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(04) . संत कबीर साहब की वाणी
[7. अंजन अलप निरंजन सार] 

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।। मूल पद्य ।।
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अंजन अलप निरंजन सार, यहै चीन्हि नर करहु विचार ।। टेक।।
अंजन उतपति बरतनि लोई, बिना निरंजन मुक्ति न होई ।।
अंजन आवै अंजन जाइ, निरंजन सब घटि रह्यो समाइ ।।
जोग ध्यान तप सबै बिकार, कहै कबीर मेरे राम अधार ।।
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।। मूल पद्य ।।
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अंजन अलप निरंजन सार, यहै चीन्हि नर करहु विचार ।। टेक।।
अंजन उतपति बरतनि लोई, बिना निरंजन मुक्ति न होई ।।
अंजन आवै अंजन जाइ, निरंजन सब घटि रह्यो समाइ ।।
जोग ध्यान तप सबै बिकार, कहै कबीर मेरे राम अधार ।।
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शब्दार्थ-अलप=अल्प, थोड़ा। बरतनि=व्यवहार। लोई=लोग। बरतनि लोई=लोक-व्यवहार। बिकार=दोष, परिवर्तित रूप। अधार= आधार, अवलम्ब।
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पद्यार्थ-माया (की विशेषता) कम है, माया-रहित सार है। हे मनुष्य ! इसको पहचानकर विचार करो। उत्पन्न होना और लोक-व्यवहार माया है। माया-रहित (राम) के बिना मुक्ति नहीं होती है। माया आती है और जाती है। माया-रहित (राम) सब घट में समाये हुए हैं अर्थात् सर्वव्यापक हैं। योग-ध्यान-तप, सभी माया के परिवर्तित रूप हैं, जैसे सोने का परिवर्तित रूप कंगन है। योग-ध्यान-तप के अभ्यास-काल में ईश्वर की प्रत्यक्षता नहीं होती है। अभ्यास की समाप्ति पर ईश्वर की प्रत्यक्षता होती है। कबीर साहब कहते हैं कि राम मेरे अवलम्ब हैं।
योग-ध्यान-तप के पूर्ण अभ्यास के बिना इनकी समाप्ति नहीं होती। इसलिए ये अनुपयोगी और बेकार नहीं हैं। जैसे काँटे से काँटा निकालकर दोनों काँटों को फेंक देते हैं, उसी प्रकार योग-ध्यान-तप-रूप माया के सारे माया-आवरणों को हटाते हैं और इनसे परे हो जाते हैं; परन्तु राम से परे नहीं हुआ जा सकता। फलस्वरूप राम का आधार बना रहता है।
टिप्पणी-योग के पंच नियमों में से तप एक नियम है, अतएव यह योग का सहायक है। ध्यान योग का सातवाँ अंग है। इसकी पूर्णता में समाधि की प्राप्ति होती है, जो योग का आठवाँ और अंतिम अंग है। समाधि में माया-रहित सार परम तत्त्व, सर्वव्यापी राम प्रत्यक्ष प्राप्त होते हैं। अपने सब अंगों के सहित योग यहाँ समाप्त हो जाता है। साधक को इस स्थिति में योग-साधन के प्रयास की आवश्यकता नहीं रहती। वह उस प्रयास से मुक्त हो जाता है। वह उस परम पद की स्थिति प्राप्त कर चुकता है, जिस स्थिति में रहते हुए योग-कर्मादि समस्त साधनाओं को त्यागकर निर्विकारी होकर रहता है। जबतक साधक-विशेष अल्प वा अणुमात्र भी विकारी वा दोष-युक्त रहता है, तभी तक योग-साधन की उसको आवश्यकता रहती है। जैसे वस्त्र या शरीर की मैल को साबुन के द्वारा दूर करके साबुन को भी अलग कर देते हैं और शरीर में चुभे हुए काँटे को दूसरे काँटे से निकालकर दोनों काँटों को त्याग देते हैं, उसी प्रकार योगाभ्यास-द्वारा अपने सारे दोषों को दूर करके योगाभ्यास के प्रयास को भी छोड़ देते हैं। अतएव योग भी अंत में त्यागने-योग्य ही सिद्ध हुआ। इसलिए योग, ध्यान और तप; विकार कहे गये हैं; परन्तु जिस स्थिति पर चढ़कर योग का त्याग हो जाता है, उस स्थिति पर चढ़े बिना, नीचे गिरे हुए सविकारी रहकर, अपनी अल्पज्ञता से योग को विकार समझकर, इसका साधन नहीं करे, तो यह संसार-बंधन से कभी मुक्त नहीं होगा। स्वयं कबीर साहब कहते हैं-
‘सहज ध्यान रहु सहज ध्यान रहु, गुरु के वचन समाई हो ।
मेली चित्त चराचित्त राखो, रहो दृष्टि लौ लाई हो ।।’
-कबीर-बीजक
‘जोग जुगत से रंग महल में, पिय पायो अनमोल रे।।’
-कबीर-शब्दावली, भाग 1  
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परिचय

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