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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[17. मैं तो आन पड़ी चोरन के नगर]

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।। मूल पद्य ।।
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मैं तो आन पड़ी चोरन के नगर, सतसंग बिना जिय तरसे ।।1।।
इस सतसंग में लाभ बहुत है, तुरत मिलावै गुरु से ।।2।।
मूरख जन कोइ सार न जानै, सतसंग में अमृत बरसे ।।3।।
सब्द-सा हीरा पटक हाथ से, मुट्ठी भरी कंकर से ।।4।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, सुरत करो वही घर से ।।5।।
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।। मूल पद्य ।।
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मैं तो आन पड़ी चोरन के नगर, सतसंग बिना जिय तरसे ।।1।।
इस सतसंग में लाभ बहुत है, तुरत मिलावै गुरु से ।।2।।
मूरख जन कोइ सार न जानै, सतसंग में अमृत बरसे ।।3।।
सब्द-सा हीरा पटक हाथ से, मुट्ठी भरी कंकर से ।।4।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, सुरत करो वही घर से ।।5।।
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शब्दार्थ-चोरन=चोरों, भजन करने से मन चुरानेवाले, भजन नहीं करनेवाले। तरसै=बिना प्राप्ति के बेचैन रहता है। सतसंग=साधु-संग।
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पद्यार्थ-मैं परमात्म-भजन करने में मन चुरानेवालों के नगर में आ पड़ा हूँ। भजन करनेवाले साधु-भक्तों के संग के बिना मेरा मन बेचैन रहता है। इस सत्संग में बहुत लाभ है, यह शीघ्र ही गुरु से मिलाता है। सत्संग के सार को (असली लाभदायक फल को) अज्ञानी लोग नहीं जानते हैं। सत्संग में अमृत बरसता है। (ज्ञान-ध्यान के उपदेश-वाक्यों के शब्द तथा अन्तर में अनाहत शब्द अमृत है, यह अनमोल है।) शब्द-रूपी हीरे को अपने हाथ से फेंककर (विषय-रूपी) कंकड़ों से (अज्ञानी लोगों ने) अपनी मुट्ठी भर ली है। कबीर साहब कहते हैं कि हे साधो भाई! सुनो, उस घर (सत्संग से निर्णीत मोक्ष-घर) की ओर सुरत करो।  
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परिचय

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