उत्तरकाण्ड

|| श्री गणेशाय नमः ||

श्रीरामचरितमानस सप्तम सोपान - उत्तरकाण्ड

 

श्लोक

केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं

शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम,

पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं

नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम ||१ ||

कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ,

जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसड्गिनौ ||२ ||

कुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम,

कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम ||३ ||

 

दोहा

रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग,

जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग ||

 

चौपाई

सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर,

प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर ||

कौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ,

आयउ प्रभु श्री अनुज जुत कहन चहत अब कोइ ||

भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार,

जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार ||

रहेउ एक दिन अवधि अधारा, समुझत मन दुख भयउ अपारा ||

कारन कवन नाथ नहिं आयउ, जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ ||

अहह धन्य लछिमन बड़भागी, राम पदारबिंदु अनुरागी ||

कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा, ताते नाथ संग नहिं लीन्हा ||

जौं करनी समुझै प्रभु मोरी, नहिं निस्तार कलप सत कोरी ||

जन अवगुन प्रभु मान न काऊ, दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ ||

मोरि जियँ भरोस दृढ़ सोई, मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई ||

बीतें अवधि रहहि जौं प्राना, अधम कवन जग मोहि समाना ||

 

दोहा

राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत,

बिप्र रूप धरि पवन सुत आइ गयउ जनु पोत ||१(क) ||

बैठि देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात,

राम राम रघुपति जपत स्त्रवत नयन जलजात ||१(ख) ||

 

चौपाई

देखत हनूमान अति हरषेउ, पुलक गात लोचन जल बरषेउ ||

मन महँ बहुत भाँति सुख मानी, बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी ||

जासु बिरहँ सोचहु दिन राती, रटहु निरंतर गुन गन पाँती ||

रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता, आयउ कुसल देव मुनि त्राता ||

रिपु रन जीति सुजस सुर गावत, सीता सहित अनुज प्रभु आवत ||

सुनत बचन बिसरे सब दूखा, तृषावंत जिमि पाइ पियूषा ||

को तुम्ह तात कहाँ ते आए, मोहि परम प्रिय बचन सुनाए ||

मारुत सुत मैं कपि हनुमाना, नामु मोर सुनु कृपानिधाना ||

दीनबंधु रघुपति कर किंकर, सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर ||

मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता, नयन स्त्रवत जल पुलकित गाता ||

कपि तव दरस सकल दुख बीते, मिले आजु मोहि राम पिरीते ||

बार बार बूझी कुसलाता, तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता ||

एहि संदेस सरिस जग माहीं, करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं ||

नाहिन तात उरिन मैं तोही, अब प्रभु चरित सुनावहु मोही ||

तब हनुमंत नाइ पद माथा, कहे सकल रघुपति गुन गाथा ||

कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं, सुमिरहिं मोहि दास की नाईं ||

 

छंद

निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर यो,

सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकित तन चरनन्हि पर यो ||

रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो,

काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो ||

 

दोहा

राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात,

पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात || २(क) ||

 

सोरठा

भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं,

कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि ||२(ख) ||

 

चौपाई

हरषि भरत कोसलपुर आए, समाचार सब गुरहि सुनाए ||

पुनि मंदिर महँ बात जनाई, आवत नगर कुसल रघुराई ||

सुनत सकल जननीं उठि धाईं, कहि प्रभु कुसल भरत समुझाई ||

समाचार पुरबासिन्ह पाए, नर अरु नारि हरषि सब धाए ||

दधि दुर्बा रोचन फल फूला, नव तुलसी दल मंगल मूला ||

भरि भरि हेम थार भामिनी, गावत चलिं सिंधु सिंधुरगामिनी ||

जे जैसेहिं तैसेहिं उटि धावहिं, बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं ||

एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई, तुम्ह देखे दयाल रघुराई ||

अवधपुरी प्रभु आवत जानी, भई सकल सोभा कै खानी ||

बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा, भइ सरजू अति निर्मल नीरा ||

 

दोहा

हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृंद समेत,

चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत ||३(क) ||

बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान,

देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमंगल गान ||३(ख) ||

राका ससि रघुपति पुर सिंधु देखि हरषान,

बढ़यो कोलाहल करत जनु नारि तरंग समान ||३(ग) ||

 

चौपाई

इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर, कपिन्ह देखावत नगर मनोहर ||

सुनु कपीस अंगद लंकेसा, पावन पुरी रुचिर यह देसा ||

जद्यपि सब बैकुंठ बखाना, बेद पुरान बिदित जगु जाना ||

अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ, यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ ||

जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि, उत्तर दिसि बह सरजू पावनि ||

जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा, मम समीप नर पावहिं बासा ||

अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी, मम धामदा पुरी सुख रासी ||

हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी, धन्य अवध जो राम बखानी ||

 

दोहा

आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान,

नगर निकट प्रभु प्रेरेउ उतरेउ भूमि बिमान ||४(क) ||

उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु,

प्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु ||४(ख) ||

 

चौपाई

आए भरत संग सब लोगा, कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा ||

बामदेव बसिष्ठ मुनिनायक, देखे प्रभु महि धरि धनु सायक ||

धाइ धरे गुर चरन सरोरुह, अनुज सहित अति पुलक तनोरुह ||

भेंटि कुसल बूझी मुनिराया, हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया ||

सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा, धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा ||

गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज, नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज ||

परे भूमि नहिं उठत उठाए, बर करि कृपासिंधु उर लाए ||

स्यामल गात रोम भए ठाढ़े, नव राजीव नयन जल बाढ़े ||

 

छंद

राजीव लोचन स्त्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी,

अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी ||

प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही,

जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही ||१ ||

बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई,

सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई ||

अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो,

बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो ||२ ||

 

दोहा

पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ,

लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ ||५ ||

 

चौपाई

भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे, दुसह बिरह संभव दुख मेटे ||

सीता चरन भरत सिरु नावा, अनुज समेत परम सुख पावा ||

प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी, जनित बियोग बिपति सब नासी ||

प्रेमातुर सब लोग निहारी, कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी ||

अमित रूप प्रगटे तेहि काला, जथाजोग मिले सबहि कृपाला ||

कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी, किए सकल नर नारि बिसोकी ||

छन महिं सबहि मिले भगवाना, उमा मरम यह काहुँ न जाना ||

एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा, आगें चले सील गुन धामा ||

कौसल्यादि मातु सब धाई, निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई ||

 

छंद

जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं,

दिन अंत पुर रुख स्त्रवत थन हुंकार करि धावत भई ||

अति प्रेम सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे,

गइ बिषम बियोग भव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे ||

 

दोहा

भेटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि,

रामहि मिलत कैकेई हृदयँ बहुत सकुचानि ||६(क) ||

लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ,

कैकेइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ ||६ ||

 

चौपाई

सासुन्ह सबनि मिली बैदेही, चरनन्हि लागि हरषु अति तेही ||

देहिं असीस बूझि कुसलाता, होइ अचल तुम्हार अहिवाता ||

सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं, मंगल जानि नयन जल रोकहिं ||

कनक थार आरति उतारहिं, बार बार प्रभु गात निहारहिं ||

नाना भाँति निछावरि करहीं, परमानंद हरष उर भरहीं ||

कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि, चितवति कृपासिंधु रनधीरहि ||

हृदयँ बिचारति बारहिं बारा, कवन भाँति लंकापति मारा ||

अति सुकुमार जुगल मेरे बारे, निसिचर सुभट महाबल भारे ||

 

दोहा

लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु,

परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु ||७ ||

 

चौपाई

लंकापति कपीस नल नीला, जामवंत अंगद सुभसीला ||

हनुमदादि सब बानर बीरा, धरे मनोहर मनुज सरीरा ||

भरत सनेह सील ब्रत नेमा, सादर सब बरनहिं अति प्रेमा ||

देखि नगरबासिन्ह कै रीती, सकल सराहहि प्रभु पद प्रीती ||

पुनि रघुपति सब सखा बोलाए, मुनि पद लागहु सकल सिखाए ||

गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे, इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे ||

ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे, भए समर सागर कहँ बेरे ||

मम हित लागि जन्म इन्ह हारे, भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे ||

सुनि प्रभु बचन मगन सब भए, निमिष निमिष उपजत सुख नए ||

 

दोहा

कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ ||

आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ ||८(क) ||

सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद,

चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद ||८(ख) ||

 

चौपाई

कंचन कलस बिचित्र सँवारे, सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे ||

बंदनवार पताका केतू, सबन्हि बनाए मंगल हेतू ||

बीथीं सकल सुगंध सिंचाई, गजमनि रचि बहु चौक पुराई ||

नाना भाँति सुमंगल साजे, हरषि नगर निसान बहु बाजे ||

जहँ तहँ नारि निछावर करहीं, देहिं असीस हरष उर भरहीं ||

कंचन थार आरती नाना, जुबती सजें करहिं सुभ गाना ||

करहिं आरती आरतिहर कें, रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें ||

पुर सोभा संपति कल्याना, निगम सेष सारदा बखाना ||

तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं, उमा तासु गुन नर किमि कहहीं ||

 

दोहा

नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस,

अस्त भएँ बिगसत भईं निरखि राम राकेस ||९(क) ||

होहिं सगुन सुभ बिबिध बिधि बाजहिं गगन निसान,

पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान ||९(ख) ||

 

चौपाई

प्रभु जानी कैकेई लजानी, प्रथम तासु गृह गए भवानी ||

ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा, पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा ||

कृपासिंधु जब मंदिर गए, पुर नर नारि सुखी सब भए ||

गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई, आजु सुघरी सुदिन समुदाई ||

सब द्विज देहु हरषि अनुसासन, रामचंद्र बैठहिं सिंघासन ||

मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए, सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए ||

कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका, जग अभिराम राम अभिषेका ||

अब मुनिबर बिलंब नहिं कीजे, महाराज कहँ तिलक करीजै ||

 

दोहा

तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ,

रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ ||१०(क) ||

जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ,

हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ ||१०(ख) ||

 

।। नवान्हपारायण, आठवाँ विश्राम ।।

 

चौपाई

अवधपुरी अति रुचिर बनाई, देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई ||

राम कहा सेवकन्ह बुलाई, प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई ||

सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए, सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए ||

पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे, निज कर राम जटा निरुआरे ||

अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई, भगत बछल कृपाल रघुराई ||

भरत भाग्य प्रभु कोमलताई, सेष कोटि सत सकहिं न गाई ||

पुनि निज जटा राम बिबराए, गुर अनुसासन मागि नहाए ||

करि मज्जन प्रभु भूषन साजे, अंग अनंग देखि सत लाजे ||

 

दोहा

सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ,

दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ ||११(क) ||

राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि,

देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि ||११(ख) ||

सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद,

चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद ||११(ग) ||

 

चौपाई

प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा, तुरत दिब्य सिंघासन मागा ||

रबि सम तेज सो बरनि न जाई, बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई ||

जनकसुता समेत रघुराई, पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई ||

बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे, नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे ||

प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा, पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा ||

सुत बिलोकि हरषीं महतारी, बार बार आरती उतारी ||

बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे, जाचक सकल अजाचक कीन्हे ||

सिंघासन पर त्रिभुअन साई, देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं ||

 

छंद

नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं,

नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं ||

भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते,

गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते ||१ ||

श्री सहित दिनकर बंस बूषन काम बहु छबि सोहई,

नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई ||

मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे,

अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे ||२ ||

 

दोहा

वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस,

बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस ||१२(क) ||

भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम,

बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम ||१२(ख) ||

प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान,

लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान ||१२(ग) ||

 

छंद

जय सगुन निर्गुन रूप अनूप भूप सिरोमने,

दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने ||

अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे,

जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे ||१ ||

तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे,

भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे ||

जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे,

भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे ||२ ||

जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी,

ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी ||

बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे,

जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे ||३ ||

जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी,

नख निर्गता मुनि बंदिता त्रेलोक पावनि सुरसरी ||

ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे,

पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे ||४ ||

अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने,

षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने ||

फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे,

पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे ||५ ||

जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं,

ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं ||

करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं,

मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं ||६ ||

 

दोहा

सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार,

अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार ||१३(क) ||

बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर,

बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर ||१३(ख) ||

 

छंद

जय राम रमारमनं समनं, भव ताप भयाकुल पाहि जनं ||

अवधेस सुरेस रमेस बिभो, सरनागत मागत पाहि प्रभो ||१ ||

दससीस बिनासन बीस भुजा, कृत दूरि महा महि भूरि रुजा ||

रजनीचर बृंद पतंग रहे, सर पावक तेज प्रचंड दहे ||२ ||

महि मंडल मंडन चारुतरं, धृत सायक चाप निषंग बरं ||

मद मोह महा ममता रजनी, तम पुंज दिवाकर तेज अनी ||३ ||

मनजात किरात निपात किए, मृग लोग कुभोग सरेन हिए ||

हति नाथ अनाथनि पाहि हरे, बिषया बन पावँर भूलि परे ||४ ||

बहु रोग बियोगन्हि लोग हए, भवदंघ्रि निरादर के फल ए ||

भव सिंधु अगाध परे नर ते, पद पंकज प्रेम न जे करते ||५ ||

अति दीन मलीन दुखी नितहीं, जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं ||

अवलंब भवंत कथा जिन्ह के, प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें ||६ ||

नहिं राग न लोभ न मान मदा, तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा ||

एहि ते तव सेवक होत मुदा, मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ||७ ||

करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ, पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ ||

सम मानि निरादर आदरही, सब संत सुखी बिचरंति मही ||८ ||

मुनि मानस पंकज भृंग भजे, रघुबीर महा रनधीर अजे ||

तव नाम जपामि नमामि हरी, भव रोग महागद मान अरी ||९ ||

गुन सील कृपा परमायतनं, प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं ||

रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं, महिपाल बिलोकय दीन जनं ||१० ||

 

दोहा

बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग,

पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ||१४(क) ||

बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास,

तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास ||१४(ख) ||

 

चौपाई

सुनु खगपति यह कथा पावनी, त्रिबिध ताप भव भय दावनी ||

महाराज कर सुभ अभिषेका, सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका ||

जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं, सुख संपति नाना बिधि पावहिं ||

सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं, अंतकाल रघुपति पुर जाहीं ||

सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई, लहहिं भगति गति संपति नई ||

खगपति राम कथा मैं बरनी, स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी ||

बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी, मोह नदी कहँ सुंदर तरनी ||

नित नव मंगल कौसलपुरी, हरषित रहहिं लोग सब कुरी ||

नित नइ प्रीति राम पद पंकज, सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज ||

मंगन बहु प्रकार पहिराए, द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए ||

 

दोहा

ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति,

जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति ||१५ ||

 

चौपाई

बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं, जिमि परद्रोह संत मन माही ||

तब रघुपति सब सखा बोलाए, आइ सबन्हि सादर सिरु नाए ||

परम प्रीति समीप बैठारे, भगत सुखद मृदु बचन उचारे ||

तुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई, मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई ||

ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे, मम हित लागि भवन सुख त्यागे ||

अनुज राज संपति बैदेही, देह गेह परिवार सनेही ||

सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना, मृषा न कहउँ मोर यह बाना ||

सब के प्रिय सेवक यह नीती, मोरें अधिक दास पर प्रीती ||

 

दोहा

अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम,

सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम ||१६ ||

 

चौपाई

सुनि प्रभु बचन मगन सब भए, को हम कहाँ बिसरि तन गए ||

एकटक रहे जोरि कर आगे, सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे ||

परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा, कहा बिबिध बिधि ग्यान बिसेषा ||

प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं, पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं ||

तब प्रभु भूषन बसन मगाए, नाना रंग अनूप सुहाए ||

सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए, बसन भरत निज हाथ बनाए ||

प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए, लंकापति रघुपति मन भाए ||

अंगद बैठ रहा नहिं डोला, प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला ||

 

दोहा

जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ,

हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ ||१७(क) ||

तब अंगद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि,

अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि ||१७(ख) ||

 

चौपाई

सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो, दीन दयाकर आरत बंधो ||

मरती बेर नाथ मोहि बाली, गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली ||

असरन सरन बिरदु संभारी, मोहि जनि तजहु भगत हितकारी ||

मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता, जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता ||

तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा, प्रभु तजि भवन काज मम काहा ||

बालक ग्यान बुद्धि बल हीना, राखहु सरन नाथ जन दीना ||

नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ, पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ ||

अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही, अब जनि नाथ कहहु गृह जाही ||

 

दोहा

अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव,

प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव ||१८(क) ||

निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ,

बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ ||१८(ख) ||

 

चौपाई

भरत अनुज सौमित्र समेता, पठवन चले भगत कृत चेता ||

अंगद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा, फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा ||

बार बार कर दंड प्रनामा, मन अस रहन कहहिं मोहि रामा ||

राम बिलोकनि बोलनि चलनी, सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी ||

प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी, चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी ||

अति आदर सब कपि पहुँचाए, भाइन्ह सहित भरत पुनि आए ||

तब सुग्रीव चरन गहि नाना, भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना ||

दिन दस करि रघुपति पद सेवा, पुनि तव चरन देखिहउँ देवा ||

पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा, सेवहु जाइ कृपा आगारा ||

अस कहि कपि सब चले तुरंता, अंगद कहइ सुनहु हनुमंता ||

 

दोहा

कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि,

बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि ||१९(क) ||

अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत,

तासु प्रीति प्रभु सन कहि मगन भए भगवंत ||!९(ख) ||

कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि,

चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि ||१९(ग) ||

 

चौपाई

पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा, दीन्हे भूषन बसन प्रसादा ||

जाहु भवन मम सुमिरन करेहू, मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू ||

तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता, सदा रहेहु पुर आवत जाता ||

बचन सुनत उपजा सुख भारी, परेउ चरन भरि लोचन बारी ||

चरन नलिन उर धरि गृह आवा, प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा ||

रघुपति चरित देखि पुरबासी, पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी ||

राम राज बैंठें त्रेलोका, हरषित भए गए सब सोका ||

बयरु न कर काहू सन कोई, राम प्रताप बिषमता खोई ||

 

दोहा

बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग,

चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग ||२० ||

 

चौपाई

दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज नहिं काहुहि ब्यापा ||

सब नर करहिं परस्पर प्रीती, चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती ||

चारिउ चरन धर्म जग माहीं, पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं ||

राम भगति रत नर अरु नारी, सकल परम गति के अधिकारी ||

अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा, सब सुंदर सब बिरुज सरीरा ||

नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना, नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना ||

सब निर्दंभ धर्मरत पुनी, नर अरु नारि चतुर सब गुनी ||

सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी, सब कृतग्य नहिं कपट सयानी ||

 

दोहा

राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं ||

काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं ||२१ ||

 

चौपाई

भूमि सप्त सागर मेखला, एक भूप रघुपति कोसला ||

भुअन अनेक रोम प्रति जासू, यह प्रभुता कछु बहुत न तासू ||

सो महिमा समुझत प्रभु केरी, यह बरनत हीनता घनेरी ||

सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी, फिरी एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी ||

सोउ जाने कर फल यह लीला, कहहिं महा मुनिबर दमसीला ||

राम राज कर सुख संपदा, बरनि न सकइ फनीस सारदा ||

सब उदार सब पर उपकारी, बिप्र चरन सेवक नर नारी ||

एकनारि ब्रत रत सब झारी, ते मन बच क्रम पति हितकारी ||

 

दोहा

दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज,

जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज ||२२ ||

 

चौपाई

फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन, रहहि एक सँग गज पंचानन ||

खग मृग सहज बयरु बिसराई, सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई ||

कूजहिं खग मृग नाना बृंदा, अभय चरहिं बन करहिं अनंदा ||

सीतल सुरभि पवन बह मंदा, गूंजत अलि लै चलि मकरंदा ||

लता बिटप मागें मधु चवहीं, मनभावतो धेनु पय स्त्रवहीं ||

ससि संपन्न सदा रह धरनी, त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी ||

प्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनि खानी, जगदातमा भूप जग जानी ||

सरिता सकल बहहिं बर बारी, सीतल अमल स्वाद सुखकारी ||

सागर निज मरजादाँ रहहीं, डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं ||

सरसिज संकुल सकल तड़ागा, अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा ||

 

दोहा

बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज,

मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र के राज ||२३ ||

 

चौपाई

कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे, दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे ||

श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर, गुनातीत अरु भोग पुरंदर ||

पति अनुकूल सदा रह सीता, सोभा खानि सुसील बिनीता ||

जानति कृपासिंधु प्रभुताई, सेवति चरन कमल मन लाई ||

जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी, बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी ||

निज कर गृह परिचरजा करई, रामचंद्र आयसु अनुसरई ||

जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ, सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ ||

कौसल्यादि सासु गृह माहीं, सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं ||

उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता, जगदंबा संततमनिंदिता ||

 

दोहा

जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ,

राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ ||२४ ||

 

चौपाई

सेवहिं सानकूल सब भाई, राम चरन रति अति अधिकाई ||

प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं, कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं ||

राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती, नाना भाँति सिखावहिं नीती ||

हरषित रहहिं नगर के लोगा, करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा ||

अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं, श्रीरघुबीर चरन रति चहहीं ||

दुइ सुत सुन्दर सीताँ जाए, लव कुस बेद पुरानन्ह गाए ||

दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर, हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर ||

दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे, भए रूप गुन सील घनेरे ||

 

दोहा

ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार,

सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार ||२५ ||

 

चौपाई

प्रातकाल सरऊ करि मज्जन, बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन ||

बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं, सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं ||

अनुजन्ह संजुत भोजन करहीं, देखि सकल जननीं सुख भरहीं ||

भरत सत्रुहन दोनउ भाई, सहित पवनसुत उपबन जाई ||

बूझहिं बैठि राम गुन गाहा, कह हनुमान सुमति अवगाहा ||

सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं, बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं ||

सब कें गृह गृह होहिं पुराना, रामचरित पावन बिधि नाना ||

नर अरु नारि राम गुन गानहिं, करहिं दिवस निसि जात न जानहिं ||

 

दोहा

अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज,

सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज ||२६ ||

 

चौपाई

नारदादि सनकादि मुनीसा, दरसन लागि कोसलाधीसा ||

दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं, देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं ||

जातरूप मनि रचित अटारीं, नाना रंग रुचिर गच ढारीं ||

पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर, रचे कँगूरा रंग रंग बर ||

नव ग्रह निकर अनीक बनाई, जनु घेरी अमरावति आई ||

महि बहु रंग रचित गच काँचा, जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा ||

धवल धाम ऊपर नभ चुंबत, कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत ||

बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं, गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं ||

 

छंद

मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची,

मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची ||

सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे,

प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे ||

 

दोहा

चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ,

राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ ||२७ ||

 

चौपाई

सुमन बाटिका सबहिं लगाई, बिबिध भाँति करि जतन बनाई ||

लता ललित बहु जाति सुहाई, फूलहिं सदा बंसत कि नाई ||

गुंजत मधुकर मुखर मनोहर, मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर ||

नाना खग बालकन्हि जिआए, बोलत मधुर उड़ात सुहाए ||

मोर हंस सारस पारावत, भवननि पर सोभा अति पावत ||

जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं, बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं ||

सुक सारिका पढ़ावहिं बालक, कहहु राम रघुपति जनपालक ||

राज दुआर सकल बिधि चारू, बीथीं चौहट रूचिर बजारू ||

छं -बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए,

जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए ||

बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते,

सब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे ||

 

दोहा

उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर,

बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर ||२८ ||

 

चौपाई

दूरि फराक रुचिर सो घाटा, जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा ||

पनिघट परम मनोहर नाना, तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना ||

राजघाट सब बिधि सुंदर बर, मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर ||

तीर तीर देवन्ह के मंदिर, चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर ||

कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी, बसहिं ग्यान रत मुनि संन्यासी ||

तीर तीर तुलसिका सुहाई, बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई ||

पुर सोभा कछु बरनि न जाई, बाहेर नगर परम रुचिराई ||

देखत पुरी अखिल अघ भागा, बन उपबन बापिका तड़ागा ||

छं -बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं,

सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं ||

बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं,

आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं ||

 

दोहा

रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ,

अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ ||२९ ||

 

चौपाई

जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं, बैठि परसपर इहइ सिखावहिं ||

भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि, सोभा सील रूप गुन धामहि ||

जलज बिलोचन स्यामल गातहि, पलक नयन इव सेवक त्रातहि ||

धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि, संत कंज बन रबि रनधीरहि ||

काल कराल ब्याल खगराजहि, नमत राम अकाम ममता जहि ||

लोभ मोह मृगजूथ किरातहि, मनसिज करि हरि जन सुखदातहि ||

संसय सोक निबिड़ तम भानुहि, दनुज गहन घन दहन कृसानुहि ||

जनकसुता समेत रघुबीरहि, कस न भजहु भंजन भव भीरहि ||

बहु बासना मसक हिम रासिहि, सदा एकरस अज अबिनासिहि ||

मुनि रंजन भंजन महि भारहि, तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि ||

 

दोहा

एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान,

सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान ||३० ||

 

चौपाई

जब ते राम प्रताप खगेसा, उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ||

पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका, बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका ||

जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी, प्रथम अबिद्या निसा नसानी ||

अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने, काम क्रोध कैरव सकुचाने ||

बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ, ए चकोर सुख लहहिं न काऊ ||

मत्सर मान मोह मद चोरा, इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा ||

धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना, ए पंकज बिकसे बिधि नाना ||

सुख संतोष बिराग बिबेका, बिगत सोक ए कोक अनेका ||