दोहा

बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग,

मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग ||६१ ||

 

चौपाई

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा ||

उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला, तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला ||

राम भगति पथ परम प्रबीना, ग्यानी गुन गृह बहु कालीना ||

राम कथा सो कहइ निरंतर, सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर ||

जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी, होइहि मोह जनित दुख दूरी ||

मैं जब तेहि सब कहा बुझाई, चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई ||

ताते उमा न मैं समुझावा, रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा ||

होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना, सो खौवै चह कृपानिधाना ||

कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा, समुझइ खग खगही कै भाषा ||

प्रभु माया बलवंत भवानी, जाहि न मोह कवन अस ग्यानी ||

 

दोहा

ग्यानि भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान,

ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान ||६२(क) ||

 

।। मासपारायण, अट्ठाईसवाँ विश्राम ।।

 

दोहा

सिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन,

अस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान ||६२(ख) ||

 

चौपाई

गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडा, मति अकुंठ हरि भगति अखंडा ||

देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ, माया मोह सोच सब गयऊ ||

करि तड़ाग मज्जन जलपाना, बट तर गयउ हृदयँ हरषाना ||

बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए, सुनै राम के चरित सुहाए ||

कथा अरंभ करै सोइ चाहा, तेही समय गयउ खगनाहा ||

आवत देखि सकल खगराजा, हरषेउ बायस सहित समाजा ||

अति आदर खगपति कर कीन्हा, स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा ||

करि पूजा समेत अनुरागा, मधुर बचन तब बोलेउ कागा ||

 

दोहा

नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज,

आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहि काज ||६३(क) ||

सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस,

जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस ||६३(ख) ||

 

चौपाई

सुनहु तात जेहि कारन आयउँ, सो सब भयउ दरस तव पायउँ ||

देखि परम पावन तव आश्रम, गयउ मोह संसय नाना भ्रम ||

अब श्रीराम कथा अति पावनि, सदा सुखद दुख पुंज नसावनि ||

सादर तात सुनावहु मोही, बार बार बिनवउँ प्रभु तोही ||

सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता, सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता ||

भयउ तासु मन परम उछाहा, लाग कहै रघुपति गुन गाहा ||

प्रथमहिं अति अनुराग भवानी, रामचरित सर कहेसि बखानी ||

पुनि नारद कर मोह अपारा, कहेसि बहुरि रावन अवतारा ||

प्रभु अवतार कथा पुनि गाई, तब सिसु चरित कहेसि मन लाई ||

 

दोहा

बालचरित कहिं बिबिध बिधि मन महँ परम उछाह,

रिषि आगवन कहेसि पुनि श्री रघुबीर बिबाह ||६४ ||

 

चौपाई

बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा, पुनि नृप बचन राज रस भंगा ||

पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा, कहेसि राम लछिमन संबादा ||

बिपिन गवन केवट अनुरागा, सुरसरि उतरि निवास प्रयागा ||

बालमीक प्रभु मिलन बखाना, चित्रकूट जिमि बसे भगवाना ||

सचिवागवन नगर नृप मरना, भरतागवन प्रेम बहु बरना ||

करि नृप क्रिया संग पुरबासी, भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी ||

पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए, लै पादुका अवधपुर आए ||

भरत रहनि सुरपति सुत करनी, प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी ||

 

दोहा

कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग ||

बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसंग ||६५ ||

 

चौपाई

कहि दंडक बन पावनताई, गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई ||

पुनि प्रभु पंचवटीं कृत बासा, भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा ||

पुनि लछिमन उपदेस अनूपा, सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा ||

खर दूषन बध बहुरि बखाना, जिमि सब मरमु दसानन जाना ||

दसकंधर मारीच बतकहीं, जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही ||

पुनि माया सीता कर हरना, श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना ||

पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही, बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही ||

बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा, जेहि बिधि गए सरोबर तीरा ||

 

दोहा

प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग,

पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग ||६६((क) ||

कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास,

बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास ||६६(ख) ||

 

चौपाई

जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए, सीता खोज सकल दिसि धाए ||

बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँती, कपिन्ह बहोरि मिला संपाती ||

सुनि सब कथा समीरकुमारा, नाघत भयउ पयोधि अपारा ||

लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा, पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा ||

बन उजारि रावनहि प्रबोधी, पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी ||

आए कपि सब जहँ रघुराई, बैदेही कि कुसल सुनाई ||

सेन समेति जथा रघुबीरा, उतरे जाइ बारिनिधि तीरा ||

मिला बिभीषन जेहि बिधि आई, सागर निग्रह कथा सुनाई ||

 

दोहा

सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार,

गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार ||६७(क) ||

निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार,

कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार ||६७(ख) ||

 

चौपाई

निसिचर निकर मरन बिधि नाना, रघुपति रावन समर बखाना ||

रावन बध मंदोदरि सोका, राज बिभीषण देव असोका ||

सीता रघुपति मिलन बहोरी, सुरन्ह कीन्ह अस्तुति कर जोरी ||

पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता, अवध चले प्रभु कृपा निकेता ||

जेहि बिधि राम नगर निज आए, बायस बिसद चरित सब गाए ||

कहेसि बहोरि राम अभिषैका, पुर बरनत नृपनीति अनेका ||

कथा समस्त भुसुंड बखानी, जो मैं तुम्ह सन कही भवानी ||

सुनि सब राम कथा खगनाहा, कहत बचन मन परम उछाहा ||

 

सोरठा

गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित,

भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक ||६८(क) ||

मोहि भयउ अति मोह प्रभु बंधन रन महुँ निरखि,

चिदानंद संदोह राम बिकल कारन कवन, ६८(ख) ||

 

चौपाई

देखि चरित अति नर अनुसारी, भयउ हृदयँ मम संसय भारी ||

सोइ भ्रम अब हित करि मैं माना, कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना ||

जो अति आतप ब्याकुल होई, तरु छाया सुख जानइ सोई ||

जौं नहिं होत मोह अति मोही, मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही ||

सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई, अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई ||

निगमागम पुरान मत एहा, कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा ||

संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही, चितवहिं राम कृपा करि जेही ||

राम कृपाँ तव दरसन भयऊ, तव प्रसाद सब संसय गयऊ ||

 

दोहा

सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग,

पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग ||६९(क) ||

श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास,

पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास ||६९(ख) ||

 

चौपाई

बोलेउ काकभसुंड बहोरी, नभग नाथ पर प्रीति न थोरी ||

सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे, कृपापात्र रघुनायक केरे ||

तुम्हहि न संसय मोह न माया, मो पर नाथ कीन्ह तुम्ह दाया ||

पठइ मोह मिस खगपति तोही, रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही ||

तुम्ह निज मोह कही खग साईं, सो नहिं कछु आचरज गोसाईं ||

नारद भव बिरंचि सनकादी, जे मुनिनायक आतमबादी ||

मोह न अंध कीन्ह केहि केही, को जग काम नचाव न जेही ||

तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा, केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा ||

 

दोहा

ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार,

केहि कै लौभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार ||७०(क) ||

श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि,

मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि ||७०(ख) ||

 

चौपाई

गुन कृत सन्यपात नहिं केही, कोउ न मान मद तजेउ निबेही ||

जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा, ममता केहि कर जस न नसावा ||

मच्छर काहि कलंक न लावा, काहि न सोक समीर डोलावा ||

चिंता साँपिनि को नहिं खाया, को जग जाहि न ब्यापी माया ||

कीट मनोरथ दारु सरीरा, जेहि न लाग घुन को अस धीरा ||

सुत बित लोक ईषना तीनी, केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी ||

यह सब माया कर परिवारा, प्रबल अमिति को बरनै पारा ||

सिव चतुरानन जाहि डेराहीं, अपर जीव केहि लेखे माहीं ||

 

दोहा

ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड ||

सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड ||७१(क) ||

सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि,

छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि ||७१(ख) ||

 

चौपाई

जो माया सब जगहि नचावा, जासु चरित लखि काहुँ न पावा ||

सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा, नाच नटी इव सहित समाजा ||

सोइ सच्चिदानंद घन रामा, अज बिग्यान रूपो बल धामा ||

ब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता, अखिल अमोघसक्ति भगवंता ||

अगुन अदभ्र गिरा गोतीता, सबदरसी अनवद्य अजीता ||

निर्मम निराकार निरमोहा, नित्य निरंजन सुख संदोहा ||

प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी, ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ||

इहाँ मोह कर कारन नाहीं, रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ||

 

दोहा

भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप,

किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप ||७२(क) ||

जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ,

सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ ||७२(ख) ||

 

चौपाई

असि रघुपति लीला उरगारी, दनुज बिमोहनि जन सुखकारी ||

जे मति मलिन बिषयबस कामी, प्रभु मोह धरहिं इमि स्वामी ||

नयन दोष जा कहँ जब होई, पीत बरन ससि कहुँ कह सोई ||

जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा, सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा ||

नौकारूढ़ चलत जग देखा, अचल मोह बस आपुहि लेखा ||

बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादीं, कहहिं परस्पर मिथ्याबादी ||

हरि बिषइक अस मोह बिहंगा, सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसंगा ||

मायाबस मतिमंद अभागी, हृदयँ जमनिका बहुबिधि लागी ||

ते सठ हठ बस संसय करहीं, निज अग्यान राम पर धरहीं ||

 

दोहा

काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप,

ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप ||७३(क) ||

निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ,

सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ ||७३(ख) ||

 

चौपाई

सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई, कहउँ जथामति कथा सुहाई ||

जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही, सोउ सब कथा सुनावउँ तोही ||

राम कृपा भाजन तुम्ह ताता, हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता ||

ताते नहिं कछु तुम्हहिं दुरावउँ, परम रहस्य मनोहर गावउँ ||

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ, जन अभिमान न राखहिं काऊ ||

संसृत मूल सूलप्रद नाना, सकल सोक दायक अभिमाना ||

ताते करहिं कृपानिधि दूरी, सेवक पर ममता अति भूरी ||

जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई, मातु चिराव कठिन की नाईं ||

 

दोहा

जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर,

ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर ||७४(क) ||

तिमि रघुपति निज दासकर हरहिं मान हित लागि,

तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि ||७४(ख) ||

 

चौपाई

राम कृपा आपनि जड़ताई, कहउँ खगेस सुनहु मन लाई ||

जब जब राम मनुज तनु धरहीं, भक्त हेतु लील बहु करहीं ||

तब तब अवधपुरी मैं ज़ाऊँ, बालचरित बिलोकि हरषाऊँ ||

जन्म महोत्सव देखउँ जाई, बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई ||

इष्टदेव मम बालक रामा, सोभा बपुष कोटि सत कामा ||

निज प्रभु बदन निहारि निहारी, लोचन सुफल करउँ उरगारी ||

लघु बायस बपु धरि हरि संगा, देखउँ बालचरित बहुरंगा ||

 

दोहा

लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ,

जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाइ करि खाउँ ||७५(क) ||

एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर,

सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर ||७५(ख) ||

 

चौपाई

कहइ भसुंड सुनहु खगनायक, रामचरित सेवक सुखदायक ||

नृपमंदिर सुंदर सब भाँती, खचित कनक मनि नाना जाती ||

बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई, जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई ||

बालबिनोद करत रघुराई, बिचरत अजिर जननि सुखदाई ||

मरकत मृदुल कलेवर स्यामा, अंग अंग प्रति छबि बहु कामा ||

नव राजीव अरुन मृदु चरना, पदज रुचिर नख ससि दुति हरना ||

ललित अंक कुलिसादिक चारी, नूपुर चारू मधुर रवकारी ||

चारु पुरट मनि रचित बनाई, कटि किंकिन कल मुखर सुहाई ||

 

दोहा

रेखा त्रय सुन्दर उदर नाभी रुचिर गँभीर,

उर आयत भ्राजत बिबिध बाल बिभूषन चीर ||७६ ||

 

चौपाई

अरुन पानि नख करज मनोहर, बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर ||

कंध बाल केहरि दर ग्रीवा, चारु चिबुक आनन छबि सींवा ||

कलबल बचन अधर अरुनारे, दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे ||

ललित कपोल मनोहर नासा, सकल सुखद ससि कर सम हासा ||

नील कंज लोचन भव मोचन, भ्राजत भाल तिलक गोरोचन ||

बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए, कुंचित कच मेचक छबि छाए ||

पीत झीनि झगुली तन सोही, किलकनि चितवनि भावति मोही ||

रूप रासि नृप अजिर बिहारी, नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी ||

मोहि सन करहीं बिबिध बिधि क्रीड़ा, बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा ||

किलकत मोहि धरन जब धावहिं, चलउँ भागि तब पूप देखावहिं ||

 

दोहा

आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं,

जाउँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं ||७७(क) ||

प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह,

कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह ||७७(ख) ||

 

चौपाई

एतना मन आनत खगराया, रघुपति प्रेरित ब्यापी माया ||

सो माया न दुखद मोहि काहीं, आन जीव इव संसृत नाहीं ||

नाथ इहाँ कछु कारन आना, सुनहु सो सावधान हरिजाना ||

ग्यान अखंड एक सीताबर, माया बस्य जीव सचराचर ||

जौं सब कें रह ग्यान एकरस, ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस ||

माया बस्य जीव अभिमानी, ईस बस्य माया गुनखानी ||

परबस जीव स्वबस भगवंता, जीव अनेक एक श्रीकंता ||

मुधा भेद जद्यपि कृत माया, बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया ||

 

दोहा

रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान,

ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान ||७८(क) ||

राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ ||

सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ ||७८(ख) ||

 

चौपाई

ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा, मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा ||

हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या, प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या ||

ताते नास न होइ दास कर, भेद भगति भाढ़इ बिहंगबर ||

भ्रम ते चकित राम मोहि देखा, बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा ||

तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ, जाना अनुज न मातु पिताहूँ ||

जानु पानि धाए मोहि धरना, स्यामल गात अरुन कर चरना ||

तब मैं भागि चलेउँ उरगामी, राम गहन कहँ भुजा पसारी ||

जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा, तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा ||

 

दोहा

ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात,

जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात ||७९(क) ||

सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि,

गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि ||७९(ख) ||

 

चौपाई

मूदेउँ नयन त्रसित जब भयउँ, पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ ||

मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं, बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं ||

उदर माझ सुनु अंडज राया, देखेउँ बहु ब्रह्मांड निकाया ||

अति बिचित्र तहँ लोक अनेका, रचना अधिक एक ते एका ||

कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा, अगनित उडगन रबि रजनीसा ||

अगनित लोकपाल जम काला, अगनित भूधर भूमि बिसाला ||

सागर सरि सर बिपिन अपारा, नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा ||

सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर, चारि प्रकार जीव सचराचर ||

 

दोहा

जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ,

सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ ||८०(क) ||

एक एक ब्रह्मांड महुँ रहउँ बरष सत एक,

एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक ||८०(ख) ||

 

चौपाई

लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता, भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता ||

नर गंधर्ब भूत बेताला, किंनर निसिचर पसु खग ब्याला ||

देव दनुज गन नाना जाती, सकल जीव तहँ आनहि भाँती ||

महि सरि सागर सर गिरि नाना, सब प्रपंच तहँ आनइ आना ||

अंडकोस प्रति प्रति निज रुपा, देखेउँ जिनस अनेक अनूपा ||

अवधपुरी प्रति भुवन निनारी, सरजू भिन्न भिन्न नर नारी ||

दसरथ कौसल्या सुनु ताता, बिबिध रूप भरतादिक भ्राता ||

प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा, देखउँ बालबिनोद अपारा ||

 

दोहा

भिन्न भिन्न मै दीख सबु अति बिचित्र हरिजान,

अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन ||८१(क) ||

सोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर,

भुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर ||८१(ख)

 

चौपाई

भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका, बीते मनहुँ कल्प सत एका ||

फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ, तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ ||

निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ, निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ ||

देखउँ जन्म महोत्सव जाई, जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई ||

राम उदर देखेउँ जग नाना, देखत बनइ न जाइ बखाना ||

तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना, माया पति कृपाल भगवाना ||

करउँ बिचार बहोरि बहोरी, मोह कलिल ब्यापित मति मोरी ||

उभय घरी महँ मैं सब देखा, भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा ||

 

दोहा

देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर,

बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर ||८२(क) ||

सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम,

कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम ||८२(ख) ||

 

चौपाई

देखि चरित यह सो प्रभुताई, समुझत देह दसा बिसराई ||

धरनि परेउँ मुख आव न बाता, त्राहि त्राहि आरत जन त्राता ||

प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी, निज माया प्रभुता तब रोकी ||

कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ, दीनदयाल सकल दुख हरेऊ ||

कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा, सेवक सुखद कृपा संदोहा ||

प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी, मन महँ होइ हरष अति भारी ||

भगत बछलता प्रभु कै देखी, उपजी मम उर प्रीति बिसेषी ||

सजल नयन पुलकित कर जोरी, कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी ||

 

दोहा

सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास,

बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास ||८३(क) ||

काकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि,

अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि ||८३(ख) ||

 

चौपाई

ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना, मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना ||

आजु देउँ सब संसय नाहीं, मागु जो तोहि भाव मन माहीं ||

सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ, मन अनुमान करन तब लागेऊँ ||

प्रभु कह देन सकल सुख सही, भगति आपनी देन न कही ||

भगति हीन गुन सब सुख ऐसे, लवन बिना बहु बिंजन जैसे ||

भजन हीन सुख कवने काजा, अस बिचारि बोलेउँ खगराजा ||

जौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू, मो पर करहु कृपा अरु नेहू ||

मन भावत बर मागउँ स्वामी, तुम्ह उदार उर अंतरजामी ||

 

दोहा

अबिरल भगति बिसुध्द तव श्रुति पुरान जो गाव,

जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव ||८४(क) ||

भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम,

सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम ||८४(ख) ||

 

चौपाई

एवमस्तु कहि रघुकुलनायक, बोले बचन परम सुखदायक ||

सुनु बायस तैं सहज सयाना, काहे न मागसि अस बरदाना ||

सब सुख खानि भगति तैं मागी, नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी ||

जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं, जे जप जोग अनल तन दहहीं ||

रीझेउँ देखि तोरि चतुराई, मागेहु भगति मोहि अति भाई ||

सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें, सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें ||

भगति ग्यान बिग्यान बिरागा, जोग चरित्र रहस्य बिभागा ||

जानब तैं सबही कर भेदा, मम प्रसाद नहिं साधन खेदा ||

 

दोहा

माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि,

जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि ||८५(क) ||

मोहि भगत प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग,

कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग ||८५(ख) ||

 

चौपाई

अब सुनु परम बिमल मम बानी, सत्य सुगम निगमादि बखानी ||

निज सिद्धांत सुनावउँ तोही, सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही ||

मम माया संभव संसारा, जीव चराचर बिबिधि प्रकारा ||

सब मम प्रिय सब मम उपजाए, सब ते अधिक मनुज मोहि भाए ||

तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी, तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी ||

तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी, ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी ||

तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा, जेहि गति मोरि न दूसरि आसा ||

पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं, मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं ||

भगति हीन बिरंचि किन होई, सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई ||

भगतिवंत अति नीचउ प्रानी, मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी ||

 

दोहा

सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग,

श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग ||८६ ||

 

चौपाई

एक पिता के बिपुल कुमारा, होहिं पृथक गुन सील अचारा ||

कोउ पंडिंत कोउ तापस ग्याता, कोउ धनवंत सूर कोउ दाता ||

कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई, सब पर पितहि प्रीति सम होई ||

कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा, सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा ||

सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना, जद्यपि सो सब भाँति अयाना ||

एहि बिधि जीव चराचर जेते, त्रिजग देव नर असुर समेते ||

अखिल बिस्व यह मोर उपाया, सब पर मोहि बराबरि दाया ||

तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया, भजै मोहि मन बच अरू काया ||

 

दोहा

पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ,

सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ ||८७(क) ||

 

सोरठा

सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय,

अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब ||८७(ख) ||

 

चौपाई

कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही, सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही ||

प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ, तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ ||

सो सुख जानइ मन अरु काना, नहिं रसना पहिं जाइ बखाना ||

प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना, कहि किमि सकहिं तिन्हहि नहिं बयना ||

बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई, लगे करन सिसु कौतुक तेई ||

सजल नयन कछु मुख करि रूखा, चितइ मातु लागी अति भूखा ||

देखि मातु आतुर उठि धाई, कहि मृदु बचन लिए उर लाई ||

गोद राखि कराव पय पाना, रघुपति चरित ललित कर गाना ||

 

सोरठा

जेहि सुख लागि पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद,

अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन ||८८(क) ||

सोइ सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ,

ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति ||८८(ख) ||

 

चौपाई

मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला, देखेउँ बालबिनोद रसाला ||

राम प्रसाद भगति बर पायउँ, प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ ||

तब ते मोहि न ब्यापी माया, जब ते रघुनायक अपनाया ||

यह सब गुप्त चरित मैं गावा, हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा ||

निज अनुभव अब कहउँ खगेसा, बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा ||

राम कृपा बिनु सुनु खगराई, जानि न जाइ राम प्रभुताई ||

जानें बिनु न होइ परतीती, बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ||

प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई, जिमि खगपति जल कै चिकनाई ||

 

दोहा

बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु,

गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु ||८९(क) ||

कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु,

चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ ||८९(ख) ||

 

चौपाई

बिनु संतोष न काम नसाहीं, काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ||

राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा, थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा ||

बिनु बिग्यान कि समता आवइ, कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ ||

श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई, बिनु महि गंध कि पावइ कोई ||

बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा, जल बिनु रस कि होइ संसारा ||

सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई, जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई ||

निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा, परस कि होइ बिहीन समीरा ||

कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा, बिनु हरि भजन न भव भय नासा ||

 

दोहा

बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु,

राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु ||९०(क) ||

 

सोरठा

अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल,

भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद ||९०(ख) ||

 

चौपाई

निज मति सरिस नाथ मैं गाई, प्रभु प्रताप महिमा खगराई ||

कहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी, यह सब मैं निज नयनन्हि देखी ||

महिमा नाम रूप गुन गाथा, सकल अमित अनंत रघुनाथा ||

निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं, निगम सेष सिव पार न पावहिं ||

तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता, नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता ||

तिमि रघुपति महिमा अवगाहा, तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा ||

रामु काम सत कोटि सुभग तन, दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन ||

सक्र कोटि सत सरिस बिलासा, नभ सत कोटि अमित अवकासा ||