दोहा

यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास,

पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास ||३१ ||

 

चौपाई

भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा, संग परम प्रिय पवनकुमारा ||

सुंदर उपबन देखन गए, सब तरु कुसुमित पल्लव नए ||

जानि समय सनकादिक आए, तेज पुंज गुन सील सुहाए ||

ब्रह्मानंद सदा लयलीना, देखत बालक बहुकालीना ||

रूप धरें जनु चारिउ बेदा, समदरसी मुनि बिगत बिभेदा ||

आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं, रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं ||

तहाँ रहे सनकादि भवानी, जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी ||

राम कथा मुनिबर बहु बरनी, ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी ||

 

दोहा

देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह,

स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह ||३२ ||

 

चौपाई

कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई, सहित पवनसुत सुख अधिकाई ||

मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी, भए मगन मन सके न रोकी ||

स्यामल गात सरोरुह लोचन, सुंदरता मंदिर भव मोचन ||

एकटक रहे निमेष न लावहिं, प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं ||

तिन्ह कै दसा देखि रघुबीरा, स्त्रवत नयन जल पुलक सरीरा ||

कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे, परम मनोहर बचन उचारे ||

आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा, तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा ||

बड़े भाग पाइब सतसंगा, बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा ||

 

दोहा

संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ,

कहहि संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ ||३३ ||

 

चौपाई

सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी, पुलकित तन अस्तुति अनुसारी ||

जय भगवंत अनंत अनामय, अनघ अनेक एक करुनामय ||

जय निर्गुन जय जय गुन सागर, सुख मंदिर सुंदर अति नागर ||

जय इंदिरा रमन जय भूधर, अनुपम अज अनादि सोभाकर ||

ग्यान निधान अमान मानप्रद, पावन सुजस पुरान बेद बद ||

तग्य कृतग्य अग्यता भंजन, नाम अनेक अनाम निरंजन ||

सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय, बससि सदा हम कहुँ परिपालय ||

द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय, ह्रदि बसि राम काम मद गंजय ||

 

दोहा

परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम,

प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम ||३४ ||

 

चौपाई

देहु भगति रघुपति अति पावनि, त्रिबिध ताप भव दाप नसावनि ||

प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु, होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु ||

भव बारिधि कुंभज रघुनायक, सेवत सुलभ सकल सुख दायक ||

मन संभव दारुन दुख दारय, दीनबंधु समता बिस्तारय ||

आस त्रास इरिषादि निवारक, बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक ||

भूप मौलि मन मंडन धरनी, देहि भगति संसृति सरि तरनी ||

मुनि मन मानस हंस निरंतर, चरन कमल बंदित अज संकर ||

रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक, काल करम सुभाउ गुन भच्छक ||

तारन तरन हरन सब दूषन, तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन ||

 

दोहा

बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ,

ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ ||३५ ||

 

चौपाई

सनकादिक बिधि लोक सिधाए, भ्रातन्ह राम चरन सिरु नाए ||

पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं, चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं ||

सुनि चहहिं प्रभु मुख कै बानी, जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी ||

अंतरजामी प्रभु सभ जाना, बूझत कहहु काह हनुमाना ||

जोरि पानि कह तब हनुमंता, सुनहु दीनदयाल भगवंता ||

नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं, प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं ||

तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ, भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ ||

सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना, सुनहु नाथ प्रनतारति हरना ||

 

दोहा

नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह,

केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह ||३६ ||

 

चौपाई

करउँ कृपानिधि एक ढिठाई, मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई ||

संतन्ह कै महिमा रघुराई, बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई ||

श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बड़ाई, तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई ||

सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन, कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन ||

संत असंत भेद बिलगाई, प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई ||

संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता, अगनित श्रुति पुरान बिख्याता ||

संत असंतन्हि कै असि करनी, जिमि कुठार चंदन आचरनी ||

काटइ परसु मलय सुनु भाई, निज गुन देइ सुगंध बसाई ||

 

दोहा

ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड,

अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड ||३७ ||

 

चौपाई

बिषय अलंपट सील गुनाकर, पर दुख दुख सुख सुख देखे पर ||

सम अभूतरिपु बिमद बिरागी, लोभामरष हरष भय त्यागी ||

कोमलचित दीनन्ह पर दाया, मन बच क्रम मम भगति अमाया ||

सबहि मानप्रद आपु अमानी, भरत प्रान सम मम ते प्रानी ||

बिगत काम मम नाम परायन, सांति बिरति बिनती मुदितायन ||

सीतलता सरलता मयत्री, द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री ||

ए सब लच्छन बसहिं जासु उर, जानेहु तात संत संतत फुर ||

सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं, परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं ||

 

दोहा

निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज,

ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज ||३८ ||

 

चौपाई

सनहु असंतन्ह केर सुभाऊ, भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ ||

तिन्ह कर संग सदा दुखदाई, जिमि कलपहि घालइ हरहाई ||

खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी, जरहिं सदा पर संपति देखी ||

जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई, हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई ||

काम क्रोध मद लोभ परायन, निर्दय कपटी कुटिल मलायन ||

बयरु अकारन सब काहू सों, जो कर हित अनहित ताहू सों ||

झूठइ लेना झूठइ देना, झूठइ भोजन झूठ चबेना ||

बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा, खाइ महा अति हृदय कठोरा ||

 

दोहा

पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद,

ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद ||३९ ||

 

चौपाई

लोभइ ओढ़न लोभइ डासन, सिस्त्रोदर पर जमपुर त्रास न ||

काहू की जौं सुनहिं बड़ाई, स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई ||

जब काहू कै देखहिं बिपती, सुखी भए मानहुँ जग नृपती ||

स्वारथ रत परिवार बिरोधी, लंपट काम लोभ अति क्रोधी ||

मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं, आपु गए अरु घालहिं आनहिं ||

करहिं मोह बस द्रोह परावा, संत संग हरि कथा न भावा ||

अवगुन सिंधु मंदमति कामी, बेद बिदूषक परधन स्वामी ||

बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा, दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा ||

 

दोहा

ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेता नाहिं,

द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं ||४० ||

 

चौपाई

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ||

निर्नय सकल पुरान बेद कर, कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर ||

नर सरीर धरि जे पर पीरा, करहिं ते सहहिं महा भव भीरा ||

करहिं मोह बस नर अघ नाना, स्वारथ रत परलोक नसाना ||

कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता, सुभ अरु असुभ कर्म फल दाता ||

अस बिचारि जे परम सयाने, भजहिं मोहि संसृत दुख जाने ||

त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक, भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक ||

संत असंतन्ह के गुन भाषे, ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे ||

 

दोहा

सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक,

गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक ||४१ ||

 

चौपाई

श्रीमुख बचन सुनत सब भाई, हरषे प्रेम न हृदयँ समाई ||

करहिं बिनय अति बारहिं बारा, हनूमान हियँ हरष अपारा ||

पुनि रघुपति निज मंदिर गए, एहि बिधि चरित करत नित नए ||

बार बार नारद मुनि आवहिं, चरित पुनीत राम के गावहिं ||

नित नव चरन देखि मुनि जाहीं, ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं ||

सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं, पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं ||

सनकादिक नारदहि सराहहिं, जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं ||

सुनि गुन गान समाधि बिसारी, सादर सुनहिं परम अधिकारी ||

 

दोहा

जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान,

जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान ||४२ ||

 

चौपाई

एक बार रघुनाथ बोलाए, गुर द्विज पुरबासी सब आए ||

बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन, बोले बचन भगत भव भंजन ||

सनहु सकल पुरजन मम बानी, कहउँ न कछु ममता उर आनी ||

नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई, सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई ||

सोइ सेवक प्रियतम मम सोई, मम अनुसासन मानै जोई ||

जौं अनीति कछु भाषौं भाई, तौं मोहि बरजहु भय बिसराई ||

बड़ें भाग मानुष तनु पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा ||

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा, पाइ न जेहिं परलोक सँवारा ||

 

दोहा

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ,

कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ ||४३ ||

 

चौपाई

एहि तन कर फल बिषय न भाई, स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ||

नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं, पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं ||

ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई, गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ||

आकर चारि लच्छ चौरासी, जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी ||

फिरत सदा माया कर प्रेरा, काल कर्म सुभाव गुन घेरा ||

कबहुँक करि करुना नर देही, देत ईस बिनु हेतु सनेही ||

नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो, सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ||

करनधार सदगुर दृढ़ नावा, दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ||

 

दोहा

जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ,

सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ||४४ ||

 

चौपाई

जौं परलोक इहाँ सुख चहहू, सुनि मम बचन ह्रृदयँ दृढ़ गहहू ||

सुलभ सुखद मारग यह भाई, भगति मोरि पुरान श्रुति गाई ||

ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका, साधन कठिन न मन कहुँ टेका ||

करत कष्ट बहु पावइ कोऊ, भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ ||

भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी, बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ||

पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता, सतसंगति संसृति कर अंता ||

पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा, मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा ||

सानुकूल तेहि पर मुनि देवा, जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा ||

 

दोहा

औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि,

संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि ||४५ ||

 

चौपाई

कहहु भगति पथ कवन प्रयासा, जोग न मख जप तप उपवासा ||

सरल सुभाव न मन कुटिलाई, जथा लाभ संतोष सदाई ||

मोर दास कहाइ नर आसा, करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा ||

बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई, एहि आचरन बस्य मैं भाई ||

बैर न बिग्रह आस न त्रासा, सुखमय ताहि सदा सब आसा ||

अनारंभ अनिकेत अमानी, अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी ||

प्रीति सदा सज्जन संसर्गा, तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा ||

भगति पच्छ हठ नहिं सठताई, दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई ||

 

दोहा

मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह,

ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह ||४६ ||

 

चौपाई

सुनत सुधासम बचन राम के, गहे सबनि पद कृपाधाम के ||

जननि जनक गुर बंधु हमारे, कृपा निधान प्रान ते प्यारे ||

तनु धनु धाम राम हितकारी, सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी ||

असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ, मातु पिता स्वारथ रत ओऊ ||

हेतु रहित जग जुग उपकारी, तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ||

स्वारथ मीत सकल जग माहीं, सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं ||

सबके बचन प्रेम रस साने, सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने ||

निज निज गृह गए आयसु पाई, बरनत प्रभु बतकही सुहाई ||

 

दोहा

उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप,

ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप ||४७ ||

 

चौपाई

एक बार बसिष्ट मुनि आए, जहाँ राम सुखधाम सुहाए ||

अति आदर रघुनायक कीन्हा, पद पखारि पादोदक लीन्हा ||

राम सुनहु मुनि कह कर जोरी, कृपासिंधु बिनती कछु मोरी ||

देखि देखि आचरन तुम्हारा, होत मोह मम हृदयँ अपारा ||

महिमा अमित बेद नहिं जाना, मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना ||

उपरोहित्य कर्म अति मंदा, बेद पुरान सुमृति कर निंदा ||

जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही, कहा लाभ आगें सुत तोही ||

परमातमा ब्रह्म नर रूपा, होइहि रघुकुल भूषन भूपा ||

 

दोहा

तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान,

जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन ||४८ ||

 

चौपाई

जप तप नियम जोग निज धर्मा, श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा ||

ग्यान दया दम तीरथ मज्जन, जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन ||

आगम निगम पुरान अनेका, पढ़े सुने कर फल प्रभु एका ||

तब पद पंकज प्रीति निरंतर, सब साधन कर यह फल सुंदर ||

छूटइ मल कि मलहि के धोएँ, घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ ||

प्रेम भगति जल बिनु रघुराई, अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ||

सोइ सर्बग्य तग्य सोइ पंडित, सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित ||

दच्छ सकल लच्छन जुत सोई, जाकें पद सरोज रति होई ||

 

दोहा

नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु,

जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु ||४९ ||

 

चौपाई

अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए, कृपासिंधु के मन अति भाए ||

हनूमान भरतादिक भ्राता, संग लिए सेवक सुखदाता ||

पुनि कृपाल पुर बाहेर गए, गज रथ तुरग मगावत भए ||

देखि कृपा करि सकल सराहे, दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे ||

हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई, गए जहाँ सीतल अवँराई ||

भरत दीन्ह निज बसन डसाई, बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई ||

मारुतसुत तब मारूत करई, पुलक बपुष लोचन जल भरई ||

हनूमान सम नहिं बड़भागी, नहिं कोउ राम चरन अनुरागी ||

गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई, बार बार प्रभु निज मुख गाई ||

 

दोहा

तेहिं अवसर मुनि नारद आए करतल बीन,

गावन लगे राम कल कीरति सदा नबीन ||५० ||

 

चौपाई

मामवलोकय पंकज लोचन, कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन ||

नील तामरस स्याम काम अरि, हृदय कंज मकरंद मधुप हरि ||

जातुधान बरूथ बल भंजन, मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन ||

भूसुर ससि नव बृंद बलाहक, असरन सरन दीन जन गाहक ||

भुज बल बिपुल भार महि खंडित, खर दूषन बिराध बध पंडित ||

रावनारि सुखरूप भूपबर, जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर ||

सुजस पुरान बिदित निगमागम, गावत सुर मुनि संत समागम ||

कारुनीक ब्यलीक मद खंडन, सब बिधि कुसल कोसला मंडन ||

कलि मल मथन नाम ममताहन, तुलसीदास प्रभु पाहि प्रनत जन ||

 

दोहा

प्रेम सहित मुनि नारद बरनि राम गुन ग्राम,

सोभासिंधु हृदयँ धरि गए जहाँ बिधि धाम ||५१ ||

 

चौपाई

गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा, मैं सब कही मोरि मति जथा ||

राम चरित सत कोटि अपारा, श्रुति सारदा न बरनै पारा ||

राम अनंत अनंत गुनानी, जन्म कर्म अनंत नामानी ||

जल सीकर महि रज गनि जाहीं, रघुपति चरित न बरनि सिराहीं ||

बिमल कथा हरि पद दायनी, भगति होइ सुनि अनपायनी ||

उमा कहिउँ सब कथा सुहाई, जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई ||

कछुक राम गुन कहेउँ बखानी, अब का कहौं सो कहहु भवानी ||

सुनि सुभ कथा उमा हरषानी, बोली अति बिनीत मृदु बानी ||

धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी, सुनेउँ राम गुन भव भय हारी ||

 

दोहा

तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह,

जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह ||५२(क) ||

नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर,

श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर ||५२(ख) ||

 

चौपाई

राम चरित जे सुनत अघाहीं, रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ||

जीवनमुक्त महामुनि जेऊ, हरि गुन सुनहीं निरंतर तेऊ ||

भव सागर चह पार जो पावा, राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा ||

बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा, श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा ||

श्रवनवंत अस को जग माहीं, जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं ||

ते जड़ जीव निजात्मक घाती, जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती ||

हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा, सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा ||

तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई, कागभसुंडि गरुड़ प्रति गाई ||

 

दोहा

बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह,

बायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह ||५३ ||

 

चौपाई

नर सहस्त्र महँ सुनहु पुरारी, कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी ||

धर्मसील कोटिक महँ कोई, बिषय बिमुख बिराग रत होई ||

कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई, सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई ||

ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ, जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ ||

तिन्ह सहस्त्र महुँ सब सुख खानी, दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी ||

धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी, जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी ||

सब ते सो दुर्लभ सुरराया, राम भगति रत गत मद माया ||

सो हरिभगति काग किमि पाई, बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई ||

 

दोहा

राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर,

नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर ||५४ ||

 

चौपाई

यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा, कहहु कृपाल काग कहँ पावा ||

तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी, कहहु मोहि अति कौतुक भारी ||

गरुड़ महाग्यानी गुन रासी, हरि सेवक अति निकट निवासी ||

तेहिं केहि हेतु काग सन जाई, सुनी कथा मुनि निकर बिहाई ||

कहहु कवन बिधि भा संबादा, दोउ हरिभगत काग उरगादा ||

गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई, बोले सिव सादर सुख पाई ||

धन्य सती पावन मति तोरी, रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी ||

सुनहु परम पुनीत इतिहासा, जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा ||

उपजइ राम चरन बिस्वासा, भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा ||

 

दोहा

ऐसिअ प्रस्न बिहंगपति कीन्ह काग सन जाइ,

सो सब सादर कहिहउँ सुनहु उमा मन लाइ ||५५ ||

 

चौपाई

मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि, सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि ||

प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा, सती नाम तब रहा तुम्हारा ||

दच्छ जग्य तब भा अपमाना, तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना ||

मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा, जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा ||

तब अति सोच भयउ मन मोरें, दुखी भयउँ बियोग प्रिय तोरें ||

सुंदर बन गिरि सरित तड़ागा, कौतुक देखत फिरउँ बेरागा ||

गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी, नील सैल एक सुन्दर भूरी ||

तासु कनकमय सिखर सुहाए, चारि चारु मोरे मन भाए ||

तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला, बट पीपर पाकरी रसाला ||

सैलोपरि सर सुंदर सोहा, मनि सोपान देखि मन मोहा ||

 

दोहा

सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग,

कूजत कल रव हंस गन गुंजत मजुंल भृंग ||५६ ||

 

चौपाई

तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई, तासु नास कल्पांत न होई ||

माया कृत गुन दोष अनेका, मोह मनोज आदि अबिबेका ||

रहे ब्यापि समस्त जग माहीं, तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं ||

तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा, सो सुनु उमा सहित अनुरागा ||

पीपर तरु तर ध्यान सो धरई, जाप जग्य पाकरि तर करई ||

आँब छाहँ कर मानस पूजा, तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा ||

बर तर कह हरि कथा प्रसंगा, आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा ||

राम चरित बिचीत्र बिधि नाना, प्रेम सहित कर सादर गाना ||

सुनहिं सकल मति बिमल मराला, बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला ||

जब मैं जाइ सो कौतुक देखा, उर उपजा आनंद बिसेषा ||

 

दोहा

तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास,

सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास ||५७ ||

 

चौपाई

गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा, मैं जेहि समय गयउँ खग पासा ||

अब सो कथा सुनहु जेही हेतू, गयउ काग पहिं खग कुल केतू ||

जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा, समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा ||

इंद्रजीत कर आपु बँधायो, तब नारद मुनि गरुड़ पठायो ||

बंधन काटि गयो उरगादा, उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा ||

प्रभु बंधन समुझत बहु भाँती, करत बिचार उरग आराती ||

ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा, माया मोह पार परमीसा ||

सो अवतार सुनेउँ जग माहीं, देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं ||

 

दोहा

भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम,

खर्च निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम ||५८ ||

 

चौपाई

नाना भाँति मनहि समुझावा, प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा ||

खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई, भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई ||

ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं, कहेसि जो संसय निज मन माहीं ||

सुनि नारदहि लागि अति दाया, सुनु खग प्रबल राम कै माया ||

जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई, बरिआई बिमोह मन करई ||

जेहिं बहु बार नचावा मोही, सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही ||

महामोह उपजा उर तोरें, मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें ||

चतुरानन पहिं जाहु खगेसा, सोइ करेहु जेहि होइ निदेसा ||

 

दोहा

अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान,

हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान ||५९ ||

 

चौपाई

तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ, निज संदेह सुनावत भयऊ ||

सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा, समुझि प्रताप प्रेम अति छावा ||

मन महुँ करइ बिचार बिधाता, माया बस कबि कोबिद ग्याता ||

हरि माया कर अमिति प्रभावा, बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा ||

अग जगमय जग मम उपराजा, नहिं आचरज मोह खगराजा ||

तब बोले बिधि गिरा सुहाई, जान महेस राम प्रभुताई ||

बैनतेय संकर पहिं जाहू, तात अनत पूछहु जनि काहू ||

तहँ होइहि तव संसय हानी, चलेउ बिहंग सुनत बिधि बानी ||

 

दोहा

परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास,

जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास ||६० ||

 

चौपाई

तेहिं मम पद सादर सिरु नावा, पुनि आपन संदेह सुनावा ||

सुनि ता करि बिनती मृदु बानी, परेम सहित मैं कहेउँ भवानी ||

मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही, कवन भाँति समुझावौं तोही ||

तबहि होइ सब संसय भंगा, जब बहु काल करिअ सतसंगा ||

सुनिअ तहाँ हरि कथा सुहाई, नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई ||

जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना, प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना ||

नित हरि कथा होत जहँ भाई, पठवउँ तहाँ सुनहि तुम्ह जाई ||

जाइहि सुनत सकल संदेहा, राम चरन होइहि अति नेहा ||