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।। मूल पद्य ।।
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बाबा जोगी एक अकेला, जाकै तीर्थ व्रत न मेला ।। टेक।।
झोली पत्र विभूति न बटवा, अनहद बेन बजावै ।
माँगि न खाइ न भूखा सोवै, घर अँगना फिरि आवै ।।
पाँच जना की जमाति चलावै, तास गुरू मैं चेला ।
कहै कबीर उनि देस सिधाये, बहुरि न इहि जग मेला ।।
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।। मूल पद्य ।।
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बाबा जोगी एक अकेला, जाकै तीर्थ व्रत न मेला ।। टेक।।
झोली पत्र विभूति न बटवा, अनहद बेन बजावै ।
माँगि न खाइ न भूखा सोवै, घर अँगना फिरि आवै ।।
पाँच जना की जमाति चलावै, तास गुरू मैं चेला ।
कहै कबीर उनि देस सिधाये, बहुरि न इहि जग मेला ।।
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शब्दार्थ-पाँच जना=पाँच तत्त्व।
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पद्यार्थ-हे बाबा ! योगी एक-अकेला रहता है। उसको तीर्थ, व्रत और मेला नहीं है अर्थात् इनका वह अनुगामी नहीं होता है। उसको झोली नहीं है, भिक्षा-पात्र नहीं है, वह भस्म नहीं लगाता है और उसको बटुआ नहीं है। वह अनहद-वेणु बजाता है अर्थात् वह सुरत-शब्द-योग का अभ्यास करता है। वह माँगकर नहीं खाता है और न भूखा सोता है; घर-आँगन में फिर आता है अर्थात् उद्यम करके खाता है और घर-आँगन में रहता है। पाँच तत्त्वों की जमात को चलाता है अर्थात् शरीर को काबू में रखकर व्यवहार करता है-उसके गुरु का मैं चेला हूँ। कबीर साहब कहते हैं-वे (योगी) मोक्षधाम को चले गये। फिर वे संसार के मेले में नहीं आएँगे।
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परिचय
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