सुन्दरकाण्ड

श्रीगणेशाय नमः

श्रीरामचरितमानस पञ्चम सोपान- सुन्दरकाण्ड

 

श्लोक

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं

ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदांतवेद्यं विभुम् ।

रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं

वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम् ॥ १ ॥

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये

सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।

भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे

कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ २ ॥

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं

दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥ ३ ॥

 

चौपाई

जामवंत के बचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ॥

तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई । सहि दुख कंद मूल फल खाई ॥ १ ॥

जब लगि आवौं सीतहि देखी । होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ॥

यह कह नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ॥ २ ॥

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर । कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ॥

बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेउ पवनतनय बल भारी ॥ ३ ॥

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता । चलेउ सो गा पाताल तुरंता ॥

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना । एही भाँति चलेउ हनुमाना ॥ ४ ॥

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी । तैं मैनाक होहि श्रमहारी ॥ ५ ॥

 

दोहा

हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम ।

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम ॥ १ ॥

 

चौपाई

जात पवनसुत देवन्ह देखा । जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ॥

सुरसा नाम अहिन्ह कै माता । पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता ॥ १ ॥

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा । सुनत बचन कह पवनकुमारा ॥

राम काजु करि फिरि मैं आवौं । सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं ॥ २ ॥

तब तव बदन पैठिहउँ आई । सत्य कहउँ मोहि जान दे माई ॥

कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना । ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना ॥ ३ ॥

जोजन भरि तिहिं बदनु पसारा । कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥

सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ । तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ ॥ ४ ॥

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा । तासु दून कपि रूप देखावा ॥

सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा । अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ॥ ५ ॥

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा । मागा बिदा ताहि सिरु नावा ॥

मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा । बुधि बल मरमु तोर मैं पावा ॥ ६ ॥

 

दोहा

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान ।

आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥ २ ॥

 

चौपाई

निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई ॥ करि माया नभु के खग गहई ॥

जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं । जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ॥ १ ॥

गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई । एहि बिधि सदा गगनचर खाई ॥

सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा । तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ॥ २ ॥

ताहि मारि मारुतसुत बीरा । बारिधि पार गयउ मतिधीरा ॥

तहाँ जाइ देखी बन सोभा । गुंजत चंचरीक मधु लोभा ॥ ३ ॥

नाना तरु फल फूल सुहाए । खग मृग बृंद देखि मन भाए ॥

सैल बिसाल देखि एक आगें । ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें ॥ ४ ॥

उमा न कछु कपि कै अधिकाई ॥ प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ॥

गिरि पर चढ़ि लंका तेहि देखी । कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ॥ ५ ॥

अति उतंग जलनिधि चहु पासा । कनक कोटि कर परम प्रकासा ॥ ६ ॥

 

छंद

कनक कोटि बिचित्र मणि कृत सुंदरायतना घना ।

चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहुबिधि बना ॥

गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै ।

बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै ॥ १ ॥

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं ।

नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहीं ॥

कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं ।

नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं ॥ २ ॥

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं ।

कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं ॥

एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही ।

रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही ॥ ३ ॥

 

दोहा

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार ।

अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार ॥ ३ ॥

 

चौपाई

मसक समान रूप कपि धरी । लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ॥

नाम लंकिनी एक निसिचरी । सो कह चलेसि मोहि निंदरी ॥ १ ॥

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा । मोर अहार जहाँ लगि चोरा ॥

मुठिका एक महा कपि हनी । रुधिर बमत धरनीं डनमनी ॥ २ ॥

पुनि संभारि उठी सो लंका । जोरि पानि कर बिनय ससंका ॥

जब रावनहि ब्रह्म कर दीन्हा । चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ॥ ३॥

बिकल होसि तैं कपि कें मारे । तब जानेसु निसिचर संघारे ॥

तात मोर अति पुन्य बहूता । देखेउँ नयन राम कर दूता ॥ ४ ॥

 

दोहा

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।

तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥ ४ ॥

 

चौपाई

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा । हृदयँ राखि कोसलपुर राजा ॥

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई । गोपद सिंधु अनल सितलाई ॥ १ ॥

गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही । राम कृपा करि चितवा जाही ॥

अति लघु रूप धरेउ हनुमाना । पैठा नगर सुमिरि भगवाना ॥ २ ॥

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा । देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ॥

गयउ दसानान मंदिर माहीं । अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ॥ ३ ॥

सयन किएँ देखा कपि तेही । मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ॥

भवन एक पुनि दीख सुहावा । हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ॥ ४ ॥

 

दोहा

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ ।

नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ ॥ ५ ॥

 

चौपाई

लंका निसिचर निकर निवासा । इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ॥

मन महुँ तरक करैं कपि लागा । तेहीं समय बिभीषनु जागा ॥ १ ॥

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा । हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ॥

एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी । साधु ते होइ न कारज हानी ॥ २ ॥

बिप्र रूप धरि बचन सुनाए । सुनत बिभीषन उठि तहँ आए ॥

करि प्रनाम पूँछी कुसलाई । बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ॥ ३ ॥

की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई । मोरें हृदय प्रीति अति होई ॥

की तुम्ह रामु दीन अनुरागी । आयहु मोहि करन बड़भागी ॥ ४ ॥

 

दोहा

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम ।

सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥ ६ ॥

 

चौपाई

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी । जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ॥

तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा । करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ॥ १ ॥

तामस तनु कछु साधन नाहीं । प्रीति न पद सरोज मन माहीं ॥

अब मोहि भा भरोस हनुमंता । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ॥ २ ॥

जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा । तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ॥

सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती । करहिं सदा सेवक पर प्रीती ॥ ३ ॥

कहहु कवन मैं परम कुलीना । कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ॥

प्रात लेइ जो नाम हमारा । तेहि दिन ताहि न मिले अहारा ॥ ४ ॥

 

दोहा

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर ।

कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥ ७ ॥

 

चौपाई

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी । फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ॥

एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा । पावा अनिर्बाच्य विश्रामा ॥ १ ॥

पुनि सब कथा बिभीषन कही । जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही ॥

तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता । देखी चलेउँ जानकी माता ॥ २ ॥

जुगुति बिभीषन सकल सुनाई । चलेउ पवनसुत बिदा कराई ॥

करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ । बन असोक सीता रह जहवाँ ॥ ३ ॥

देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा । बैठेहिं बीति जात निसि जामा ॥

कृस तनु सीस जटा एक बेनी । जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी ॥ ४ ॥

 

दोहा

निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन ।

परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥ ८ ॥

 

चौपाई

तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई । करइ बिचार करौं का भाई ॥

तेहि अवसर रावनु तहँ आवा । संग नारि बहु किएँ बनावा ॥ १ ॥

बहु बिधि खल सीतहि समुझावा । साम दान भय भेद देखावा ॥

कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी । मंदोदरी आदि सब रानी ॥ २ ॥

तव अनुचरीं करेउँ पन मोरा । एक बार बिलोकु मम ओरा ॥

तृन धरि ओट कहति बैदेही । सुमिरि अवधपति परम सनेही ॥ ३ ॥

सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा । कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ॥

अस मन समुझु कहति जानकी । खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ॥ ४ ॥

सठ सूनें हरि आनेहि मोही । अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ॥ ५ ॥

 

दोहा

आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान ।

परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥ ९ ॥

 

चौपाई

सीता तैं मम कृत अपमाना । कटिहउँ तब सिर कठिन कृपाना ॥

नाहिं त सपदि मानु मम बानी । सुमुखि होति न त जीवन हानी ॥ १ ॥

स्याम सरोज दाम सम सुंदर । प्रभु भुज करि कर सम दसकंदर ॥

सो भुज कंठ कि तव असि घोरा । सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ॥ २ ॥

चंद्रहास हरु मम परितापं । रघुपति बिरह अनल संजातं ॥

सीतल निसित बहसि बर धारा । कह सीता हरु मम दुख भारा ॥ ३ ॥

सुनत बचन पुनि मारन धावा । मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ॥

कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई । सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ॥ ४ ॥

मास दिवस महुँ कहा न माना । तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना ॥ ५ ॥

 

दोहा

भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद ।

सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ॥ १० ॥

 

चौपाई

त्रिजटा नाम राच्छसी एका । राम चरन रति निपुन बिबेका ॥

सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना । सीतहि सेइ करहु हित अपना ॥ १ ॥

सपनें बानर लंका जारी । जातुधान सेना सब मारी ॥

खर आरूढ़ नगन दससीसा । मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ॥ २ ॥

एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई । लंका मनहुँ बिभीषन पाई ॥

नगर फिरी रघुबीर दोहाई । तब प्रभु सीता बोलि पठाई ॥ ३ ॥

यह सपना मैं कहउँ पुकारी । होइहि सत्य गएँ दिन चारी ॥

तासु बचन सुनि ते सब डरीं । जनकसुता के चरनन्हि परीं ॥ ४ ॥

 

दोहा

जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच ।

मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥ ११ ॥

 

चौपाई

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी । मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ॥

तजौं देह करु बेगि उपाई । दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई ॥ १ ॥

आनि काठ रचु चिता बनाई । मातु अनल पुनि देहु लगाई ॥

सत्य करहि मम प्रीति सयानी । सुनै को श्रवन सूल सम बानी ॥ २ ॥

सुनत बचन पद गहि समुझाएसि । प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ॥

निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी । अस कहि सो निज भवन सिधारी ॥ ३ ॥

कह सीता बिधि भा प्रतिकूला । मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला ॥

देखिअत प्रगट गगन अंगारा । अवनि न आवत एकउ तारा ॥ ४ ॥

पावकमय ससि स्रवत न आगी । मानहुँ मोहि जानि हतभागी ॥

सुनहि बिनय मम बिटप असोका । सत्य नाम करु हरु मम सोका ॥ ५ ॥

नूतन किसलय अनल समाना । देहि अगिनि जनि करहि निदाना ॥

देखि परम बिरहाकुल सीता । सो छन कपिहि कलप सम बीता ॥ ६ ॥

 

दोहा

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब ।

जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ ॥ १२ ॥

 

चौपाई

तब देखी मुद्रिका मनोहर । राम नाम अंकित अति सुंदर ॥

चकित चितव मुदरी पहिचानी । हरष विषाद हृदयँ अकुलानी ॥ १ ॥

जीति को सकइ अजय रघुराई । माया तें असि रचि नहिं जाई ॥

सीता मन बिचार कर नाना । मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ॥ २ ॥

रामचंद्र गुन बरनैं लागा । सुनतहिं सीता कर दुख भागा ॥

लागीं सुनैं श्रवन मन लाई । आदिहु तें सब कथा सुनाई ॥ ३ ॥

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई । कही सो प्रगट होति किन भाई ॥

तब हनुमंत निकट चलि गयऊ । फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥ ४ ॥

राम दूत मैं मातु जानकी । सत्य सपथ करुनानिधान की ॥

यह मुद्रिका मातु मैं आनी । दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ॥ ५ ॥

नर बानरहि संग कहु कैसें । कही कथा भई संगति जैसें ॥ ६ ॥

 

दोहा

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास ।

जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥ १३ ॥

 

चौपाई

हरिजन हानि प्रीति अति गाढ़ी । सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ॥

बूड़त बिरह जलधि हनुमाना । भयहु तात मो कहुँ जलजाना ॥ १ ॥

अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी । अनुज सहित सुख भवन खरारी ॥

कोमलचित कृपाल रघुराई । कपि केहि हेतु धरी निठुराई ॥ २ ॥

सहज बानि सेवक सुख दायक । कबहुँक सुरति करत रघुनायक ॥

कबहुँ नयन मम सीतल ताता । होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता ॥ ३ ॥

बचनु न आव नयन भरे बारी । अहह नाथ हौं निपट बिसारी ॥

देखि परम बिरहाकुल सीता । बोला कपि मृदु बचन बिनीता ॥ ४ ॥

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता । तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ॥

जनि जननी मानहु जियँ ऊना । तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना ॥ ५ ॥

 

दोहा

रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर ।

अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥ १४ ॥

 

चौपाई

कहेउ राम बियोग तव सीता । मो कहुँ सकल भए बिपरीता ॥

नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू । कालनिसा सम निसि ससि भानू ॥ १ ॥

कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा । बारिद तपत तेल जनु बरिसा ॥

जे हित रहे करत तेइ पीरा । उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ॥ २ ॥

कहेहू तें कछु दुख घटि होई । काहि कहौं यह जान न कोई ॥

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा । जानत प्रिया एकु मनु मोरा ॥ ३ ॥

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं । जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ॥

प्रभु संदेसु सुनत बैदेही । मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ॥ ४ ॥

कह कपि हृदयँ धीर धरु माता । सुमिरु राम सेवक सुखदाता ॥

उर आनहु रघुपति प्रभुताई । सुनि मम बचन तजहु कदराई ॥ ५ ॥

 

दोहा

निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु ।

जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥ १५ ॥

 

चौपाई

जौं रघुबीर होति सुधि पाई । करते नहिं बिलंबु रघुराई ॥

राम बान रबि उएँ जानकी । तम बरूथ कहँ जातुधान की ॥ १ ॥

अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई । प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ॥

कछुक दिवस जननी धरु धीरा । कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ॥ २ ॥

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं । तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ॥

हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना । जातुधान अति भट बलवाना ॥ ३ ॥

मोरें हृदय परम संदेहा । सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा ॥

कनक भूधराकार सरीरा । समर भयंकर अतिबल बीरा ॥ ४ ॥

सीता मन भरोस तब भयऊ । पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ॥ ५ ॥

 

दोहा

सुनु मात साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल ।

प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥ १६ ॥

 

चौपाई

मन संतोष सुनत कपि बानी । भगति प्रताप तेज बल सानी ॥

आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना । होहु तात बल सील निधाना ॥ १ ॥

अजर अमर गुननिधि सुत होहू । करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ॥

करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना । निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥ २ ॥

बार बार नाएसि पद सीसा । बोला बचन जोरि कर कीसा ॥

अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता । आसिष तव अमोघ बिख्याता ॥ ३ ॥

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा । लागि देखि सुंदर फल रूखा ॥

सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी । परम सुभट रजनीचर भारी ॥ ४ ॥

तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं । जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ॥ ५ ॥

 

दोहा

देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु ।

रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥ १७ ॥

 

चौपाई

चलेउ नाइ सिर पैठेउ बागा । फल खाएसि तरु तौरैं लागा ॥

रहे तहां बहु भट रखवारे । कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे ॥ १ ॥

नाथ एक आवा कपि भारी । तेहिं असोक बाटिका उजारी ॥

खाएसि फल अरु बिटप उपारे । रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ॥ २ ॥

सुनि रावन पठए भट नाना । तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ॥

सब रजनीचर कपि संघारे । गए पुकारत कछु अधमारे ॥ ३ ॥

पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा । चला संग लै सुभट अपारा ॥

आवत देखि बिटप गहि तर्जा । ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ॥ ४ ॥

 

दोहा

कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि ।

कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥ १८ ॥

 

चौपाई

सुनि सुत बध लंकेस रिसाना । पठएसि मेघनाद बलवाना ॥

मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही । देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ॥ १ ॥

चला इंद्रजित अतुलित जोधा । बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ॥

कपि देखा दारुन भट आवा । कटकटाइ गर्जा अरु धावा ॥ २ ॥

अति बिसाल तरु एक उपारा । बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ॥

रहे महाभट ताके संगा । गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा ॥ ३ ॥

तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा । भिरे जुगल मानहुँ गजराजा ॥

मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई । ताहि एक छन मुरुछा आई ॥ ४ ॥

उठि बहोरि कीन्हसि बहु माया । जीति न जाइ प्रभंजन जाया ॥ ५ ॥

 

दोहा

ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार ।

जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥ १९ ॥

 

चौपाई

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा । परतिहुँ बार कटकु संघारा ॥

तेहिं देखा कपि मुरुछित भयउ । नागपास बांधेसि लै गयउ ॥ १ ॥

जासु नाम जपि सुनहु भवानी । भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ॥

तासु दूत कि बंध तरु आवा । प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ॥ २ ॥

कपि बंधन सुनि निसिचर धाए । कौतुक लागि सभाँ सब आए ॥

दसमुख सभा दीखि कपि जाई । कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥ ३ ॥

कर जोरें सुर दिसिप बिनीता । भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ॥

देखि प्रताप न कपि मन संका । जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥ ४ ॥

 

दोहा

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद ।

सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ॥ २० ॥

 

चौपाई

कह लंकेस कवन तैं कीसा । केहि कें बल घालेहि बन खीसा ॥

की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही । देखउँ अति असंक सठ तोही ॥ १ ॥

मारे निसिचर केहिं अपराधा । कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ॥

सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया । पाइ जासु बल बिरचित माया ॥ २ ॥

जाकें बल बिरंचि हरि ईसा । पालत सृजत हरत दससीसा ॥

जा बल सीस धरत सहसानन । अंडकोस समेत गिरि कानन ॥ ३ ॥

धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता । तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता ॥

हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा । तेहि समेत नृप दल मद गंजा ॥ ४ ॥

खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली । बधे सकल अतुलित बलसाली ॥ ५ ॥

 

दोहा

जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि ।

तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥ २१ ॥

 

चौपाई

जानेउ मैं तुम्हारि प्रभुताई । सहसबाहु सन परी लराई ॥

समर बालि सन करि जसु पावा । सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ॥ १ ॥

खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा । कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ॥

सब कें देह परम प्रिय स्वामी । मारहिं मोहि कुमारग गामी ॥ २ ॥

जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे । तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे ॥

मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा । कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥ ३ ॥

बिनती करउँ जोरि कर रावन । सुनहु मान तजि मोर सिखावन ॥

देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी । भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ॥ ४ ॥

जाकें डर अति काल डेराई । जो सुर असुर चराचर खाई ॥

तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै । मोरे कहें जानकी दीजै ॥ ५ ॥

 

दोहा

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि ।

गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥ २२ ॥

 

चौपाई

राम चरन पंकज उर धरहू । लंकाँ अचल राज तुम्ह करहू ॥

रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका । तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ॥ १ ॥

राम नाम बिनु गिरा न सोहा । देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ॥

बसन हीन नहिं सोह सुरारी । सब भूषन भूषित बर नारी ॥ २ ॥

राम बिमुख संपति प्रभुताई । जाइ रही पाई बिनु पाई ॥

सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं । बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं ॥ ३ ॥

सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी । बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ॥

संकर सहस बिष्नु अज तोही । सकहिं न राखि राम कर द्रोही ॥ ४ ॥

 

दोहा

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान ।

भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥ २३ ॥

 

चौपाई

जदपि कही कपि अति हित बानी । भगति बिबेक बिरति नय सानी ॥

बोला बिहसि महा अभिमानी । मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी ॥ १ ॥

मृत्यु निकट आई खल तोही । लागेसि अधम सिखावन मोही ॥

उलटा होइहि कह हनुमाना । मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना ॥ २ ॥

सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना । बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना ॥

सुनत निसाचर मारन धाए । सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए ॥ ३ ॥

नाइ सीस करि बिनय बहूता । नीति बिरोधा न मारिअ दूता ॥

आन दंड कछु करिअ गोसाँई । सबहीं कहा मंत्र भल भाई ॥ ४ ॥

सुनत बिहसि बोला दसकंधर । अंग भंग करि पठइअ बंदर ॥ ५ ॥

 

दोहा

कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ ।

तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥ २४ ॥

 

चौपाई

पूँछ हीन बानर तहँ जाइहि । तब सठ निज नाथहि लइ आइहि ॥

जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई । देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई ॥ १ ॥

बचन सुनत कपि मन मुसुकाना । भइ सहाय सारद मैं जाना ॥

जातुधान सुनि रावन बचना । लागे रचें मूढ़ सोइ रचना ॥ २ ॥

रहा न नगर बसन घृत तेला । बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ॥

कौतुक कहँ आए पुरबासी । मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ॥ ३ ॥

बाजहिं ढोल देहिं सब तारी । नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ॥

पावक जरत देखि हनुमंता । भयउ परम लघुरूप तुरंता ॥ ४ ॥

निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं । भइँ सभीत निसाचर नारीं ॥ ५ ॥

 

दोहा

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास ।

अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ॥ २५ ॥

 

चौपाई

देह बिसाल परम हरुआई । मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ॥

जरइ नगर भा लोग बिहाला । झपट लपट बहु कोटि कराला ॥ १ ॥

तात मातु हा सुनिअ पुकारा । एहिं अवसर को हमहि उबारा ॥

हम जो कहा यह कपि नहिं होई । बानर रूप धरें सुर कोई ॥ २ ॥

साधु अवग्या कर फलु ऐसा । जरइ नगर अनाथ कर जैसा ॥

जारा नगर निमिष एक माहीं । एक बिभीषन कर गृह नाहीं ॥ ३ ॥

ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा । जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ॥

उलटि पलटि लंका सब जारी । कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ॥ ४ ॥

 

दोहा

पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि ।

जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ॥ २६ ॥

 

चौपाई

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा । जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ॥

चूड़ामनि उतारि तब दयऊ । हरष समेत पवनसुत लयऊ ॥ १ ॥

कहेहु तात अस मोर प्रनामा । सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ॥

दीन दयाल बिरिदु सँभारी । हरहु नाथ मम संकट भारी ॥ २ ॥

तात सक्रसुत कथा सुनाएहु । बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ॥

मास दिवस महुँ नाथ न आवा । तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ॥ ३ ॥

कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना । तुम्हहू तात कहत अब जाना ॥

तोहि देखि सीतलि भइ छाती । पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती ॥ ४ ॥

 

दोहा

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह ।

चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ॥ २७ ॥

 

चौपाई

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी । गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी ॥

नाघि सिंधु एहि पारहि आवा । सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा ॥ १ ॥

हरषे सब बिलोकि हनुमाना । नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ॥

मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा । कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा ॥ २ ॥

मिले सकल अति भए सुखारी । तलफत मीन पाव जिमि बारी ॥

चले हरषि रघुनायक पासा । पूँछत कहत नवल इतिहासा ॥ ३ ॥

तब मधुबन भीतर सब आए । अंगद संमत मधु फल खाए ॥

रखवारे जब बरजन लागे मुष्टि प्रहार हनत सब भागे ॥ ४ ॥

 

दोहा

जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज ।

सुन सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥ २८ ॥

 

चौपाई

जौं न होति सीता सुधि पाई । मधुबन के फल सकहिं कि खाई ॥

एहि बिधि मन बिचार कर राजा । आइ गए कपि सहित समाजा ॥ १ ॥

आइ सबन्हि नावा पद सीसा । मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा ॥

पूँछी कुसल कुसल पद देखी । राम कृपाँ भा काजु बिसेषी ॥ २ ॥

नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना । राखे सकल कपिन्ह के प्राना ॥

सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ । कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ ॥ ३ ॥

राम कपिन्ह जब आवत देखा । किएँ काजु मन हरष बिसेषा ॥

फटिक सिला बैठे द्वौ भाई । परे सकल कपि चरनन्हि जाई ॥ ४ ॥

 

दोहा

प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज ।

पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥ २९॥

 

चौपाई

जामवंत कह सुनु रघुराया । जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया ॥

ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर । सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर ॥ १ ॥

सोइ बिजई बिनई गुन सागर । तासु सुजसु त्रैलोक उजागर ॥

प्रभु कीं कृपा भयउ सब काजू । जन्म हमार सुफल भा आजू ॥ २ ॥

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी । सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ॥

पवनतनय के चरित सुहाए । जामवंत रघुपतिहि सुनाए ॥ ३ ॥

सुनत कृपानिधि मन अति भाए । पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ॥

कहहु तात केहि भाँति जानकी । रहति करति रच्छा स्वप्रान की ॥ ४ ॥

 

दोहा

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट ।

लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥ ३० ॥

 

चौपाई

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही । रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ॥

नाथ जुगल लोचन भरि बारी । बचन कहे कछु जनककुमारी ॥ १ ॥

अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना । दीन बंधु प्रनतारति हरना ॥

मन क्रम बचन चरन अनुरागी । केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी ॥ २॥

अवगुन एक मोर मैं माना । बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ॥

नाथ सो नयनन्हि को अपराधा । निसरत प्रान करहिं हठि बाधा ॥ ३ ॥

बिरह अगिनि तनु तूल समीरा । स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ॥

नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी । जरैं न पाव देह बिरहागी ॥ ४ ॥

सीता कै अति बिपति बिसाला । बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ॥ ५ ॥