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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[16. सुन्न संध्या तेरी देव देवा]

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।। मूल पद्य ।।
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सुन्न संध्या तेरी देव देवा, करि अधिपति आदि समाई ।
सिद्ध समाधि अन्त नहिं पाया, लागि रहे सरनाई ।।
लेहु आरति हो पुरुष निरंजन, सतिगुरु पूजहु भाई ।
ठाढ़ा ब्रह्मा निगम विचारै, अलख न लखिया जाई ।।
तत्तु तेल नाम कीया बाती, दीपक देह उज्यारा ।
जोति लाय जगदीश जगाया, बूझे बूझनहारा ।।
पंचे सबद अनाहद बाजे, संगे सारिंगपानी ।
कबीर दास तेरी आरती कीनी, निरंकार निरवानी ।।
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।। मूल पद्य ।।
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सुन्न संध्या तेरी देव देवा, करि अधिपति आदि समाई ।
सिद्ध समाधि अन्त नहिं पाया, लागि रहे सरनाई ।।
लेहु आरति हो पुरुष निरंजन, सतिगुरु पूजहु भाई ।
ठाढ़ा ब्रह्मा निगम विचारै, अलख न लखिया जाई ।।
तत्तु तेल नाम कीया बाती, दीपक देह उज्यारा ।
जोति लाय जगदीश जगाया, बूझे बूझनहारा ।।
पंचे सबद अनाहद बाजे, संगे सारिंगपानी ।
कबीर दास तेरी आरती कीनी, निरंकार निरवानी ।।
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शब्दार्थ-सन्ध्या-आर्यों की एक विशिष्ट उपासना, जो प्रतिदिन प्रातःकाल, मध्याह्न और सन्ध्या के समय होती है; दिन और रात; दोनों के मिलने का समय। अधिपति=स्वामी, मालिक। निगम=वेद। अनाहद= अनाहत शब्द। सारिंगपानी=सारंगपाणि, विष्णु। समाधि=ध्यान। तत्तु=तत्त्व, सार पदार्थ, चेतनधार। लाय=लपट। निरंकार निरवानी=आकार-रहित मुक्त-रूप परमात्मा।
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पद्यार्थ-हे देवों के देव आदिप्रभु ! शून्य में समाकर मैं तेरी सन्ध्या-उपासना करता हूँ। सिद्धपुरुषों ने तेरे अन्त को नहीं पाया। वे तेरी शरण में लगे रहते हैं। हे मायातीत पुरुष ! आरती ग्रहण करो। हे भाई ! सद्गुरु की पूजा करो। खड़े-खड़े ब्रह्मा वेद का विचार करते हैं, अलख देखने में नहीं आता। देह का दीपक, सार-तत्त्व-चेतनधार का तेल और नाम की बत्ती का प्रकाश है। इस ज्योति की लपट से जगदीश (परमात्मा) को जगाया अर्थात् प्रत्यक्ष किया। (इस विषय को) बूझनेवाला बूझता है। (अपने) संग में सर्वव्यापी विष्णु है और पाँच अनाहत नाद बजते हैं। हे मुक्तरूप निराकार (प्रभु)! कबीरदास ने तेरी आरती की।
सारांश-अन्तर्ज्योति और अन्तर्नाद को शून्य-ध्यान से की हुई सन्ध्या-उपासना-द्वारा प्राप्त कर देवों के देव आदिप्रभु परमात्मा को प्रत्यक्ष पाने को कबीर साहब उस प्रभु की आरती करने कहते हैं।
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टिप्पणी-कबीर साहब निराकार निरंजन पुरुष की आरती करते हैं। वह उस पुरुष को सारंगपाणि भी कहते हैं; परन्तु ब्रह्मा, विष्णु, महेश-त्रिदेवों में से विष्णु भगवान को भी सारंगपाणि कहते हैं। इन त्रिदेवों के लिए कबीर साहब का यह पद्य भी है-
ब्रह्मा विष्णु महेसुर कहिये, इन सिर लागी काई ।
इनहिं भरोसे मत कोइ रहियो, इन भी मुक्ति न पाई ।।
कबीर साहब के वचनों में शून्य-ध्यान का बड़ा आदर है, जैसे एक पद्य में वे कहते हैं-
शून्यध्यान सबके मन माना । तुम बैठो आतम स्थाना ।।
श्रीमद्भागवत में और उपनिषदों में भी शून्य-ध्यान और विशेष प्रकार की सन्ध्या-उपासना की विधि और विशेषताा बतलायी गई है-
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाकृष्य तन्मनः ।
बुद्धया सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः ।। 42।।
अर्थ-बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींचकर उस मन को बुद्धिरूपी सारथी की सहायता से सर्वांगयुक्त मुझमें ही लगा दे।।42।।
तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत् ।
नान्यानि चिन्तयेद् भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम् ।। 43।।
अर्थ-सब ओर से फैले हुए चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और फिर अन्य अंगों का चिन्तन न करता हुआ केवल मेरे मुस्कानयुक्त मुख का ही ध्यान करे।।43।।
तत्र लब्धपदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत् ।
तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किंचिदपि चिन्तयेत् ।। 44।।
अर्थ-मुखारविन्द में चित्त के स्थिर हो जाने पर उसे वहाँ से हटाकर आकाश में स्थिर करे। तदन्तर उसको भी त्यागकर मेरे शुद्ध स्वरूप में आरूढ़ हो और कुछ भी चिन्तन न करे।।44।।
-श्रीमद्भागवत, 11 स्कंध, अध्याय 14
अथ हैनमत्रिः पप्र्रच्छ याज्ञवल्क्यं
य एषोऽनन्तोऽव्यक्त आत्मा तं कथमहं
विजानीयाम् इति ।
सहोवाच याज्ञवल्क्यः-
सोऽविमुक्त उपास्यो य एषोऽनन्तोऽव्यक्त आत्मा सोऽविमुक्ते प्रतिष्ठित इति। सोऽविमुक्तः कस्मिन् प्रतिष्ठित इति। वरणायां नाश्यां च मध्ये प्रतिष्ठित इति।। का वै वरणा का च नाशीति। सर्वानिन्द्रियकृतान्दोषान्वारयतीति तेन वरणा भवति।। सर्वानिन्द्रिय- कृतान् पापान् नाशयतीति तेन नाशी भवतीति।। कतमं चास्य स्थानं भवतीति। भ्रुवोर्घ्राणस्य च यः संधिः स एष द्योर्लोकस्य परस्य च सन्धिर्भवतीति। एतद्वै सन्धिं सन्ध्यां ब्रह्मविद् उपासत इति----।।2।। -जाबालोपनिषद्
अर्थ-अत्रि ऋषि ने इसके बाद याज्ञवल्क्य से पूछा-‘जो ऐसा अनन्त, अव्यक्त आत्मा है, उसको हम कैसे जानें?’
याज्ञवल्क्य ने कहा-‘वह अविमुक्त आत्मा ही उपासना-योग्य है। वह अनन्त-अव्यक्त अविमुक्त में प्रतिष्ठित है। वह अविमुक्त कहाँ प्रतिष्ठित है? वह वरणा और नाशी के बीच में प्रतिष्ठित है। वरणा और नाशी क्या है? सब इन्द्रियकृत दोषों को जो दूर करता है, वही वरणा है और जो सब इन्द्रियकृत पापों को नाश करता है, वही नाशी कहलाता है। कहाँ वह स्थान है? दोनों भौंओं का और नासिका का जो मिलन-स्थान है। (वही वह स्थान है), वह द्युर्लोक और परलोक का भी मिलन-स्थान है। इसी संधि-स्थान में ब्रह्मज्ञानी अपनी संध्या की उपासना करते हैं अर्थात् वहाँ पर ध्यान करके ब्रह्म-साक्षात्कार की चेष्टा करते हैं।।2।।
श्रीमद्भागवत के उपर्युक्त श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण-द्वारा श्रीउद्धवजी को आदेश दिया गया है। श्लोकों से स्पष्ट विदित होता है कि ध्यान को फैलाव से सिमटाव में लाने का आदेश भगवान का है। सर्वांगयुक्त शरीर का ध्यान करके फिर उस ध्यान को छोड़कर केवल मुखारविन्द का ध्यान करना-यह अवश्य ही फैलाव से सिमटाव की ओर आना है। तब उस ध्यान को भी छोड़कर शून्य में ध्यान करना, विशेष फैलाव में जाने का विचार नहीं समझा जा सकता है, बल्कि विशेष-से-विशेष सिमटाव में जाना ही समझा जा सकता है। दृश्य-मण्डल में विन्दु-ध्यान से पूर्ण सिमटाव होगा। पूर्ण सिमटाव ही विशेष सिमटाव है। मन से विन्दु बनाकर विन्दु-ध्यान करना विन्दु-ध्यान नहीं है; क्योंकि मन को परिमाण-रहित स्थान का रूप पहले से ज्ञात नहीं है, इसलिए विन्दु की परिभाषा के अनुकूल मन से विन्दु बन नहीं सकता है। केवल अत्यन्त सिमटी हुई यौगिक दृष्टि से ज्योतिर्विन्दु का उदय होता है। पदार्थ-रूप में यह विन्दु शून्य का छोटे-से-छोटे चमकता हुआ अंश है, इसलिए यह शून्य ही है। इसी के ध्यान को शून्य-ध्यान कहते हैं और वह परम ध्यान है।
तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम् ।
-तेजोविन्दूपनिषद्
‘हृदय-स्थित विश्वात्म तेजस्-स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है।’ इसी ‘तेजोविन्दु’ का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय में इस प्रकार है-
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्यधातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।।
‘कवि अर्थात् सर्वज्ञ, पुरातन, शास्ता, अणु से भी छोटा, सबके धाता अर्थात् आधार या कर्त्ता, अचिन्त्यस्वरूप और अंधकार से परे सूर्य के समान देदीप्यमान पुरुष (है)।’
और मनुस्मृति, अध्याय 12 में भी इसी ‘तेजोविन्दु’ का कथन इस प्रकार है-
प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि ।
रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम् ।। 122।।
इस श्लोक के द्वारा मनुस्मृति में भी अणु-से-अणु शुद्ध स्वर्ण समान कान्तिमान अर्थात् ‘तेजोविन्दु’ को परमात्मा का रूप बताकर, उसकी उपासना की आज्ञा है। यह विन्दु परमात्मा का विशेष और सूक्ष्म रूप तेजोमय विभूति-रूप है। वह सेन्द्रिय सब विभूति-रूपों से विशेष आकृष्टकारी, मनोविकार-नाशक और शांतिप्रद है। सेन्द्रिय तथा निरिन्द्रिय में से किसी तेजस्वी रूप को परमात्मा का विभूति-रूप नहीं मानना ज्ञान-विरुद्ध है। सेन्द्रिय-निरिन्द्रिय, स्थूल-सूक्ष्म और तेजवान वा साधारण; सृष्टि के सब रूप ज्ञानानुकूल सर्वगत परमात्मा के हैं; परन्तु इनमें से कोई भी रूप ‘परमात्म-स्वरूप’ नहीं है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार के न्याय से सब रूप क्षेत्र हैं और परमात्मा क्षेत्रज्ञ हैं। रूप माया और खोल-मात्र है। सेन्द्रिय-निरिन्द्रिय और स्थूल-सूक्ष्म-भेद से विविध खोलों को आवश्यकतानुसार क्रमशः-पारी-पारी से उपासना करते हुए परमात्म- स्वरूप को प्राप्त करने की उत्तम विधि जानकर परमात्मा की उपासना करनी परम भक्ति है। स्थूल-सूक्ष्म तथा सेन्द्रिय-निरिन्द्रिय भेदों में रूपों की बदली अवश्य होती है; परन्तु उनके धारण करनेवाले एक ही परमात्मा इष्ट कहते हैं, वे नहीं बदलते। ठीक वैसे ही, जैसे कि एक ही व्यक्ति पारी-पारी से अनेक प्रकार के वस्त्रें को पहने, तो वह अपने तो नहीं बदलता है, केवल उनके वस्त्र बदलते हैं। अतएव किसी को यह ख्याल नहीं करना चाहिए कि स्थूल सेन्द्रिय रूप की उपासना को त्यागकर सूक्ष्म निरिन्द्रिय रूप-उपासना करने से इष्टदेव बदल जाएँगे। पारी-पारी से स्थूल सेन्द्रिय रूप-ध्यान-उपासना को सूक्ष्म निरिन्द्रिय रूप-ध्यान-उपासना में बदले बिना परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति नहीं होगी।  
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परिचय

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