दोहा

निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति ।

बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥ ३१ ॥

 

चौपाई

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना । भरि आए जल राजिव नयना ॥

बचन कायँ मन मम गति जाही । सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ॥ १ ॥

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई । जब तव सुमिरन भजन न होई ॥

केतिक बात प्रभु जातुधान की । रिपुहि जीति आनिबी जानकी ॥ २ ॥

सुनु कपि तोहि समान उपकारी । नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥

प्रति उपकार करौं का तोरा । सनमुख होइ न सकत मन मोरा ॥ ३ ॥

सुनु सत तोहि उरिन मैं नाहीं । देखेउँ करि बिचार मन माहीं ॥

पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता । लोचन नीर पुलक अति गाता ॥ ४ ॥

 

दोहा

सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत ।

चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥ ३२ ॥

 

चौपाई

बार बार प्रभु चहइ उठावा । प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ॥

प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा । सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥ १ ॥

सावधान मन करि पुनि संकर । लागे कहन कथा अति सुंदर ॥

कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा । कर गहि परम निकट बैठावा ॥ २ ॥

कहु कपि रावन पालित लंका । केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ॥

प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना । बोला बचन बिगत हनुमाना ॥ ३ ॥

साखामृग कै बड़ि मनुसाई । साखा तें साखा पर जाई ॥

नाघि सिंधु हाटकपुर जारा । निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा ॥ ४ ॥

सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥ ५ ॥

 

दोहा

ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल ।

तव प्रभावँ वड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ॥ ३३ ॥

 

चौपाई

नाथ भगति अति सुखदायनी । देहु कृपा करि अनपायनी ॥

सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी । एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥ १ ॥

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना । ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥

यह संबाद जासु उर आवा । रघुपति चरन भगति सोइ पावा ॥ २ ॥

सुनि प्रभु बचन कहहिं कपि बृंदा । जय जय जय कृपाल सुखकंदा ॥

तब रघुपति कपिपतिहिं बोलावा । कहा चलैं कर करहु बनावा ॥ ३ ॥

अब बिलंबु केहि कारन कीजे । तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे ॥

कौतुक देखि सुमन बहु बरषी । नभ तें भवन चले सुर हरषी ॥ ४ ॥

 

दोहा

कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ ।

नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥ ३४ ॥

 

चौपाई

प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा । गर्जहिं भालु महाबल कीसा ॥

देखी राम सकल कपि सेना । चितइ कृपा करि राजिव नैना ॥ १ ॥

राम कृपा बल पाइ कपिंदा । भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ॥

हरषि राम तब कीन्ह पयाना । सगुन भए सुंदर सुभ नाना ॥ २ ॥

जासु सकल मंगलमय कीती । तासु पयान सगुन यह नीती ॥

प्रभु पयान जाना बैदेहीं । फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ॥ ३ ॥

जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई । असगुन भयउ रावनहि सोई ॥

चला कटकु को बरनैं पारा । गर्जहिं बानर भालु अपारा ॥ ४ ॥

नख आयुध गिरि पादपधारी । चले गगन महि इच्छाचारी ॥

केहरिनाद भालु कपि करहीं । डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ॥ ५ ॥

 

छंद

चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे ।

मन हरष सब गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे ॥

कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं ।

जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ॥ १ ॥

सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई ।

गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई ॥

रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी ।

जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ॥ २ ॥

 

दोहा

एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर ।

जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥ ३५ ॥

 

चौपाई

उहाँ निसाचर रहहिं ससंका । जब तें जारि गयउ कपि लंका ॥

निज निज गृह सब करहिं बिचारा । नहिं निसिचर कुल केर उबारा ॥ १ ॥

जासु दूत बल बरनि न जाई । तेहि आएँ पुर कवन भलाई ॥

दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी । मंदोदरी अधिक अकुलानी ॥ २ ॥

रहसि जोरि कर पति पग लागी । बोली बचन नीति रस पागी ॥

कंत करष हरि सन परिहरहू । मोर कहा अति हित हियँ धरहू ॥ ३ ॥

समुझत जासु दूत कइ करनी । स्रवहिं गर्भ रजनीचर धरनी ॥

तासु नारि निज सचिव बोलाई । पठवहु कंत जो चहहु भलाई ॥ ४ ॥

तव कुल कमल बिपिन दुखदायई । सीता सीत निसा सम आई ॥

सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें । हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ॥ ५ ॥

 

दोहा

राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक ।

जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥ ३६ ॥

 

चौपाई

श्रवन सुनि सठ ता करि बानी । बिहसा जगत बिदित अभिमानी ॥

सभय सुभाउ नारि कर साचा । मंगल महुँ भय मन अति काचा ॥ १ ॥

जों आवइ मर्कट कटकाई । जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ॥

कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा । तासु नारि सभीत बड़ि हासा ॥ २ ॥

अस कहि बिहसि ताहि उर लाई । चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ॥

मंदोदरी हृदयँ कर चिंता । भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ॥ ३ ॥

बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई । सिंधु पार सेना सब आई ॥

बूझेसि सचिव उचित मत कहेहू । ते सब हँसे मष्ट करि रहेहू ॥ ४ ॥

जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं । नर बानर केहि लेखे माहीं ॥ ५ ॥

 

दोहा

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।

राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥ ३७ ॥

 

चौपाई

सोइ रावन कहुँ बनी सहाई । अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ॥

अवसर जानि बिभीषनु आवा । भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ॥ १ ॥

पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन । बोला बचन पाइ अनुसासन ॥

जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता । मति अनुरूप कहउँ हित ताता ॥ २ ॥

जो आपन चाहै कल्याना । सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ॥

सो परनारि लिलार गोसाई । तजउ चउथि के चंद कि नाई ॥ ३ ॥

चौदह भुवन एक पति होई । भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई ॥

गुन सागर नागर नर जोऊ । अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ॥ ४ ॥

 

दोहा

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ।

सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ॥ ३८ ॥

 

चौपाई

तात राम नहिं नर भूपाला । भुवनेस्वर कालहु कर काला ॥

ब्रह्म अनामय अज भगवंता । ब्यापक अजित अनादि अनंता ॥ १ ॥

गो द्विज धेनु देव हितकारी । कृपा सिंधु मानुष तनुधारी ॥

जन रंजन भंजन खल ब्राता । बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ॥ २ ॥

ताहि बयरु तजि नाइअ माथा । प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥

देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही । भजहु राम बिनु हेतु सनेही ॥ ३ ॥

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा । बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ॥

जासु नाम त्रय ताप नसावन । सोई प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ॥ ४ ॥

 

दोहा

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस ।

परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ॥ ३९ क ॥

मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात ।

तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥ ३९ ख ॥

 

चौपाई

माल्यवंत अति सचिव सयाना । तासु बचन सुनि अति सुख माना ॥

तात अनुज तव नीति बिभूषन । सो उर धरहु जो कहत बिभीषन ॥ १ ॥

रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ । दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ॥

माल्यवंत गृह गयउ बहोरी । कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी ॥ २ ॥

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं । नाथ पुरान निगम अस कहहीं ॥

जहाँ सुमति तहँ संपति नाना । जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ॥ ३ ॥

तव उर कुमति बसी बिपरीता । हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ॥

कालराति निसिचर कुल केरी । तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ॥ ४ ॥

 

दोहा

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार ।

सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥ ४० ॥

 

चौपाई

बुध पुरान श्रुति संमत बानी । कही बिभीषन नीति बखानी ॥

सुनत दसानन उठा रिसाई । खल तोहि निकट मृत्य अब आई ॥ १ ॥

जिअसि सदा सठ मोर जिआवा । रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ॥

कहसि न खल अस को जग माहीं । भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं ॥ २ ॥

मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती । सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ॥

अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा । अनुज गहे पद बारहिं बारा ॥ ३ ॥

उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ॥

तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा । रामु भजें हित नाथ तुम्हारा ॥ ४ ॥

सचिव संग लै नभ पथ गयऊ । सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ ॥ ५ ॥

 

दोहा

रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि ।

मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ॥ ४१ ॥

 

चौपाई

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं । आयूहीन भए सब तबहीं ॥

साधु अवग्या तुरत भवानी । कर कल्यान अखिल कै हानी ॥ १ ॥

रावन जबहिं बिभीषन त्यागा । भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ॥

चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं । करत मनोरथ बहु मन माहीं ॥ २ ॥

देखिहउँ जाइ चरन जलजाता । अरुन मृदुल सेवक सुखदाता ॥

जे पद पसरि तरी रिषिनारी । दंड़क कानन पावनकारी ॥ ३ ॥

जे पद जनकसुताँ उर लाए । कपट कुरंग संग धर धाए ॥

हर उर सर सरोज पद जेई । अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई ॥ ४ ॥

 

दोहा

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ ।

ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥ ४२ ॥

 

चौपाई

एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा । आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा ॥

कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा । जान कोउ रिपु दूत बिसेषा ॥ १ ॥

ताहि राखि कपीस पहिं आए । समाचार सब ताहि सुनाए ॥

कह सुग्रीव सुनहु रघुराई । आवा मिलन दसानन भाई ॥ २ ॥

कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा । कहइ कपीस सुनहु नरनाहा ॥

जानि न जाइ निसाचर माया । कामरूप केहि कारन आया ॥ ३ ॥

भेद हमार लेन सठ आवा । राखिअ बाँधि मोहि अस भावा ॥

सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी । मम पन सरनागत भयहारी ॥ ४ ॥

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना । सरनागत बच्छल भगवाना ॥ ५ ॥

 

दोहा

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि ।

ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥ ४३ ॥

 

चौपाई

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू । आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥ १ ॥

पापवंत कर सहज सुभाऊ । भजहु मोर तेहि भाव न काऊ ॥

जौं पै दुष्टहृदय सोइ होई । मोरें सनमुख आव कि सोई ॥ २ ॥

निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥

भेद लेन पठवा दससीसा । तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा ॥ ३ ॥

जग महुँ सखा निसाचर जेते । लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते ॥

जो सभीत आवा सरनाईं । राखिहउँ ताहि प्रान की नाईं ॥ ४ ॥

 

दोहा

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत ।

जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ॥ ४४ ॥

 

चौपाई

सादर तेहि आगें करि बानर । चले जहाँ रघुपति करुनाकर ॥

दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता । नयनानंद दान के दाता ॥ १ ॥

बहुरि राम छबिधाम बिलोकी । रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी ॥

भुज प्रलंब कंजारुन लोचन । स्यामल गात प्रनत भय मोचन ॥ २ ॥

सिंघ कंध आयत उर सोहा । आनन अमित मदन मन मोहा ॥

नयन नीर पुलकित अति गाता । मन धरि धीर कही मृदु बाता ॥ ३ ॥

नाथ दसानन कर मैं भ्राता । निसिचर बंस जनम सुरत्राता ॥

सहज पापप्रिय तामस देहा । जथा उलूकहि तम पर नेहा ॥ ४ ॥

 

दोहा

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर ।

त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥ ४५ ॥

 

चौपाई

अस कहि करत दंडवत देखा । तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा ॥

दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा । भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा ॥ १ ॥

अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी । बोले बचन भगत भय हारी ॥

कहु लंकेस सहित परिवारा । कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ॥ २ ॥

खल मंडलीं बसहु दिन राती । सखा धरम निबहइ केहि भाँती ॥

मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती । अति नय निपुन न भाव अनीती ॥ ३ ॥

बरु भल बास नरक कर ताता । दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥

अब पद देखि कुसल रघुराया । जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया ॥ ४ ॥

 

दोहा

तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम ।

जब लगि भजन न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ॥ ४६ ॥

 

चौपाई

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना । लोभ मोह मच्छर मद माना ॥

जब लगि उर न बसत रघुनाथा । धरें चाप सायक कटि भाथा ॥ १ ॥

ममता तरुन तमी अँधिआरी । राग द्वेष उलूक सुखकारी ॥

तब लगि बसति जीव मन माहीं । जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं ॥ २ ॥

अब मैं कुसल मिटे भय भारे । देखि राम पद कमल तुम्हारे ॥

तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला । ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला ॥ ३ ॥

मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ । सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ ॥

जासु रूप मुनि ध्यान न आवा । तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा ॥ ४ ॥

 

दोहा

अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज ।

देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज ॥ ४७ ॥

 

चौपाई

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ । जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ ॥

जौं नर होइ चराचर द्रोही । आवौ सभय सरन तकि मोही ॥ १ ॥

तजि मद मोह कपट छल नाना । करउँ सद्य तेहि साधु समाना ॥

जननी जनक बंधु सुत दारा । तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ॥ २ ॥

सब कै ममता ताग बटोरी । मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ॥

समदरसी इच्छा कछु नाहीं । हरष सोक भय नहिं मन माहीं ॥ ३ ॥

अस सज्जन मम उर बस कैसें । लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें ॥

तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें । धरउँ देह नहिं आन निहोरें ॥ ४ ॥

 

दोहा

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम ।

ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥ ४८ ॥

 

चौपाई

सुन लंकेस सकल गुन तोरें । तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें ॥

राम बचन सुनि बानर जूथा । सकल कहहिं जय कृपा बरूथा ॥ १ ॥

सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी । नहिं अघात श्रवनामृत जानी ॥

पद अंबुज गहि बारहिं बारा । हृदयँ समात न प्रेमु अपारा ॥ २ ॥

सुनहु देव सचराचर स्वामी । प्रनतपाल उर अंतरजामी ॥

उर कछु प्रथम बासना रही । प्रभु पद प्रीति सरित सो बही ॥ ३ ॥

अब कृपाल निज भगति पावनी । देहु सदा सिव मन भावनी ॥

एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा । मागा तुरत सिंधु कर नीरा ॥ ४ ॥

जदपि सखा तव इच्छा नाहीं । मोर दरसु अमोघ जग माहीं ॥

अस कहि राम तिलक तेहि सारा । सुमन वृष्टि नभ भई अपारा ॥ ५ ॥

 

दोहा

रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड ।

जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ॥ ४९ क ॥

जो संपति सिव रावनहि दीन्ह दिएँ दस माथ ।

सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ ॥ ४९ ख ॥

 

चौपाई

अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना । ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना ॥

निज जन जानि ताहि अपनावा । प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा ॥ १ ॥

पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी । सर्बरूप सब रहित उदासी ॥

बोले बचन नीति प्रतिपालक । कारन मनुज दनुज कुल घालक ॥ २ ॥

सुनु कपीस लंकापति बीरा । केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा ॥

संकुल मकर उरग झष जाती । अति अगाध दुस्तर सब भाँती ॥ ३ ॥

कह लंकेस सुनहु रघुनायक । कोटि सिंधु सोषक तव सायक ॥

जद्यपि तदपि नीति असि गाई । बिनय करिअ सागर सन जाई ॥ ४ ॥

 

दोहा

प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि ।

बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥ ५० ॥

 

चौपाई

सखा कही तुम्ह नीकि उपाई । करिअ दैव जौं होइ सहाई ॥

मंत्र न यह लछिमन मन भावा । राम बचन सुनि अति दुख पावा ॥ १ ॥

नाथ दैव कर कवन भरोसा । सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा ॥

कादर मन कहुँ एक अधारा । दैव दैव आलसी पुकारा ॥ २ ॥

सुनत बिहसि बोले रघुबीरा । ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ॥

अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई । सिंधि समीप गए रघुराई ॥ ३ ॥

प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई । बैठे पुनि तट दर्भ डसाई ॥

जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए । पाछें रावन दूत पठाए ॥ ४ ॥

 

दोहा

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह ।

प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥ ५१ ॥

 

चौपाई

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ । अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ॥

रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने । सकल बाँधि कपीस पहिं आने ॥ १ ॥

कह सुग्रीव सुनहु सब बानर । अंग भंग करि पठवहु निसिचर ॥

सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए । बाँधि कटक चहु पास फिराए ॥ २ ॥

बहु प्रकार मारन कपि लागे । दीन पुकारत तदपि न त्यागे ॥

जो हमार हर नासा काना । तेहि कोसलाधीस कै आना ॥ ३ ॥

सुनि लछिमन सब निकट बोलाए । दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए ॥

रावन कर दीजहु यह पाती । लछिमन बचन बाचु कुलघाती ॥ ४ ॥

 

दोहा

कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार ।

सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार ॥ ५२ ॥

 

चौपाई

तुरत नाइ लछिमन पद माथा । चले दूत बरनत गुन गाता ॥

कहत राम जसु लंकाँ आए । रावन चरन सीस तिन्ह नाए ॥ १ ॥

बिहसि दसानन पूँछी बाता । कहसि न सुक आपनि कुसलाता ॥

पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी । जाहि मृत्यु आई अति नेरी ॥ २ ॥

करत राज लंका सठ त्यागी । होइहि जव कर कीट अभागी ॥

पुनि कहु भालु कीस कटकाई । कठिन काल प्रेरित चलि आई ॥ ३ ॥

जिन्ह के जीवन कर रखवारा । भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ॥

कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी । जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी ॥ ४ ॥

 

दोहा

की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर ।

कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥ ५३ ॥

 

चौपाई

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें । मानहु कहा क्रोध तजि तैसें ॥

मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा । जातहिं राम तिलक तेहि सारा ॥ १ ॥

रावन दूत हमहि सुनि काना । कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना ॥

श्रवन नासिका काटैं लागे । राम सपथ दीन्हें हम त्यागे ॥ २ ॥

पूँछिहु नाथ राम कटकाई । बदन कोटि सत बरनि न जाई ॥

नाना बरन भालु कपि धारी । बिकटानन बिसाल भयकारी ॥ ३ ॥

जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा । सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा ॥

अमित नाम भट कठिन कराला । अमित नाग बल बिपुल बिसाला ॥ ४ ॥

 

दोहा

द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि ।

दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ॥ ५४ ॥

 

चौपाई

ए कपि सब सुग्रीव समाना । इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना ॥

राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं । तृन समान त्रैलोकहि गनहीं ॥ १ ॥

अस मैं सुना श्रवन दसकंधर । पदुम अठारह जूथप बंदर ॥

नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं । जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं ॥ २ ॥

परम क्रोध मीजहिं सब हाथा । आयसु पै न देहिं रघुनाथा ॥

सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला । पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला ॥ ३ ॥

मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा । ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा ॥

गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका । मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका ॥ ४ ॥

 

दोहा

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम ।

रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम ॥ ५५ ॥

 

चौपाई

राम तेज बल बुधि बिपुलाई । सेष सहस सत सकहिं न गाई ॥

सक सर एक सोषि सत सागर । तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर ॥ १ ॥

तासु बचन सुनि सागर पाहीं । मागत पंथ कृपा मन माहीं ॥

सुनत बचन बिहसा दससीसा । जौं असि मति सहाय कृत कीसा ॥ २ ॥

सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई । सागर सन ठानी मचलाई ॥

मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई । रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई ॥ ३ ॥

सचिव सभीत बिभीषन जाकें । बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ॥

सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी । समय बिचार पत्रिका काढ़ी ॥ ४ ॥

रामानुज दीन्ही यह पाती । नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती ॥

बिहसि बाम कर लीन्ही रावन । सचिव बोलि सठ लाग बचावन ॥ ५ ॥

 

दोहा

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस ।

राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ॥ ५६ क ॥

की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग ।

होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ॥ ५६ ख ॥

 

चौपाई

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई । कहत दसानन सबहि सुनाई ॥

भूमि परा कर गहत अकासा । लघु तापस कर बाग बिलासा ॥ १ ॥

कह सुक नाथ सत्य सब बानी । समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ॥

सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा । नाथ राम सन तजहु बिरोधा ॥ २ ॥

अति कोमल रघुबीर सुभाऊ । जद्यपि अखिल लोक कर राऊ ॥

मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही । उर अपराध न एकउ धरही ॥ ३ ॥

जनकसुता रघुनाथहि दीजे । एतना कहा मोर प्रभु कीजे ॥

जब तेहि कहा देन बैदेही । चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही ॥ ४ ॥

नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ । कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ॥

करि प्रनामु निज कथा सुनाई । राम कृपाँ आपनि गति पाई ॥ ५ ॥

रिषि अगस्ति कीं साप भवानी । राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ॥

बंदि राम पद बारहिं बारा । मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ॥ ६ ॥

 

दोहा

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति ।

बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ॥ ५७ ॥

 

चौपाई

लछिमन बान सरासन आनू । सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ॥

सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती । सहज कृपन सन सुंदर नीती ॥ १ ॥

ममता रत सन ग्यान कहानी । अति लोभी सन बिरति बखानी ॥

क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा । ऊसर बीज बएँ फल जथा ॥ २ ॥

अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा । यह मत लछिमन के मन भावा ॥

संधानेउ प्रभु बिसिख कराला । उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ॥ ३ ॥

मकर उरग झष गन अकुलाने । जरत जंतु जलनिधि जब जाने ॥

कनक थार भरि मनि गन नाना । बिप्र रूप आयउ तजि माना ॥ ४ ॥

 

दोहा

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच ।

बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥ ५८ ॥

 

चौपाई

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे । छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ॥

गगन समीर अनल जल धरनी । इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ॥ १ ॥

तव प्रेरित मायाँ उपजाए । सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए ॥

प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई । सो तेहि भाँति रहें सुख लहई ॥ २ ॥

प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही । मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ॥

ढोल गँवार सूद्र पसु नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी ॥ ३ ॥

प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई । उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई ॥

प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई । करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई ॥ ४ ॥

 

दोहा

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ ।

जेहि बिधि उतरैं कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥ ५९ ॥

 

चौपाई

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई । लरिकाईं रिषि आसिष पाई ।

तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे । तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ॥ १ ॥

मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई । करिहउँ बल अनुमान सहाई ॥

एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ । जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ ॥ २ ॥

एहिं सर मम उत्तर तट बासी । हतहु नाथ खल नर अघ रासी ॥

सुनि कृपाल सागर मन पीरा । तुरतहिं हरी राम रन धीरा ॥ ३ ॥

देखि राम बल पौरुष भारी । हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ॥

सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा । चरन बंदि पाथोधि सिधावा ॥ ४ ॥

 

छंद

निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ ।

यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गाउअऊ ॥

सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना ।

तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ॥

 

दोहा

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान ।

सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ॥ ६० ॥

 

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पञ्चमः सोपानः समाप्तः ।

(सुन्दरकाण्ड समाप्त)