दोहा
मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास,
ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास ||९१(क) ||
काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत,
धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत ||९१(ख) ||
चौपाई
अगाध सत कोटि पताला, समन कोटि सत सरिस कराला ||
तीरथ अमित कोटि सम पावन, नाम अखिल अघ पूग नसावन ||
हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा, सिंधु कोटि सत सम गंभीरा ||
कामधेनु सत कोटि समाना, सकल काम दायक भगवाना ||
सारद कोटि अमित चतुराई, बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई ||
बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता, रुद्र कोटि सत सम संहर्ता ||
धनद कोटि सत सम धनवाना, माया कोटि प्रपंच निधाना ||
भार धरन सत कोटि अहीसा, निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा ||
छंद
निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै,
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै ||
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं,
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं ||
दोहा
रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ,
संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ ||९२(क) ||
सो -भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन,
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन ||९२(ख) ||
चौपाई
सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए, हरषित खगपति पंख फुलाए ||
नयन नीर मन अति हरषाना, श्रीरघुपति प्रताप उर आना ||
पाछिल मोह समुझि पछिताना, ब्रह्म अनादि मनुज करि माना ||
पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा, जानि राम सम प्रेम बढ़ावा ||
गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई, जौं बिरंचि संकर सम होई ||
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता, दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता ||
तव सरूप गारुड़ि रघुनायक, मोहि जिआयउ जन सुखदायक ||
तव प्रसाद मम मोह नसाना, राम रहस्य अनूपम जाना ||
दोहा
ताहि प्रसंसि बिबिध बिधि सीस नाइ कर जोरि,
बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि ||९३(क) ||
प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि,
कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि ||९३(ख) ||
चौपाई
तुम्ह सर्बग्य तन्य तम पारा, सुमति सुसील सरल आचारा ||
ग्यान बिरति बिग्यान निवासा, रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा ||
कारन कवन देह यह पाई, तात सकल मोहि कहहु बुझाई ||
राम चरित सर सुंदर स्वामी, पायहु कहाँ कहहु नभगामी ||
नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं, महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं ||
मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई, सोउ मोरें मन संसय अहई ||
अग जग जीव नाग नर देवा, नाथ सकल जगु काल कलेवा ||
अंड कटाह अमित लय कारी, कालु सदा दुरतिक्रम भारी ||
सोरठा
तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन,
मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल ||९४(क) ||
दोहा
प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग,
कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग ||९४(ख) ||
चौपाई
गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा, बोलेउ उमा परम अनुरागा ||
धन्य धन्य तव मति उरगारी, प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी ||
सुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई, बहुत जनम कै सुधि मोहि आई ||
सब निज कथा कहउँ मैं गाई, तात सुनहु सादर मन लाई ||
जप तप मख सम दम ब्रत दाना, बिरति बिबेक जोग बिग्याना ||
सब कर फल रघुपति पद प्रेमा, तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा ||
एहि तन राम भगति मैं पाई, ताते मोहि ममता अधिकाई ||
जेहि तें कछु निज स्वारथ होई, तेहि पर ममता कर सब कोई ||
सोरठा
पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं,
अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित ||९५(क) ||
पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर,
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम ||९५(ख) ||
चौपाई
स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा, मन क्रम बचन राम पद नेहा ||
सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा, जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा ||
राम बिमुख लहि बिधि सम देही, कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही ||
राम भगति एहिं तन उर जामी, ताते मोहि परम प्रिय स्वामी ||
तजउँ न तन निज इच्छा मरना, तन बिनु बेद भजन नहिं बरना ||
प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा, राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा ||
नाना जनम कर्म पुनि नाना, किए जोग जप तप मख दाना ||
कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं, मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं ||
देखेउँ करि सब करम गोसाई, सुखी न भयउँ अबहिं की नाई ||
सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी, सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी ||
दोहा
प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस,
सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस ||९६(क) ||
पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल ||
नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल ||९६(ख) ||
चौपाई
तेहि कलिजुग कोसलपुर जाई, जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई ||
सिव सेवक मन क्रम अरु बानी, आन देव निंदक अभिमानी ||
धन मद मत्त परम बाचाला, उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला ||
जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी, तदपि न कछु महिमा तब जानी ||
अब जाना मैं अवध प्रभावा, निगमागम पुरान अस गावा ||
कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई, राम परायन सो परि होई ||
अवध प्रभाव जान तब प्रानी, जब उर बसहिं रामु धनुपानी ||
सो कलिकाल कठिन उरगारी, पाप परायन सब नर नारी ||
दोहा
कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ,
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ ||९७(क) ||
भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म,
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म ||९७(ख) ||
चौपाई
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी, श्रुति बिरोध रत सब नर नारी ||
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन, कोउ नहिं मान निगम अनुसासन ||
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा, पंडित सोइ जो गाल बजावा ||
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई, ता कहुँ संत कहइ सब कोई ||
सोइ सयान जो परधन हारी, जो कर दंभ सो बड़ आचारी ||
जौ कह झूँठ मसखरी जाना, कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना ||
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी, कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी ||
जाकें नख अरु जटा बिसाला, सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला ||
दोहा
असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं,
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं ||९८(क) ||
सो -जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ,
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ ||९८(ख) ||
चौपाई
नारि बिबस नर सकल गोसाई, नाचहिं नट मर्कट की नाई ||
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना, मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना ||
सब नर काम लोभ रत क्रोधी, देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी ||
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी, भजहिं नारि पर पुरुष अभागी ||
सौभागिनीं बिभूषन हीना, बिधवन्ह के सिंगार नबीना ||
गुर सिष बधिर अंध का लेखा, एक न सुनइ एक नहिं देखा ||
हरइ सिष्य धन सोक न हरई, सो गुर घोर नरक महुँ परई ||
मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं, उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं ||
दोहा
ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात,
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात ||९९(क) ||
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि,
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि ||९९(ख) ||
चौपाई
पर त्रिय लंपट कपट सयाने, मोह द्रोह ममता लपटाने ||
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर, देखा में चरित्र कलिजुग कर ||
आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं, जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं ||
कल्प कल्प भरि एक एक नरका, परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका ||
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा, स्वपच किरात कोल कलवारा ||
नारि मुई गृह संपति नासी, मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी ||
ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं, उभय लोक निज हाथ नसावहिं ||
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी, निराचार सठ बृषली स्वामी ||
सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना, बैठि बरासन कहहिं पुराना ||
सब नर कल्पित करहिं अचारा, जाइ न बरनि अनीति अपारा ||
दोहा
भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग,
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग ||१००(क) ||
श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक,
तेहि न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक ||१००(ख) ||
चौपाई
बहु दाम सँवारहिं धाम जती, बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती ||
तपसी धनवंत दरिद्र गृही, कलि कौतुक तात न जात कही ||
कुलवंति निकारहिं नारि सती, गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती ||
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं, अबलानन दीख नहीं जब लौं ||
ससुरारि पिआरि लगी जब तें, रिपरूप कुटुंब भए तब तें ||
नृप पाप परायन धर्म नहीं, करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं ||
धनवंत कुलीन मलीन अपी, द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी ||
नहिं मान पुरान न बेदहि जो, हरि सेवक संत सही कलि सो,
कबि बृंद उदार दुनी न सुनी, गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी ||
कलि बारहिं बार दुकाल परै, बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै ||
दोहा
सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड,
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड ||१०१(क) ||
तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान,
देव न बरषहिं धरनीं बए न जामहिं धान ||१०१(ख) ||
छंद
अबला कच भूषन भूरि छुधा, धनहीन दुखी ममता बहुधा ||
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता, मति थोरि कठोरि न कोमलता ||१ ||
नर पीड़ित रोग न भोग कहीं, अभिमान बिरोध अकारनहीं ||
लघु जीवन संबतु पंच दसा, कलपांत न नास गुमानु असा ||२ ||
कलिकाल बिहाल किए मनुजा, नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा,
नहिं तोष बिचार न सीतलता, सब जाति कुजाति भए मगता ||३ ||
इरिषा परुषाच्छर लोलुपता, भरि पूरि रही समता बिगता ||
सब लोग बियोग बिसोक हुए, बरनाश्रम धर्म अचार गए ||४ ||
दम दान दया नहिं जानपनी, जड़ता परबंचनताति घनी ||
तनु पोषक नारि नरा सगरे, परनिंदक जे जग मो बगरे ||५ ||
दोहा
सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार,
गुनउँ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार ||१०२(क) ||
कृतजुग त्रेता द्वापर पूजा मख अरु जोग,
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग ||१०२(ख) ||
चौपाई
कृतजुग सब जोगी बिग्यानी, करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी ||
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं, प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं ||
द्वापर करि रघुपति पद पूजा, नर भव तरहिं उपाय न दूजा ||
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा, गावत नर पावहिं भव थाहा ||
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना, एक अधार राम गुन गाना ||
सब भरोस तजि जो भज रामहि, प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि ||
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं, नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं ||
कलि कर एक पुनीत प्रतापा, मानस पुन्य होहिं नहिं पापा ||
दोहा
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास,
गाइ राम गुन गन बिमलँ भव तर बिनहिं प्रयास ||१०३(क) ||
प्रगट चारि पद धर्म के कलिल महुँ एक प्रधान,
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान ||१०३(ख) ||
चौपाई
नित जुग धर्म होहिं सब केरे, हृदयँ राम माया के प्रेरे ||
सुद्ध सत्व समता बिग्याना, कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना ||
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा, सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा ||
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस, द्वापर धर्म हरष भय मानस ||
तामस बहुत रजोगुन थोरा, कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा ||
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं, तजि अधर्म रति धर्म कराहीं ||
काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही, रघुपति चरन प्रीति अति जाही ||
नट कृत बिकट कपट खगराया, नट सेवकहि न ब्यापइ माया ||
दोहा
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं,
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं ||१०४(क) ||
तेहि कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस,
परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस ||१०४(ख) ||
चौपाई
गयउँ उजेनी सुनु उरगारी, दीन मलीन दरिद्र दुखारी ||
गएँ काल कछु संपति पाई, तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई ||
बिप्र एक बैदिक सिव पूजा, करइ सदा तेहि काजु न दूजा ||
परम साधु परमारथ बिंदक, संभु उपासक नहिं हरि निंदक ||
तेहि सेवउँ मैं कपट समेता, द्विज दयाल अति नीति निकेता ||
बाहिज नम्र देखि मोहि साईं, बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं ||
संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा, सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हा ||
जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई, हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई ||
दोहा
मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह,
हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह ||१०५(क) ||
सोरठा
गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम,
मोहि उपजइ अति क्रोध दंभिहि नीति कि भावई ||१०५(ख) ||
चौपाई
एक बार गुर लीन्ह बोलाई, मोहि नीति बहु भाँति सिखाई ||
सिव सेवा कर फल सुत सोई, अबिरल भगति राम पद होई ||
रामहि भजहिं तात सिव धाता, नर पावँर कै केतिक बाता ||
जासु चरन अज सिव अनुरागी, तातु द्रोहँ सुख चहसि अभागी ||
हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊ, सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ ||
अधम जाति मैं बिद्या पाएँ, भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ ||
मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती, गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती ||
अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा, पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा ||
जेहि ते नीच बड़ाई पावा, सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा ||
धूम अनल संभव सुनु भाई, तेहि बुझाव घन पदवी पाई ||
रज मग परी निरादर रहई, सब कर पद प्रहार नित सहई ||
मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई, पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई ||
सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा, बुध नहिं करहिं अधम कर संगा ||
कबि कोबिद गावहिं असि नीती, खल सन कलह न भल नहिं प्रीती ||
उदासीन नित रहिअ गोसाईं, खल परिहरिअ स्वान की नाईं ||
मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई, गुर हित कहइ न मोहि सोहाई ||
दोहा
एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम,
गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम ||१०६(क) ||
सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस,
अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस ||१०६(ख) ||
चौपाई
मंदिर माझ भई नभ बानी, रे हतभाग्य अग्य अभिमानी ||
जद्यपि तव गुर कें नहिं क्रोधा, अति कृपाल चित सम्यक बोधा ||
तदपि साप सठ दैहउँ तोही, नीति बिरोध सोहाइ न मोही ||
जौं नहिं दंड करौं खल तोरा, भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा ||
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं, रौरव नरक कोटि जुग परहीं ||
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा, अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा ||
बैठ रहेसि अजगर इव पापी, सर्प होहि खल मल मति ब्यापी ||
महा बिटप कोटर महुँ जाई, रहु अधमाधम अधगति पाई ||
दोहा
हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप ||
कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप ||१०७(क) ||
करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि,
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि ||१०७(ख) ||
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं, विंभुं ब्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं,
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरींह, चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं ||
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं, गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं ||
करालं महाकाल कालं कृपालं, गुणागार संसारपारं नतोऽहं ||
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं ||
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा, लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा ||
चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं ||
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ||
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं, अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं ||
त्रयःशूल निर्मूलनं शूलपाणिं, भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं ||
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी, सदा सज्जनान्ददाता पुरारी ||
चिदानंदसंदोह मोहापहारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ||
न यावद उमानाथ पादारविन्दं, भजंतीह लोके परे वा नराणां ||
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं, प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ||
न जानामि योगं जपं नैव पूजां, नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं ||
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं, प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ||
श्लोक
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये,
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ||९ ||
दोहा
सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि ब्रिप्र अनुरागु,
पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर बर मागु ||१०८(क) ||
जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु,
निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु ||१०८(ख) ||
तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान,
तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपा सिंधु भगवान ||१०८(ग) ||
संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल,
साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल ||१०८(घ) ||
चौपाई
एहि कर होइ परम कल्याना, सोइ करहु अब कृपानिधाना ||
बिप्रगिरा सुनि परहित सानी, एवमस्तु इति भइ नभबानी ||
जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा, मैं पुनि दीन्ह कोप करि सापा ||
तदपि तुम्हार साधुता देखी, करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी ||
छमासील जे पर उपकारी, ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी ||
मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि, जन्म सहस अवस्य यह पाइहि ||
जनमत मरत दुसह दुख होई, अहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई ||
कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना, सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना ||
रघुपति पुरीं जन्म तब भयऊ, पुनि तैं मम सेवाँ मन दयऊ ||
पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें, राम भगति उपजिहि उर तोरें ||
सुनु मम बचन सत्य अब भाई, हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई ||
अब जनि करहि बिप्र अपमाना, जानेहु संत अनंत समाना ||
इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला, कालदंड हरि चक्र कराला ||
जो इन्ह कर मारा नहिं मरई, बिप्रद्रोह पावक सो जरई ||
अस बिबेक राखेहु मन माहीं, तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ||
औरउ एक आसिषा मोरी, अप्रतिहत गति होइहि तोरी ||
दोहा
सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि,
मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि ||१०९(क) ||
प्रेरित काल बिधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल,
पुनि प्रयास बिनु सो तनु जजेउँ गएँ कछु काल ||१०९(ख) ||
जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान,
जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान ||१०९(ग) ||
सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस,
एहि बिधि धरेउँ बिबिध तनु ग्यान न गयउ खगेस ||१०९(घ) ||
चौपाई
त्रिजग देव नर जोइ तनु धरउँ, तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ ||
एक सूल मोहि बिसर न काऊ, गुर कर कोमल सील सुभाऊ ||
चरम देह द्विज कै मैं पाई, सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई ||
खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला, करउँ सकल रघुनायक लीला ||
प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा, समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा ||
मन ते सकल बासना भागी, केवल राम चरन लय लागी ||
कहु खगेस अस कवन अभागी, खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी ||
प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई, हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई ||
भए कालबस जब पितु माता, मैं बन गयउँ भजन जनत्राता ||
जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ, आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ ||
बूझत तिन्हहि राम गुन गाहा, कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा ||
सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा, अब्याहत गति संभु प्रसादा ||
छूटी त्रिबिध ईषना गाढ़ी, एक लालसा उर अति बाढ़ी ||
राम चरन बारिज जब देखौं, तब निज जन्म सफल करि लेखौं ||
जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई, ईस्वर सर्ब भूतमय अहई ||
निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई, सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई ||
दोहा
गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग,
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग ||११०(क) ||
मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन,
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन ||११०(ख) ||
सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज,
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज ||११०(ग) ||
तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान,
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान ||११०(घ) ||
चौपाई
तब मुनिष रघुपति गुन गाथा, कहे कछुक सादर खगनाथा ||
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानि, मोहि परम अधिकारी जानी ||
लागे करन ब्रह्म उपदेसा, अज अद्वेत अगुन हृदयेसा ||
अकल अनीह अनाम अरुपा, अनुभव गम्य अखंड अनूपा ||
मन गोतीत अमल अबिनासी, निर्बिकार निरवधि सुख रासी ||
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा, बारि बीचि इव गावहि बेदा ||
बिबिध भाँति मोहि मुनि समुझावा, निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा ||
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा, सगुन उपासन कहहु मुनीसा ||
राम भगति जल मम मन मीना, किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना ||
सोइ उपदेस कहहु करि दाया, निज नयनन्हि देखौं रघुराया ||
भरि लोचन बिलोकि अवधेसा, तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा ||
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा, खंडि सगुन मत अगुन निरूपा ||
तब मैं निर्गुन मत कर दूरी, सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी ||
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा, मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा ||
सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ, उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ ||
अति संघरषन जौं कर कोई, अनल प्रगट चंदन ते होई ||
दोहा
बारंबार सकोप मुनि करइ निरुपन ग्यान,
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिध अनुमान ||१११(क) ||
क्रोध कि द्वेतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान,
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान ||१११(ख) ||
चौपाई
कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें, तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें ||
परद्रोही की होहिं निसंका, कामी पुनि कि रहहिं अकलंका ||
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें, कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें ||
काहू सुमति कि खल सँग जामी, सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी ||
भव कि परहिं परमात्मा बिंदक, सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक ||
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें, अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें ||
पावन जस कि पुन्य बिनु होई, बिनु अघ अजस कि पावइ कोई ||
लाभु कि किछु हरि भगति समाना, जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना ||
हानि कि जग एहि सम किछु भाई, भजिअ न रामहि नर तनु पाई ||
अघ कि पिसुनता सम कछु आना, धर्म कि दया सरिस हरिजाना ||
एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ, मुनि उपदेस न सादर सुनऊँ ||
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा, तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा ||
मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि, उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि ||
सत्य बचन बिस्वास न करही, बायस इव सबही ते डरही ||
सठ स्वपच्छ तब हृदयँ बिसाला, सपदि होहि पच्छी चंडाला ||
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई, नहिं कछु भय न दीनता आई ||
दोहा
तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ,
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ ||११२(क) ||
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ||
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ||११२(ख) ||
चौपाई
सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन, उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन ||
कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी, लीन्हि प्रेम परिच्छा मोरी ||
मन बच क्रम मोहि निज जन जाना, मुनि मति पुनि फेरी भगवाना ||
रिषि मम महत सीलता देखी, राम चरन बिस्वास बिसेषी ||
अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई, सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई ||
मम परितोष बिबिध बिधि कीन्हा, हरषित राममंत्र तब दीन्हा ||
बालकरूप राम कर ध्याना, कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना ||
सुंदर सुखद मिहि अति भावा, सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा ||
मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा, रामचरितमानस तब भाषा ||
सादर मोहि यह कथा सुनाई, पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई ||
रामचरित सर गुप्त सुहावा, संभु प्रसाद तात मैं पावा ||
तोहि निज भगत राम कर जानी, ताते मैं सब कहेउँ बखानी ||
राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं, कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं ||
मुनि मोहि बिबिध भाँति समुझावा, मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा ||
निज कर कमल परसि मम सीसा, हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा ||
राम भगति अबिरल उर तोरें, बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें ||
दोहा
सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान,
कामरूप इच्धामरन ग्यान बिराग निधान ||११३(क) ||
जेंहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत,
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत ||११३(ख) ||
चौपाई
काल कर्म गुन दोष सुभाऊ, कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहि काऊ ||
राम रहस्य ललित बिधि नाना, गुप्त प्रगट इतिहास पुराना ||
बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ, नित नव नेह राम पद होऊ ||
जो इच्छा करिहहु मन माहीं, हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं ||
सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा, ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा ||
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी, यह मम भगत कर्म मन बानी ||
सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ, प्रेम मगन सब संसय गयऊ ||
करि बिनती मुनि आयसु पाई, पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई ||
हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ, प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ ||
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा, बीते कलप सात अरु बीसा ||
करउँ सदा रघुपति गुन गाना, सादर सुनहिं बिहंग सुजाना ||
जब जब अवधपुरीं रघुबीरा, धरहिं भगत हित मनुज सरीरा ||
तब तब जाइ राम पुर रहऊँ, सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ ||
पुनि उर राखि राम सिसुरूपा, निज आश्रम आवउँ खगभूपा ||
कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई, काग देह जेहिं कारन पाई ||
कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी, राम भगति महिमा अति भारी ||
दोहा
ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह,
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह ||११४(क) ||
।। मासपारायण, उन्तीसवाँ विश्राम ।।
दोहा
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप,
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप ||११४(ख) ||
चौपाई
जे असि भगति जानि परिहरहीं, केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं ||
ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी, खोजत आकु फिरहिं पय लागी ||
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई, जे सुख चाहहिं आन उपाई ||
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी, पैरि पार चाहहिं जड़ करनी ||
सुनि भसुंडि के बचन भवानी, बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी ||
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं, संसय सोक मोह भ्रम नाहीं ||
सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा, तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा ||
एक बात प्रभु पूँछउँ तोही, कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही ||
कहहिं संत मुनि बेद पुराना, नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना ||
सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं, नहिं आदरेहु भगति की नाईं ||
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता, सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता ||
सुनि उरगारि बचन सुख माना, सादर बोलेउ काग सुजाना ||
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा, उभय हरहिं भव संभव खेदा ||
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर, सावधान सोउ सुनु बिहंगबर ||
ग्यान बिराग जोग बिग्याना, ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना ||
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती, अबला अबल सहज जड़ जाती ||
दोहा
पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर ||
न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर ||११५(क) ||
सो -सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि,
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट ||११५(ख) ||
चौपाई
इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ, बेद पुरान संत मत भाषउँ ||
मोह न नारि नारि कें रूपा, पन्नगारि यह रीति अनूपा ||
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ, नारि बर्ग जानइ सब कोऊ ||
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी, माया खलु नर्तकी बिचारी ||
भगतिहि सानुकूल रघुराया, ताते तेहि डरपति अति माया ||
राम भगति निरुपम निरुपाधी, बसइ जासु उर सदा अबाधी ||
तेहि बिलोकि माया सकुचाई, करि न सकइ कछु निज प्रभुताई ||
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी, जाचहीं भगति सकल सुख खानी ||
दोहा
यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ,
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ ||११६(क) ||
औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन,
जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन ||११६(ख) ||
चौपाई
सुनहु तात यह अकथ कहानी, समुझत बनइ न जाइ बखानी ||
ईस्वर अंस जीव अबिनासी, चेतन अमल सहज सुख रासी ||
सो मायाबस भयउ गोसाईं, बँध्यो कीर मरकट की नाई ||
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई, जदपि मृषा छूटत कठिनई ||
तब ते जीव भयउ संसारी, छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी ||
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई, छूट न अधिक अधिक अरुझाई ||
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी, ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी ||
अस संजोग ईस जब करई, तबहुँ कदाचित सो निरुअरई ||
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई, जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई ||
जप तप ब्रत जम नियम अपारा, जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा ||
तेइ तृन हरित चरै जब गाई, भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई ||
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा, निर्मल मन अहीर निज दासा ||
परम धर्ममय पय दुहि भाई, अवटै अनल अकाम बिहाई ||
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै, धृति सम जावनु देइ जमावै ||
मुदिताँ मथैं बिचार मथानी, दम अधार रजु सत्य सुबानी ||
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता, बिमल बिराग सुभग सुपुनीता ||
दोहा
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ,
बुद्धि सिरावैं ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ ||११७(क) ||
तब बिग्यानरूपिनि बुद्धि बिसद घृत पाइ,
चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ ||११७(ख) ||
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि,
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि ||११७(ग) ||
सोरठा
एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय ||
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब ||११७(घ) ||
चौपाई
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा, दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा ||
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा, तब भव मूल भेद भ्रम नासा ||
प्रबल अबिद्या कर परिवारा, मोह आदि तम मिटइ अपारा ||
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा, उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा ||
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई, तब यह जीव कृतारथ होई ||
छोरत ग्रंथि जानि खगराया, बिघ्न अनेक करइ तब माया ||
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई, बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई ||
कल बल छल करि जाहिं समीपा, अंचल बात बुझावहिं दीपा ||
होइ बुद्धि जौं परम सयानी, तिन्ह तन चितव न अनहित जानी ||
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी, तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी ||
इंद्रीं द्वार झरोखा नाना, तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना ||
आवत देखहिं बिषय बयारी, ते हठि देही कपाट उघारी ||
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई, तबहिं दीप बिग्यान बुझाई ||
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा, बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा ||
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई, बिषय भोग पर प्रीति सदाई ||
बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी, तेहि बिधि दीप को बार बहोरी ||
दोहा
तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावइ संसृति क्लेस,
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस ||११८(क) ||
कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक,
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक ||११८(ख) ||
चौपाई
ग्यान पंथ कृपान कै धारा, परत खगेस होइ नहिं बारा ||
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई, सो कैवल्य परम पद लहई ||
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद, संत पुरान निगम आगम बद ||
राम भजत सोइ मुकुति गोसाई, अनइच्छित आवइ बरिआई ||
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई, कोटि भाँति कोउ करै उपाई ||
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई, रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ||
अस बिचारि हरि भगत सयाने, मुक्ति निरादर भगति लुभाने ||
भगति करत बिनु जतन प्रयासा, संसृति मूल अबिद्या नासा ||
भोजन करिअ तृपिति हित लागी, जिमि सो असन पचवै जठरागी ||
असि हरिभगति सुगम सुखदाई, को अस मूढ़ न जाहि सोहाई ||
दोहा
सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि ||
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि ||११९(क) ||
जो चेतन कहँ ज़ड़ करइ ज़ड़हि करइ चैतन्य,
अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य ||११९(ख) ||
चौपाई
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई, सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई ||
राम भगति चिंतामनि सुंदर, बसइ गरुड़ जाके उर अंतर ||
परम प्रकास रूप दिन राती, नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती ||
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा, लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ||
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई, हारहिं सकल सलभ समुदाई ||
खल कामादि निकट नहिं जाहीं, बसइ भगति जाके उर माहीं ||
गरल सुधासम अरि हित होई, तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई ||
ब्यापहिं मानस रोग न भारी, जिन्ह के बस सब जीव दुखारी ||
राम भगति मनि उर बस जाकें, दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें ||
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं, जे मनि लागि सुजतन कराहीं ||
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई, राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई ||
सुगम उपाय पाइबे केरे, नर हतभाग्य देहिं भटमेरे ||
पावन पर्बत बेद पुराना, राम कथा रुचिराकर नाना ||
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी, ग्यान बिराग नयन उरगारी ||
भाव सहित खोजइ जो प्रानी, पाव भगति मनि सब सुख खानी ||
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा, राम ते अधिक राम कर दासा ||
राम सिंधु घन सज्जन धीरा, चंदन तरु हरि संत समीरा ||
सब कर फल हरि भगति सुहाई, सो बिनु संत न काहूँ पाई ||
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा, राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा ||
दोहा
ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं,
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं ||१२०(क) ||
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि,
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि ||१२०(ख) ||
चौपाई
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ, जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ ||
नाथ मोहि निज सेवक जानी, सप्त प्रस्न कहहु बखानी ||
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा, सब ते दुर्लभ कवन सरीरा ||
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी, सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी ||
संत असंत मरम तुम्ह जानहु, तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु ||
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला, कहहु कवन अघ परम कराला ||
मानस रोग कहहु समुझाई, तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई ||
तात सुनहु सादर अति प्रीती, मैं संछेप कहउँ यह नीती ||
नर तन सम नहिं कवनिउ देही, जीव चराचर जाचत तेही ||
नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी, ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ||
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर, होहिं बिषय रत मंद मंद तर ||
काँच किरिच बदलें ते लेही, कर ते डारि परस मनि देहीं ||
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं, संत मिलन सम सुख जग नाहीं ||
पर उपकार बचन मन काया, संत सहज सुभाउ खगराया ||
संत सहहिं दुख परहित लागी, परदुख हेतु असंत अभागी ||
भूर्ज तरू सम संत कृपाला, परहित निति सह बिपति बिसाला ||
सन इव खल पर बंधन करई, खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई ||
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी, अहि मूषक इव सुनु उरगारी ||
पर संपदा बिनासि नसाहीं, जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं ||
दुष्ट उदय जग आरति हेतू, जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ||
संत उदय संतत सुखकारी, बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी ||
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा, पर निंदा सम अघ न गरीसा ||
हर गुर निंदक दादुर होई, जन्म सहस्त्र पाव तन सोई ||
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि, जग जनमइ बायस सरीर धरि ||
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी, रौरव नरक परहिं ते प्रानी ||
होहिं उलूक संत निंदा रत, मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत ||
सब के निंदा जे जड़ करहीं, ते चमगादुर होइ अवतरहीं ||
सुनहु तात अब मानस रोगा, जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा ||
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला, तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला ||
काम बात कफ लोभ अपारा, क्रोध पित्त नित छाती जारा ||
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई, उपजइ सन्यपात दुखदाई ||
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना, ते सब सूल नाम को जाना ||
ममता दादु कंडु इरषाई, हरष बिषाद गरह बहुताई ||
पर सुख देखि जरनि सोइ छई, कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई ||
अहंकार अति दुखद डमरुआ, दंभ कपट मद मान नेहरुआ ||
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी, त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी ||
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका, कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका ||
दोहा
एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि,
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि ||१२१(क) ||
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान,
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ||१२१(ख) ||
चौपाई
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी, सोक हरष भय प्रीति बियोगी ||
मानक रोग कछुक मैं गाए, हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए ||
जाने ते छीजहिं कछु पापी, नास न पावहिं जन परितापी ||
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे, मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे ||
राम कृपाँ नासहि सब रोगा, जौं एहि भाँति बनै संयोगा ||
सदगुर बैद बचन बिस्वासा, संजम यह न बिषय कै आसा ||
रघुपति भगति सजीवन मूरी, अनूपान श्रद्धा मति पूरी ||
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं, नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं ||
जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई, जब उर बल बिराग अधिकाई ||
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई, बिषय आस दुर्बलता गई ||
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई, तब रह राम भगति उर छाई ||
सिव अज सुक सनकादिक नारद, जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद ||
सब कर मत खगनायक एहा, करिअ राम पद पंकज नेहा ||
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं, रघुपति भगति बिना सुख नाहीं ||
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा, बंध्या सुत बरु काहुहि मारा ||
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला, जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ||
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना, बरु जामहिं सस सीस बिषाना ||
अंधकारु बरु रबिहि नसावै, राम बिमुख न जीव सुख पावै ||
हिम ते अनल प्रगट बरु होई, बिमुख राम सुख पाव न कोई ||
दोहा
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल,
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल ||१२२(क) ||
मसकहि करइ बिंरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन,
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन ||१२२(ख) ||
श्लोक
विनिच्श्रितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे,
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ||१२२(ग) ||
चौपाई
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा, ब्यास समास स्वमति अनुरुपा ||
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी, राम भजिअ सब काज बिसारी ||
प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही, मोहि से सठ पर ममता जाही ||
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा, नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा ||
पूछिहुँ राम कथा अति पावनि, सुक सनकादि संभु मन भावनि ||
सत संगति दुर्लभ संसारा, निमिष दंड भरि एकउ बारा ||
देखु गरुड़ निज हृदयँ बिचारी, मैं रघुबीर भजन अधिकारी ||
सकुनाधम सब भाँति अपावन, प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन ||
दोहा
आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन,
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन ||१२३(क) ||
नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ,
चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ ||१२३ ||
चौपाई
सुमिरि राम के गुन गन नाना, पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना ||
महिमा निगम नेति करि गाई, अतुलित बल प्रताप प्रभुताई ||
सिव अज पूज्य चरन रघुराई, मो पर कृपा परम मृदुलाई ||
अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ, केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ ||
साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी, कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी ||
जोगी सूर सुतापस ग्यानी, धर्म निरत पंडित बिग्यानी ||
तरहिं न बिनु सेएँ मम स्वामी, राम नमामि नमामि नमामी ||
सरन गएँ मो से अघ रासी, होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी ||
दोहा
जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल,
सो कृपालु मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल ||१२४(क) ||
सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह,
बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह ||१२४(ख) ||
चौपाई
मै कृत्कृत्य भयउँ तव बानी, सुनि रघुबीर भगति रस सानी ||
राम चरन नूतन रति भई, माया जनित बिपति सब गई ||
मोह जलधि बोहित तुम्ह भए, मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए ||
मो पहिं होइ न प्रति उपकारा, बंदउँ तव पद बारहिं बारा ||
पूरन काम राम अनुरागी, तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी ||
संत बिटप सरिता गिरि धरनी, पर हित हेतु सबन्ह कै करनी ||
संत हृदय नवनीत समाना, कहा कबिन्ह परि कहै न जाना ||
निज परिताप द्रवइ नवनीता, पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता ||
जीवन जन्म सुफल मम भयऊ, तव प्रसाद संसय सब गयऊ ||
जानेहु सदा मोहि निज किंकर, पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर ||
दोहा
तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर,
गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर ||१२५(क) ||
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन,
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान ||१२५(ख) ||
चौपाई
कहेउँ परम पुनीत इतिहासा, सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा ||
प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा, उपजइ प्रीति राम पद कंजा ||
मन क्रम बचन जनित अघ जाई, सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई ||
तीर्थाटन साधन समुदाई, जोग बिराग ग्यान निपुनाई ||
नाना कर्म धर्म ब्रत दाना, संजम दम जप तप मख नाना ||
भूत दया द्विज गुर सेवकाई, बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई ||
जहँ लगि साधन बेद बखानी, सब कर फल हरि भगति भवानी ||
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई, राम कृपाँ काहूँ एक पाई ||
दोहा
मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास,
जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास ||१२६ ||
चौपाई
सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता, सोइ महि मंडित पंडित दाता ||
धर्म परायन सोइ कुल त्राता, राम चरन जा कर मन राता ||
नीति निपुन सोइ परम सयाना, श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना ||
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा, जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा ||
धन्य देस सो जहँ सुरसरी, धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी ||
धन्य सो भूपु नीति जो करई, धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई ||
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी, धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी ||
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा, धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा ||
दोहा
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत,
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ||१२७ ||
चौपाई
मति अनुरूप कथा मैं भाषी, जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी ||
तव मन प्रीति देखि अधिकाई, तब मैं रघुपति कथा सुनाई ||
यह न कहिअ सठही हठसीलहि, जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि ||
कहिअ न लोभिहि क्रोधहि कामिहि, जो न भजइ सचराचर स्वामिहि ||
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ, सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ ||
राम कथा के तेइ अधिकारी, जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी ||
गुर पद प्रीति नीति रत जेई, द्विज सेवक अधिकारी तेई ||
ता कहँ यह बिसेष सुखदाई, जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई ||
दोहा
राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान,
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान ||१२८ ||
चौपाई
राम कथा गिरिजा मैं बरनी, कलि मल समनि मनोमल हरनी ||
संसृति रोग सजीवन मूरी, राम कथा गावहिं श्रुति सूरी ||
एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना, रघुपति भगति केर पंथाना ||
अति हरि कृपा जाहि पर होई, पाउँ देइ एहिं मारग सोई ||
मन कामना सिद्धि नर पावा, जे यह कथा कपट तजि गावा ||
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं, ते गोपद इव भवनिधि तरहीं ||
सुनि सब कथा हृदयँ अति भाई, गिरिजा बोली गिरा सुहाई ||
नाथ कृपाँ मम गत संदेहा, राम चरन उपजेउ नव नेहा ||
दोहा
मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस,
उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस ||१२९ ||
चौपाई
यह सुभ संभु उमा संबादा, सुख संपादन समन बिषादा ||
भव भंजन गंजन संदेहा, जन रंजन सज्जन प्रिय एहा ||
राम उपासक जे जग माहीं, एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं ||
रघुपति कृपाँ जथामति गावा, मैं यह पावन चरित सुहावा ||
एहिं कलिकाल न साधन दूजा, जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा ||
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि, संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि ||
जासु पतित पावन बड़ बाना, गावहिं कबि श्रुति संत पुराना ||
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई, राम भजें गति केहिं नहिं पाई ||
छंद
पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना,
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना ||
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे,
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ||१ ||
रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं,
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं ||
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै,
दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्रीरघुबर हरै ||२ ||
सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो,
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को ||
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ,
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ ||३ ||
दोहा
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर,
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ||१३०(क) ||
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम,
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ||१३०(ख) ||
श्लोक
यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम,
मत्वा तद्रघुनाथमनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम ||१ ||
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम,
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये ते
संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ||२ ||
।। मासपारायण, तीसवाँ विश्राम ।।
।। नवान्हपारायण, नवाँ विश्राम ।।
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने सप्तमः सोपानः समाप्तः
(उत्तरकाण्ड समाप्त)