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।। मूल पद्य, रमैणी ।।
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अलख निरंजन लखै न कोई । निरभै निराकार है सोई ।।
सुंनि अस्थूल रूप नहिं रेखा । द्रिष्टि अद्रिष्टि छिप्यो नहिं पेखा ।।
बरन अबरन कथ्यौ नहिं जाई । सकल अतीत घट रह्यो समाई ।।
आदि अंत ताहि नहिं मधे । कथ्यौ न जाई आहि अकथे ।।
अपरंपार उपजै नहिं विनसै । जुगति न जानिये कथिये कैसे ।।
जस कथिये तस होत नहिं, जस है तैसा सोइ ।
कहत सुनत सुख ऊपजै, अरु परमारथ होइ ।।
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।। मूल पद्य, रमैणी ।।
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अलख निरंजन लखै न कोई । निरभै निराकार है सोई ।।
सुंनि अस्थूल रूप नहिं रेखा । द्रिष्टि अद्रिष्टि छिप्यो नहिं पेखा ।।
बरन अबरन कथ्यौ नहिं जाई । सकल अतीत घट रह्यो समाई ।।
आदि अंत ताहि नहिं मधे । कथ्यौ न जाई आहि अकथे ।।
अपरंपार उपजै नहिं विनसै । जुगति न जानिये कथिये कैसे ।।
जस कथिये तस होत नहिं, जस है तैसा सोइ ।
कहत सुनत सुख ऊपजै, अरु परमारथ होइ ।।
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शब्दार्थ-सुंनि=शून्य, खाली, आकाश। अस्थूल (अ+स्थूल)= सूक्ष्म, झीना, बारीक। द्रिष्टि-अद्रिष्टि=दृष्टि-अदृष्टि, दृष्टि से नहीं देखा हुआ। पेखा=देखा। बरन=रंग। अबरन=रंग-बिना। अतीत=पृथक्, परे। अपरंपार=वार-पार-रहित, असीम। जुगति=युक्ति, उपाय। परमारथ=परमार्थ, मोक्ष।
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पद्यार्थ-जिस अदृश्य, माया-रहित (राम) को कोई नहीं देखता है, वही निर्भय और निराकार है। वह आकाशवत् सूक्ष्म है। उसके रूप-रेखा नहीं है। वह दृष्टि से देखा हुआ नहीं है, अप्रकट है, उसको नहीं देखा है। वह रंग का वा बिना रंग का है, कहा नहीं जाता है। वह सबसे पृथक् है और घट में समाया हुआ है। उसका आदि, अन्त और मध्य नहीं है। वह कहा नहीं जाता है, अकथ है। वह असीम है, वह न उपजता है, न नष्ट होता है। उसके विषय में कैसे कहूँ, सो युक्ति नहीं जानता हूँ।
जैसा कहता हूँ, वैसा वह नहीं है। वह जैसा है, तैसा ही है। उसके बारे में कहने-सुननेे से सुख उपजता है और मोक्ष होता है। *********************
परिचय
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