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(03) . महायोगी गोरखनाथजी महाराज की वाणी

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।। मूल पद्य-01 ।।
बस्ती न शुन्यं शुन्यं न बस्ती, अगम अगोचर ऐसा ।
गगन सिखर मँहि बालक बोलहिं, वाका नाँव धरहुगे कैसा ।।1।।
सप्त धातु का काया प्यंजरा, ता माहिं ‘जुगति’ बिन सूवा ।
सत्गुरु मिलै त उबरै बाबू, नहिं तौ परलै हूवा ।।2।।
आवै संगै जाइ अकेला । ताथैं गोरख राम रमेला ।।
काया हंस संगि ह्वै आवा । जाता जोगी किनहुँ न पावा ।।
जीवत जग में मुआ समाण । प्राण पुरिस कत किया पयाण ।।
जामण मरण बहुरि बियोगी । ताथैं गोरख भैला योगी ।।3।।
गगन मंडल में औंधा कूवाँ, जहाँ अमृत का वासा ।
सगुरा होइ सो भर-भर पीया, निगुरा जाय पियासा ।।4।।
गोरख बोलै सुणहु रे अवधू, पंचौं पसर निवारी ।
अपनी आत्मा आप विचारो, सोवो पाँव पसारी ।।5।।
ऐसा जाप जपो मन लाई । सोऽहं सोऽहं अजपा गाई ।।
आसन दिढ़ करि धरो धियान । अहनिसि सुमिरौ ब्रह्मगियान ।।
नासा अग्र निज ज्यों बाई । इड़ा प्यंगुला मधि समाई ।।
छह सै सहँस इकीसौ जाप । अनहद उपजै आपै आप ।।
बंक नालि में ऊगै सूर । रोम-रोम धुनि बाजै तूर ।।
उलटै कमल सहस्त्रदल वास। भ्रमर गुफा में ज्योति प्रकाश ।। 6 ।।
खाये भी मरिये अणखाये भी मरिये। गोरख कहै पूता संजमि ही तरिये ।। 7 ।।
धाये न खाइबा, भूखे न मरिबा । अहिनिसि लेबा ब्रह्म अगिनि का भेवं ।।
हठ न करिबा, पड़े न रहिबा । यूं बोल्या गोरख देवं ।। 8 ।।
कै चलिबा पंथा, कै सीवा कंथा । कै धरिबा ध्यान, कै कथिबा ज्ञान ।। 9 ।।
हबकि न बोलिबा, ठबकि न चलिबा, धीरे धरिबा पावं ।।
गरब न करिबा, सहजै रहिबा, भणंत गोरख रावं ।।10।।
गोरख कहै सुनहु रे अबधू, जग में ऐसे रहणा ।
आँखे देखिबा, काने सुणिबा, मुख थैं कछू न कहणा ।।
नाथ कहै तुम आपा राखौ, हठ करि बाद न करणा ।
यहु जग है काँटे की बाड़ी, देखि दृष्टि पग धरणा ।।11।।
मन में रहना, भेद न कहना, बोलिबा अमृत वाणी ।।
आगिका अगिनी होइबा अबधू, आपण होइबा पाणी ।।12।। 

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।। मूल पद्य-02 ।।  

हँसिबा खेलिबा धरिबा ध्यान, अहनिसि कथिबा ब्रह्मज्ञान ।
हँसै खेलै न करै मन भंग, ते निहचल सदा नाथ के संग ।।
अजपा जपै सुंनि मन धरै, पाँचो इन्द्रिय निग्रह करै ।
ब्रह्म अगनि में जो होमे काया, तास महादेव बन्दे पाया ।।
धन जोवन की करै न आस, चित्त न राखै कामिनी पास ।
नाद-बिन्द जाके घटि जरै, ताकी सेवा पारबति करै ।। 
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।। मूल पद्य -01।।
बस्ती न शुन्यं शुन्यं न बस्ती, अगम अगोचर ऐसा ।
गगन सिखर मँहि बालक बोलहिं, वाका नाँव धरहुगे कैसा ।।1।।
सप्त धातु का काया प्यंजरा, ता माहिं ‘जुगति’ बिन सूवा ।
सत्गुरु मिलै त उबरै बाबू, नहिं तौ परलै हूवा ।।2।।
आवै संगै जाइ अकेला । ताथैं गोरख राम रमेला ।।
काया हंस संगि ह्वै आवा । जाता जोगी किनहुँ न पावा ।।
जीवत जग में मुआ समाण । प्राण पुरिस कत किया पयाण ।।
जामण मरण बहुरि बियोगी । ताथैं गोरख भैला योगी ।।3।।
गगन मंडल में औंधा कूवाँ, जहाँ अमृत का वासा ।
सगुरा होइ सो भर-भर पीया, निगुरा जाय पियासा ।।4।।
गोरख बोलै सुणहु रे अवधू, पंचौं पसर निवारी ।
अपनी आत्मा आप विचारो, सोवो पाँव पसारी ।।5।।
ऐसा जाप जपो मन लाई । सोऽहं सोऽहं अजपा गाई ।।
आसन दिढ़ करि धरो धियान । अहनिसि सुमिरौ ब्रह्मगियान ।।
नासा अग्र निज ज्यों बाई । इड़ा प्यंगुला मधि समाई ।।
छह सै सहँस इकीसौ जाप । अनहद उपजै आपै आप ।।
बंक नालि में ऊगै सूर । रोम-रोम धुनि बाजै तूर ।।
उलटै कमल सहस्त्रदल वास। भ्रमर गुफा में ज्योति प्रकाश ।। 6 ।।
खाये भी मरिये अणखाये भी मरिये। गोरख कहै पूता संजमि ही तरिये ।। 7 ।।
धाये न खाइबा, भूखे न मरिबा । अहिनिसि लेबा ब्रह्म अगिनि का भेवं ।।
हठ न करिबा, पड़े न रहिबा । यूं बोल्या गोरख देवं ।। 8 ।।
कै चलिबा पंथा, कै सीवा कंथा । कै धरिबा ध्यान, कै कथिबा ज्ञान ।। 9 ।।
हबकि न बोलिबा, ठबकि न चलिबा, धीरे धरिबा पावं ।।
गरब न करिबा, सहजै रहिबा, भणंत गोरख रावं ।।10।।
गोरख कहै सुनहु रे अबधू, जग में ऐसे रहणा ।
आँखे देखिबा, काने सुणिबा, मुख थैं कछू न कहणा ।।
नाथ कहै तुम आपा राखौ, हठ करि बाद न करणा ।
यहु जग है काँटे की बाड़ी, देखि दृष्टि पग धरणा ।।11।।
मन में रहना, भेद न कहना, बोलिबा अमृत वाणी ।।
आगिका अगिनी होइबा अबधू, आपण होइबा पाणी ।।12।।
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शब्दार्थ-बस्ती=निवास, भरती, भाव, सत्। शुन्यं=शून्य, खाली, रिक्त, रीता, अनिवास, अभाव, असत्। सिखर (शिखर)=चोटी, सिरा। गगन-सिखर=आकाश की चोटी, आकाश के ऊपर का अन्त, आकाश की सूक्ष्मता का अन्तिम अंश। बालक बोलहिं=बालक बोलता है, बालक के स्वर का शब्द या ध्वनि होती है। कैसा?=यह शब्द निषेधार्थक प्रश्न के रूप में है। सप्त=सात। धातु=शरीर को बनाये रखनेवाले पदार्थ-रक्त, रस, मांस, मेद, अस्थि (हड्डी), मज्जा और वीर्य। प्यंजरा=पिंजरा। काया=शरीर। सूवा=सुग्गा (जीवात्मा)। परलै (प्रलय)= विनाश, अत्यन्त दुःख। हंस=चैतन्य आत्मा। प्राण पुरिस (प्राणपुरुष)=चैतन्य आत्मा। पयाण (प्रयाण)=यात्र। कत=कहाँ। बियोगी=त्यागी, सम्बन्ध छोड़नेवाला। ताथैं (तातैं)=इसलिए। भैला=हुआ। औंधा=उलटा; मुँह नीचे, पेंदा ऊपर। अमृत=जीवनी शक्ति, चेतन। सगुरा=गुरु के सहित। भर=पूरा। अबधू=साधु, योगी। पसर (प्रसार)= गहरी की हुई हथेली (गहरी की हुई हथेली माँगने का चिह्न है)। पंचौं पसर=आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा; पंच ज्ञानेन्द्रियों के रूप, शब्द, गंध, रस और स्पर्श की माँग। निवारी=रोककर। सोवो पाँव पसारी=निश्चिन्त रहो। नासा=नाक। अग्र=आगे। ज्यों=जिस प्रकार। बाई (वायु)=हवा। इड़ा=बायीं ओर की वृत्ति। प्यंगुला (पिंगला)=दाहिनी ओर की वृत्ति। मधि (मध्य)=बीच। छ सै सहँस इकीसो=इक्कीस हजार छह सौ। अनहद=अन्तर के बहुत-से ध्वन्यात्मक शब्द। बंक=टेढ़ा। नालि=नल। बंक नालि=वह नल, जिसमें कठिनाई से प्रवेश किया जाय, सुषुम्ना। सूर=सूर्य। धुनि (ध्वनि)=ध्वन्यात्मक शब्द। तूर=तुरही बाजा। कमल सहस्त्रदल (सहस्त्रदल कमल)=सूक्ष्म जगत् का मण्डल, सहस्त्रार। भ्रमरगुफा=ब्रह्मरन्ध्र; वह सूक्ष्म मार्ग, जिसमें सुरत को ज्योति और भौंरे का गुंजार क्रमशः देखने और सुनने में आवे; जिस होकर गति हो तो ब्रह्म की ओर जाना हो। अणखाये=बिना खाये। संजमि=परहेजी। धाये=अघाकर, पेट पूरा-पूरा भरकर। अह=दिन। निसि=रात। ब्रह्म अगिन=ब्रह्म-ज्योति। भेवं=भेद। कंथा=गुदड़ी। हबकि=हड़बड़ा कर, जल्दी-जल्दी। ठबकि=उतावलेपन से, झटपट-झटपट। गरब=अहंकार। सहज=स्वाभाविक। भणंत=कहते हैं। आपा=होश-हवास, सुधबुध। बाद=तर्क, बहस। आगिका अगिनी=अत्यन्त क्रोधित। होइबा पाणी=पानी होना, ठण्ढा होना, नम्र होना।
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पद्यार्थ-बुद्धि के परे और इन्द्रियों के ज्ञान के परे परम प्रभु परमात्मा ऐसा है, जो न भरती है और न खाली है। और उसका शब्द आकाश की चोटी पर बालक के स्वर के सदृश सुरीला होता है; उसका किस प्रकार नाम धरोगे? अर्थात् उसका किसी प्रकार नाम नहीं धर सकोगे।
अन्य संतों का भी विचार है कि उस परमेश्वर का नाम ही कैसे रखा जा सकता है? देखिये-
‘जाका नाम अकहुआ भाई । ताकर कहा रमैनी गाई ।।’
कबीर-बीजक
‘जो कोई चाहै नाम, सौ नाम अनाम है ।
लिखन-पढ़न में नाहिं, निःअच्छर काम है ।।’
-संत पलटू साहब
‘तुलसी तोल बोल अबोल बानी, बूझि लखि बिरले लई ।।’
-संत तुलसी साहब
‘एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानन्द परधामा।।’
-गोस्वामी तुलसीदासजी
अघोषम् अव्यञ्जनम् अस्वरं च अकण्ठताल्वोष्ठम् अनासिकं च ।
अरेफ जातम् उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।।
-अमृतनाद उपनिषद्

परमात्मा केवल चैतन्य आत्मा से जाननेयोग्य है। वह ऐसा है कि न उसे हम बस्ती कह सकते हैं और न शून्य। न यह कह सकते हैं कि वह कुछ है (बस्ती) और न यह कि वह कुछ भी नहीं (शून्य) है। भाव (बस्ती), अभाव (शून्य), सत् और असत् दोनों से परे है। वह अलौकिक है। उसका शब्द अर्थात् नाम आकाश की चोटी-सृष्टि के आदि-अंश से अत्यन्त मधुर स्वर में ध्वनित होता है। अतएव वह वर्णात्मक नहीं है। वह ध्वन्यात्मक है और अकह है। आकाश-मण्डल में बोलनेवाला इसलिए कहा कि शून्य अथवा प्राकृतिक तत्त्वों से हीन भाव के पद में ही ब्रह्मा का निवास माना जाता है। वहीं पहुँचने पर ब्रह्म का साक्षात्कार हो सकता है। वहीं आत्मा को ढूँढ़ना चाहिए। बालक इसलिए कि जिस प्रकार बालक पाप-पुण्य से अछूता होता है, उसी प्रकार परमात्मा भी है। शब्द की साधना करते हुए साधक अपने ब्रह्मरन्ध्र में ही क्रम से स्थूल ध्वनियों के मण्डल से होता हुआ सूक्ष्मतर ध्वनियों की चरम सीमा पर पहुँचता है और अंत में वह परमात्मा का साक्षात्कार कर पाता है।।1।।

यह शरीर-रूपी पिंजड़ा सात धातुओं से बना हुआ है। इसमें जीवात्मा युक्ति के न जाननेवाले सुग्गे के समान रहता है। यदि इस जीव को सद्गुरु मिलें, तो इसका उद्धार हो सकता है, नहीं तो यह जीव अत्यन्त दुःख भोगता रहेगा।

एक सुग्गे की कथा-एक पिंजड़े में एक पालतू सुग्गा बन्द था। राम-राम रटा करता था। संयोगवश एक भक्त योगी पुरुष वहाँ आया। उस सुग्गे को राम-राम रटता देखकर कहा कि रे सुग्गे! राम-राम के भजन से जीव संसार-रूपी पिंजड़े से छूट जाता है, तू इस पिंजड़े से क्यों नहीं छूट जाता? बात यह है कि तू युक्ति जाने बिना ही राम-नाम जपता है, इसलिए इस पिंजड़े से नहीं छूटता है। सुग्गे ने कहा-‘हाँ बाबा! मैं युक्ति नहीं जानता हूँ। कृपया इसकी युक्ति मुझे बता दो।’ उस महापुरुष ने सुग्गे को प्राण-स्पन्दन बन्द करने की युक्ति बता दी और उससे कहा कि उसका थोड़ा-थोड़ा अभ्यास कर। जब इसका विशेष अभ्यास हो जाए, तब बहुत देर तक अपने प्राण-स्पन्दन को रोककर पिंजड़े में पड़ा रहना। तब तू इस पिंजड़े से निकाल दिया जाएगा। सुग्गे ने ऐसा ही किया। और एक दिन जब उसके मालिक ने देखा कि सुग्गा बिना हिले-डुले पिंजड़े में पड़ा है, तब उसने समझा कि सुग्गा मर गया है। उसने उसे पिंजड़े से निकालकर बाहर फेंक दिया। सुग्गा अपने को पिंजड़े से बाहर पाकर उड़ गया तथा सदा के लिए पिंजड़े के बन्धन से छूटकर स्वतंत्र विचरने लगा।

बाबा गोरखनाथजी महाराज कहते हैं कि हे शरीर में बद्ध जीव! तू प्राण-स्पन्दन रोकने का-बंद करने का अभ्यास करते हुए परमात्मा का भजन कर। तू शरीर के बंधन से रहित हो जाएगा। नहीं तो इस शरीर में रहते हुए अनेक जन्मों तक अत्यन्त दुःख भोगेगा। इसकी युक्ति जानने के लिए सद्गुरु की खोज कर और उनकी शरण ले। यदि सद्गुरु की कृपा होगी, तो दया करके वे कोई ऐसी युक्ति बता देंगे, जिससे बेड़ा पार लग जाएगा। प्राण को स्पन्दन-रहित करने की दो युक्तियाँ हैं। हठयोग में वर्णित प्राणायाम की युक्ति सापद (विघ्न, विपत्ति और कष्टवाली) है-

यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः ।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ।।
-शाण्डिल्योपनिषद्
‘जैसे सिंह, हाथी और बाघ धीरे-धीरे काबू में आते हैं, इसी तरह प्राणायाम अर्थात् वायु का अभ्यास कर वश में करना भी किया जाता है। प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है।’

संतमत में संतों ने दृष्टियोग-साधन की जो युक्ति बतलायी है, उसके अनुसार प्राण-स्पन्दन का जो निरोध होता है, वह निरापद (विघ्न, विपत्ति एवं कष्ट से रहित) युक्ति है। शाण्डिल्योपनिषद् के कुछ श्लोकों को देखिये-
द्वादशाघ्गुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे ।
संविद्दृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।

‘जब ज्ञान-दृष्टि (सुरत, चेतन-वृत्ति) नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो, तो प्राण का स्पन्दन रुद्ध हो जाता है।’

भ्रूमध्ये तारकालोकशान्तावन्तमुपागते ।
चेतनैकतने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।

‘जब चेतन अथवा सुरत भौंओं के बीच के तारक-लोक अर्थात् तारा-मंडल में पहुँचकर स्थिर होती है, तो प्राण की गति बन्द हो जाती है।’
चिरकालं हृदेकान्त व्योम संवेदनान्मुने ।
अवासनमनोध्यानात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।

‘हृदयाकाश में संकल्प-विकल्प और वासनाहीन मन से बहुत दिनों तक ध्यान करने से प्राण की गति रुक जाती है।’

दृष्टि-योग-साधन की युक्ति के संबंध में विशेष जानकारी के लिए किसी सच्चे गुरु की शरण में जाकर उनकी भक्ति करनी चाहिए; क्योंकि श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।
-अध्याय 4, श्लोक 34

ध्यान में रख कि प्रणिपात से, प्रश्न और सेवा से तत्त्ववेत्ता ज्ञानी पुरुष तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।’

शरीर के संग चेतन आत्मा स्थूल संसार में आता है, परन्तु स्थूल शरीर छोड़कर अकेले चला जाता है। इसलिए गोरख (शरीर में रमना अर्थात् भोग-विलास के लिए शरीर में ठहरना छोड़कर) राम में रमता है।

चैतन्य आत्मा शरीर के संग होकर इस स्थूल जगत् में आया। शरीर का संग छोड़कर जाते हुए योगी (चैतन्य आत्मा) को किसी ने नहीं पाया। वह (योगी) जीते-जी मृतकवत् संसार में रहता है। प्राण पुरुष (चेतन आत्मा) ने कहाँ यात्र की है, इसको कोई नहीं जानता। जन्म लेना है, मरना है तथा पुनः शरीर का संबंध छोड़ना है-इसलिए गोरखनाथ योगी हो गये।

शरीर-सुख विषय-सुख है। इसमें अनित्यानन्द-नाशवन्त आनन्द है। इसलिए इसमें रमना छोड़कर सर्वव्यापी परमात्मा राम में रमो, इसमें नित्यानंद की प्राप्ति होगी। योगी पुरुष शरीर का संग छोड़कर चला जाता है। उसको देवदूत और यमदूत आदि कोई भी नहीं पा सकते। वे तो उसी को पा सकते हैं, जो योगी नहीं है। यह (अयोगी) मृत्यु के अधीन होकर मृत्यु-शक्ति केे कारण केवल स्थूल शरीर को ही अपनी इच्छा न रहते हुए भी छोड़ता है। इसका सूक्ष्म, कारण और महाकारण जड़ शरीरों से संग नहीं छूटता है और स्थूल जड़ शरीर में रहने की इच्छा भी नहीं छूटती है। अतएव उसे पुनः पुनः जन्म-द्वारा स्थूल शरीर का संग होता रहेगा और पुनः पुनः मृत्यु के समय उसको यमदूत पातेे रहेंगे। परन्तु योगी पुरुष सत्संग, गुरु-सेवा एवं परमात्मा की प्राप्ति के प्रेम और साधन से कथित सब जड़ शरीरों के भोगों की आसक्ति और इच्छा को उनके दुःखद परिणाम, नश्वरता और मलिनता को जानकर पूर्ण रूप से त्याग देता है। अतएव गुरु और परमात्मा की कृपा से स्व-वश और स्वेच्छा से शरीरों के संग को छोड़ता हुआ जब वह जाता है, तब उसे कोई नहीं पा सकता है। उसके पुनर्जन्म का कारण मिट जाता है और वह परमात्मा को प्राप्त कर परम मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।
-गीता, 8।10

‘जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भक्तियुक्त होकर और योगबल से भौंहों के बीच में अच्छी तरह प्राण को स्थापित करता है, वह उस दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है।’

वह योगी संसार में रहते हुए भी जीवन-काल में विषयासक्ति को त्यागकर इन्द्रियों के घाटों से अपनी चेतन-धारों को खींचता हुआ उन्हें केन्द्रित करता रहता है। इस प्रकार उसकी वृृत्तियों का पूर्ण सिमटाव हो जाता है तथा सिमटाव के स्वाभाविक गुण के कारण उसकी ऊर्ध्वगति होती है। स्थूल शरीर से ऊँचे उठकर वह सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करके रहता है; पुनः उस शरीर में परमात्मा के मिलन के प्रेम से प्रेरित होकर साधना में विशेष बढ़ता जाता है और सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण शरीरों को भी पार कर जाता है। उसको इसकी आवश्यकता नहीं होती है कि कोई महान-से-महान देव अपने से या उसका कोई विशेष दूत उसके लिए कोई विमान लावे और किसी उत्तम लोक में उसको ले जाए। उनसे उसकी योग्यता और महानता विशेष हो जाती है। वे उसके दर्शन भी नहीं पा सकते और उनके विमान की गति से उसकी निजी गति ही-जिससे वह अप्रयास ही विचरण करता है, अत्यन्त तीव्र होती है। वह अन्त में परमात्मा-सर्वगत ब्रह्म में मिलकर सर्वगत ही हो जाता है। तब वह मैत्रेÕयुपनिषद् के इस वाक्यार्थ के तद्रूप हो जाता है।

गन्तव्य देशहीनोऽस्मि गमनादिविवर्जितः ।

‘मुझे चलने के लिए स्थान नहीं है, मुझे चलना इत्यादि नहीं है।’

यह योग की सामर्थ्य है। शरीर के त्याग को ही मरण कहते हैं। उपर्युक्त प्रकार से जीवन-काल में ही वह योगी मृतकवत् रहता है और मृत्यु होने पर उसका प्राण-पुरुष कहाँ चला जाता है, उसको दूसरा नहीं जान सकता। जो ऐसा नहीं होता है, वह बार-बार जन्म लेता और मरता है; इसलिए योगी बनना चाहिए।।3।।

गगन-मण्डल (शून्य या ब्रह्मरन्ध्र) में उलटा कुआँ है, जिसमें अमृत का वासा है। जो गुरु के सहित है, वह पूरा-पूरा पीता है और जो गुरु-सहित नहीं है, वह प्यासा ही चला जाता है।
मनुष्य का मस्तक आकाश-मण्डल है। वह खोपड़ी से ढँका ऊपर से बंद है। मस्तक के भीतर प्रवेश करने के लिए नीचे से द्वार है, इसमें चेतन-रूप अमृत का वास है। जिसने किसी अच्छे गुरु की शरण ली है, वही जी भर अमृत पी सकता है; क्योंकि उसे पीने का उपाय गुरु ही बता सकते हैं। सगुरा या गुरुमुख गुरु-प्रदत्त युक्ति-द्वारा अभ्यास करके उस कुएँ में प्रवेश करता है और कथित अमृत को पूर्ण रूप से पीता है-भरपूर पीता है। जिसने किसी अच्छे गुरु को धारण नहीं किया, वह इस अमृत का पान नहीं कर सकता-प्यासा ही रह जाता है। यह चेतन-अमृत प्रथम ज्योति-रूप में ग्रहण होता है और दृष्टि-द्वारा इसका पान किया जाता है।

विद्वान् समग्रीवशिरो नासाग्र दृग्भ्रूमध्ये ।
शशभृद्बिम्बं पश्यन्नेत्रभ्याममृतं पिवेत् ।।4।।
-शाण्डिल्योपनिषद्

‘विद्वान गला और सिर को सीधा करके नासिका के आगे दृष्टि रखते हुए भौंहों के बीच में चन्द्रमा के बिम्ब को देखते हुए नेत्रें से अमृत का पान करे।’

गोरखनाथजी कहते हैं-‘हे अवधूत! पंच ज्ञानेन्द्रियों की माँगों को रोककर बहिर्प्रसार निवारण कर अपनी आत्मा का आप विचार करो और निश्चिन्त होकर रहो।।5।।’

ऐसा जप मन लगाकर जपो कि सोऽहं-सोऽहं की वाणी के उपयोग के बिना अजपा जप हो जाए। आसन दृढ़ कर ध्यान धरो और दिन-रात ब्रह्मज्ञान का स्मरण करो। इड़ा और पिंगला के मध्यवाली सुषुम्ना नाड़ी में समायी हुई नासाग्र तक जिसका विस्तार है, (प्राणवायु का निवास नासारन्ध्रों से बारह-बारह अँगुल तक माना जाता है, इसी से वायु को द्वादशाघ्गुल भी कहते हैं) ऐसी वायु द्वारा जब इक्कीस हजार छह सौ जप (अजपा जप आठों पहर दिन-रात में निर्विघ्न-अटूट रूप से) हो, तो अनहद ध्वनि स्वयं उत्पन्न होती है, तब सुषुम्ना (बंक नालि) में सूर्य उगता है और अभ्यासी के रोम-रोम में अनहद ध्वनि की तुरही बजती है। जब सुरत या चैतन्य वृत्ति उलटकर बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो पिण्डस्थ छह चक्रों से छूटती हुई सहस्त्रदलकमल में फिर निवास करती है, तब भ्रमरगुफा (ब्रह्मरन्ध्र) में आत्मज्योति का प्रकाश होता है।

स्वस्थ शरीर में इक्कीस हजार छह सौ श्वास एक दिन, एक रात-आठों पहर में चलते हैं। प्रति श्वास से अजपा जप करनेवाले की वृत्ति स्थूल विषयों को छोड़कर अन्तर्मुखी होती है और उसको अच्छी एकाग्रता प्राप्त होती है, तब वह अनहद नाद को अपने आप सुनने लगता है। अनहद नाद तो सदैव होता ही रहता है, पर वह बहिर्वृत्ति और मन की चंचलता के कारण नहीं सुनाई पड़ता है। नाद-श्रवण के अभ्यास को नादानुसंधान, सुरत-शब्द-योग और निर्गुण नाम-भजन वा नाम का ध्यान कहते हैं। इस साधन से मन की एकाग्रता की दृढ़ता तथा सुरत-चेतन-धार की ऊर्ध्वगति होते-होते उसकी पहुँच परमात्मा तक हो जाती है अर्थात् अभ्यासी को मोक्ष-प्राप्त हो जाता है। उपनिषदों में इसका अच्छा गुण-गान है। इस संबंध में नादविन्दूपनिषद् के कुछ श्लोक नीचे दिये जाते हैं-

मकरन्दं पिबन्भृंगो गन्धान्नपेक्षते यथा ।
नादासक्तं सदा चित्तं विषयं न हि कांक्षति ।
बद्धः सुनाद गन्धेन सद्यः संत्यक्त चापलः ।।

‘जिस प्रकार मधुमक्खी मधु को पीती हुई उसकी सुगंध की चिन्ता नहीं करती है, उसी प्रकार जो चित्त नाद में सर्वदा लीन रहता है, वह विषय-चाहना नहीं करता है; क्योंकि वह नाद की मिठास में वशीभूत है तथा अपनी चंचल प्रकृति को त्याग चुका है।

नादग्रहणतश्चित्तमन्तरंग भुजंगमः ।
विस्मृत्य विश्वमेकाग्रः कुत्रचिन्न हि धावति ।।

‘नाग-रूप चित्त नाद का अभ्यास करते-करते पूर्ण रूप से उसमें लीन हो जाता है और सभी विषयों को भूलकर नाद में अपने-आपको एकाग्र करता है।’

मनोमत्तगजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः ।
नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः ।।

‘नाद मदान्ध हाथी-रूप चित्त को, जो विषयों की आनन्द-वाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है।’

नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते ।
अन्तरंगसमुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा ।।

‘मृग-रूपी चित्त को बाँधने के लिए यह नाद जाल का काम करता है। समुद्र-तरंग-रूपी चित्त के लिए नाद तट का काम करता है।’

नास्ति नादात्परो मंत्रे न देवः स्वात्मनः परः ।
नानुसन्धेः परा पूजा न हि तृप्ते परं सुखम् ।।
-योगशिखोपनिषद्, अ0 2

‘नाद से बढ़कर कोई मंत्र नहीं है, अपनी आत्मा से बढ़कर कोई देवता नहीं है, नाद वा ब्रह्म की अनुसंधि (अन्वेषण वा खोज) से बढ़कर कोई पूजा नहीं है तथा तृप्ति से बढ़कर कोई सुख नहीं है।’

सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा ।
नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्रज्यमिच्छता ।।
-वराहोपनिषद्, अ0 2

‘योग-साम्राज्य की इच्छा रखनेवाले मनुष्यों को सब चिन्ता त्यागकर सावधान होकर नाद की ही खोज करनी चाहिए।’

बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् ।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ।।
-योगशिखोपनिषद्

‘परम विन्दु ही बीजाक्षर है। उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अविनाशी ब्रह्म) में लय हो जाता है, तब निःशब्द परम पद है।’

अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते ।।
-योगशिखोपनिषद्, अ0 3
‘अक्षर (अविनाशी) परम नाद को शब्दब्रह्म कहते हैं।’
द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत् ।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।।
-ब्रह्मविन्दूपनिषद्

‘दो विद्याएँ समझनी चाहिए; एक तो शब्दब्रह्म और दूसरी परब्रह्म। शब्दब्रह्म में जो निपुण हो जाता है, वह परब्रह्म को प्राप्त करता है।’

शब्द खोजि मन वश करै, सहज योग है येहि ।
सत्त शब्द निज सार है, यह तो झूठी देहि ।।
यही बड़ाई शब्द की, जैसे चुम्बक भाय ।
बिना शब्द नहिं ऊबरै, केता करै उपाय ।।
-संत कबीर साहब
‘साकत नरि सबद सुरति किउ पाइअै ।
सबद सुरति बिनु आइअै जाइअै ।।’
‘धुनि अनंदु अनाहदु बाजै ।
गुरि सबदि निरंजनु पाइआ ।।’
-गुरु नानकसाहब

केवल अजपा जाप के द्वारा ही अनाहत नाद नहीं सुना जा सकता, बल्कि ध्यानविन्दूपनिषद् से उद्धृत श्लोकों से यह विदित होता है कि इसके लिए विन्दुध्यान भी एक विशेष उत्तम साधन है। विन्दु-ध्यान दृष्टियोग के द्वारा किया जाता है। देखने की शक्ति को दृष्टि कहते हैैं। दृष्टियोग में केवल इसी शक्ति का प्रयोग होना चाहिए। आँख, डीम और पुतलियों को किसी प्रकार का कष्ट नहीं हो, इसके लिए सावधान रहना चाहिए। इसके साधन की क्रिया किसी अच्छे गुरु की सेवा करके जान लेनी चाहिए।।6।।

बहुत खाने से मृत्यु होती है तथा न खाने से भी मृत्यु होती है। गोरखनाथजी कहते हैं-‘हे पुत्र ! संयम करनेवाले ही-मध्यम मार्ग-न अधिक खाना और न कम खाना का अनुसरण करनेवाले दुःख से छूटते हैं।।7।। अघाकर भर पेट मत खाओ, भूखे मत मरो, दिन-रात ब्रह्मज्योति का भेद या रहस्य लेते रहो अर्थात् ऐसी गुप्त युक्ति का अभ्यास करते रहो, जिससे ब्रह्म-ज्योति प्राप्त होती है।।8।।’

गोरखनाथजी कहते हैं-‘शरीर के साथ हठ या जिद्द मत करो और न बेकाम-निठल्ले बैठो रहो। या मार्ग पर चलो, या गुदड़ी सीओ, या ध्यान करो, या ज्ञान का कथन करो-इस भाँति सर्वदा अपने को संयम में रखो।’

हड़बड़ाकर मत बोलो, उतावलेपन से मत चलो। मार्ग चलने में धीरे-धीरे पैर रखो। अहंकार मत करो। सहज स्वाभाविक स्थिति में रहो-गोरखनाथजी महाराज ऐसा कहते हैं।

गोरखनाथजी कहते हैं-‘हे अवधूत! सुनो, संसार में ऐसे (तमाशबीन बनकर) रहो-आँख से देखो, कान से सुनो; पर मुख से कुछ मत कहो (स्वयं उस प्रप×च में मत पड़ो)।’

गोरखनाथजी कहते हैं-‘तुम होश-हवास (सुध-बुध) रखो, हठ करके तर्क (बहस) मत करो। यह संसार काँटे की बाड़ी है, दृष्टि से देखकर पैर रखो अर्थात् समझ-बूझकर व्यवहार करो। मन में रहो अर्थात् मौन रहो, भेद मत कहो, मीठा वचन बोलो। अबुद्ध लोग अत्यन्त क्रोधित होंगे, तुम अपने को ठण्ढा-नम्र बनाये रखना। 

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।। मूल पद्य ।।
हँसिबा खेलिबा धरिबा ध्यान, अहनिसि कथिबा ब्रह्मज्ञान ।
हँसै खेलै न करै मन भंग, ते निहचल सदा नाथ के संग ।।
अजपा जपै सुंनि मन धरै, पाँचो इन्द्रिय निग्रह करै ।
ब्रह्म अगनि में जो होमे काया, तास महादेव बन्दे पाया ।।
धन जोवन की करै न आस, चित्त न राखै कामिनी पास ।
नाद-बिन्द जाके घटि जरै, ताकी सेवा पारबति करै ।।
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पद्यार्थ-हँसो, खेलो, ध्यान करो और दिन-रात ब्रह्मज्ञान का कथन करो। जो हँसे, खेले; परन्तु मन को भंग न करे अर्थात् ध्येय तत्त्व में मन को लगाकर रखे, वे स्थिर होकर सदा नाथ के संग में रह सकते हैं। ‘अजपा का जप करे, मन को शून्य में धरे’ पाँचो ज्ञानेन्द्रियों को रोके रहे और ‘जो ब्रह्माग्नि में काया को होमे’ महादेव तिनके पैर का वन्दन करे। धन और जवानी की आशा नहीं करे, अपने चित्त को स्त्रियों के पास में नहीं रखे। नाद और विन्दु जिनके घट में जलते रहते हैं अर्थात् जिनके घट में ज्योतिर्विन्दु और ब्रह्मनाद की अनुभूतियाँ होती रहती हैं, उनकी सेवा पार्वती करे।

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।। गोरखनाथ की वाणी समाप्त ।। 
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परिचय

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