को रखते ही छोटे भाई ने उस जल को कुल्ली से फेंक दिया और बड़े भाई से कहा-‘यह जल नीम-सा तीता है।’ बड़े भाई ने कहा-‘तीर्थों में स्नान करके और देव-मंदिरों में देव-मूर्त्तियों के दर्शन करके भी इस तुमड़ी के भीतर को कड़˜वाई दूर नहीं हुई। उसी तरह उपर्युक्त कामों से किसी के भीतर का मल दूर नहीं होता और हृदय की शुद्धि नहीं होती, ये तो सत्संग और भजन से ही होते हैं।’
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परिचय
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