दोहा
तानेउ चाप श्रवन लगि छाँड़े बिसिख कराल ।
राम मारगन गन चले लहलहात जनु ब्याल ॥ ९१ ॥
चौपाई
चले बान सपच्छ जनु उरगा । प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा ॥
रथ बिभंजि हति केतु पताका । गर्जा अति अंतर बल थाका ॥१॥
तुरत आन रथ चढ़ि खिसिआना । अस्त्र सस्त्र छाँड़ेसि बिधि नाना ॥
बिफल होहिं सब उद्यम ताके । जिमि परद्रोह निरत मनसा के ॥२॥
तब रावन दस सूल चलावा । बाजि चारि महि मारि गिरावा ॥
तुरग उठाइ कोपि रघुनायक । खैंचि सरासन छाँड़े सायक ॥३॥
रावन सिर सरोज बनचारी । चलि रघुबीर सिलीमुख धारी ॥
दस दस बान भाल दस मारे । निसरि गए चले रुधिर पनारे ॥४॥
स्त्रवत रुधिर धायउ बलवाना । प्रभु पुनि कृत धनु सर संधाना ॥
तीस तीर रघुबीर पबारे । भुजन्हि समेत सीस महि पारे ॥५॥
काटतहीं पुनि भए नबीने । राम बहोरि भुजा सिर छीने ॥
प्रभु बहु बार बाहु सिर हए । कटत झटिति पुनि नूतन भए ॥६॥
पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा । अति कौतुकी कोसलाधीसा ॥
रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू । मानहुँ अमित केतु अरु राहू ॥७॥
छंद
जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्त्रवत सोनित धावहीं ।
रघुबीर तीर प्रचंड लागहिं भूमि गिरन न पावहीं ॥
एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उड़त इमि सोहहीं ।
जनु कोपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुंतुद पोहहीं ॥
दोहा
जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि तिमि होहिं अपार ।
सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार ॥ ९२ ॥
चौपाई
दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढ़ी । बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी ॥
गर्जेउ मूढ़ महा अभिमानी । धायउ दसहु सरासन तानी ॥१॥
समर भूमि दसकंधर कोप्यो । बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो ॥
दंड एक रथ देखि न परेऊ । जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ ॥२॥
हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा । तब प्रभु कोपि कारमुक लीन्हा ॥
सर निवारि रिपु के सिर काटे । ते दिसि बिदिस गगन महि पाटे ॥३॥
काटे सिर नभ मारग धावहिं । जय जय धुनि करि भय उपजावहिं ॥
कहँ लछिमन सुग्रीव कपीसा । कहँ रघुबीर कोसलाधीसा ॥४॥
छंद
कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले ।
संधानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले ॥
सिर मालिका कर कालिका गहि बृंद बृंदन्हि बहु मिलीं ।
करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ संग्राम बट पूजन चलीं ॥
दोहा
पुनि दसकंठ क्रुद्ध होइ छाँड़ी सक्ति प्रचंड ।
चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दंड ॥ ९३ ॥
चौपाई
आवत देखि सक्ति अति घोरा । प्रनतारति भंजन पन मोरा ॥
तुरत बिभीषन पाछें मेला । सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला ॥१॥
लागि सक्ति मुरुछा कछु भई । प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई ॥
देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो । गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो ॥२॥
रे कुभाग्य सठ मंद कुबुद्धे । तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे ॥
सादर सिव कहुँ सीस चढ़ाए । एक एक के कोटिन्ह पाए ॥३॥
तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो । अब तव कालु सीस पर नाच्यो ॥
राम बिमुख सठ चहसि संपदा । अस कहि हनेसि माझ उर गदा ॥४॥
छंद
उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर यो ।
दस बदन सोनित स्त्रवत पुनि संभारि धायो रिस भर यो ॥
द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै ।
रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै ॥
दोहा
उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ ।
सो अब भिरत काल ज्यों श्रीरघुबीर प्रभाउ ॥ ९४ ॥
चौपाई
देखा श्रमित बिभीषनु भारी । धायउ हनूमान गिरि धारी ॥
रथ तुरंग सारथी निपाता । हृदय माझ तेहि मारेसि लाता ॥१॥
ठाढ़ रहा अति कंपित गाता । गयउ बिभीषनु जहँ जनत्राता ॥
पुनि रावन कपि हतेउ पचारी । चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी ॥२॥
गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना । पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना ॥
लरत अकास जुगल सम जोधा । एकहि एकु हनत करि क्रोधा ॥३॥
सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं । कज्जल गिरि सुमेरु जनु लरहीं ॥
बुधि बल निसिचर परइ न पार यो । तब मारुत सुत प्रभु संभार यो ॥४॥
छंद
संभारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो ।
महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो ॥
हनुमंत संकट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले ।
रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचंड भुज बल दलमले ॥
दोहा
तब रघुबीर पचारे धाए कीस प्रचंड ।
कपि बल प्रबल देखि तेहिं कीन्ह प्रगट पाषंड ॥ ९५ ॥
चौपाई
अंतरधान भयउ छन एका । पुनि प्रगटे खल रूप अनेका ॥
रघुपति कटक भालु कपि जेते । जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते ॥१॥
देखे कपिन्ह अमित दससीसा । जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा ॥
भागे बानर धरहिं न धीरा । त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा ॥२॥
दहँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन । गर्जहिं घोर कठोर भयावन ॥
डरे सकल सुर चले पराई । जय कै आस तजहु अब भाई ॥३॥
सब सुर जिते एक दसकंधर । अब बहु भए तकहु गिरि कंदर ॥
रहे बिरंचि संभु मुनि ग्यानी । जिन्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी ॥४॥
छंद
जाना प्रताप ते रहे निर्भय कपिन्ह रिपु माने फुरे ।
चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे ॥
हनुमंत अंगद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे ।
मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अंकुरे ॥
दोहा
सुर बानर देखे बिकल हँस्यो कोसलाधीस ।
सजि सारंग एक सर हते सकल दससीस ॥ ९६ ॥
चौपाई
प्रभु छन महुँ माया सब काटी । जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी ॥
रावनु एकु देखि सुर हरषे । फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे ॥१॥
भुज उठाइ रघुपति कपि फेरे । फिरे एक एकन्ह तब टेरे ॥
प्रभु बलु पाइ भालु कपि धाए । तरल तमकि संजुग महि आए ॥२॥
अस्तुति करत देवतन्हि देखें । भयउँ एक मैं इन्ह के लेखें ॥
सठहु सदा तुम्ह मोर मरायल । अस कहि कोपि गगन पर धायल ॥३॥
हाहाकार करत सुर भागे । खलहु जाहु कहँ मोरें आगे ॥
देखि बिकल सुर अंगद धायो । कूदि चरन गहि भूमि गिरायो ॥४॥
छंद
गहि भूमि पार यो लात मार यो बालिसुत प्रभु पहिं गयो ।
संभारि उठि दसकंठ घोर कठोर रव गर्जत भयो ॥
करि दाप चाप चढ़ाइ दस संधानि सर बहु बरषई ।
किए सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषई ॥
दोहा
तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप ।
काटे बहुत बढ़े पुनि जिमि तीरथ कर पाप ।९७ ॥
चौपाई
सिर भुज बाढ़ि देखि रिपु केरी । भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी ॥
मरत न मूढ़ कटेउ भुज सीसा । धाए कोपि भालु भट कीसा ॥१॥
बालितनय मारुति नल नीला । बानरराज दुबिद बलसीला ॥
बिटप महीधर करहिं प्रहारा । सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा ॥२॥
एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी । भागि चलहिं एक लातन्ह मारी ॥
तब नल नील सिरन्हि चढ़ि गयऊ । नखन्हि लिलार बिदारत भयऊ ॥३॥
रुधिर देखि बिषाद उर भारी । तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी ॥
गहे न जाहिं करन्हि पर फिरहीं । जनु जुग मधुप कमल बन चरहीं ॥४॥
कोपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी । महि पटकत भजे भुजा मरोरी ॥
पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे । सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे ॥५॥
हनुमदादि मुरुछित करि बंदर । पाइ प्रदोष हरष दसकंधर ॥
मुरुछित देखि सकल कपि बीरा । जामवंत धायउ रनधीरा ॥६॥
संग भालु भूधर तरु धारी । मारन लगे पचारि पचारी ॥
भयउ क्रुद्ध रावन बलवाना । गहि पद महि पटकइ भट नाना ॥७॥
देखि भालुपति निज दल घाता । कोपि माझ उर मारेसि लाता ॥८॥
छंद
उर लात घात प्रचंड लागत बिकल रथ ते महि परा ।
गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा ॥
मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयौ ।
निसि जानि स्यंदन घालि तेहि तब सूत जतनु करत भयो ॥
दोहा
मुरुछा बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास ।
निसिचर सकल रावनहि घेरि रहे अति त्रास ॥ ९८ ॥
।। मासपारायण, छब्बीसवाँ विश्राम ।।
चौपाई
तेही निसि सीता पहिं जाई । त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई ॥
सिर भुज बाढ़ि सुनत रिपु केरी । सीता उर भइ त्रास घनेरी ॥१॥
मुख मलीन उपजी मन चिंता । त्रिजटा सन बोली तब सीता ॥
होइहि कहा कहसि किन माता । केहि बिधि मरिहि बिस्व दुखदाता ॥२॥
रघुपति सर सिर कटेहुँ न मरई । बिधि बिपरीत चरित सब करई ॥
मोर अभाग्य जिआवत ओही । जेहिं हौ हरि पद कमल बिछोही ॥३॥
जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा । अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा ॥
जेहिं बिधि मोहि दुख दुसह सहाए । लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए ॥४॥
रघुपति बिरह सबिष सर भारी । तकि तकि मार बार बहु मारी ॥
ऐसेहुँ दुख जो राख मम प्राना । सोइ बिधि ताहि जिआव न आना ॥५॥
बहु बिधि कर बिलाप जानकी । करि करि सुरति कृपानिधान की ॥
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी । उर सर लागत मरइ सुरारी ॥६॥
प्रभु ताते उर हतइ न तेही । एहि के हृदयँ बसति बैदेही ॥७॥
छंद
एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है ।
मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है ॥
सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा ।
अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा ॥
दोहा
काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान ।
तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान ॥ ९९ ॥
चौपाई
अस कहि बहुत भाँति समुझाई । पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई ॥
राम सुभाउ सुमिरि बैदेही । उपजी बिरह बिथा अति तेही ॥१॥
निसिहि ससिहि निंदति बहु भाँती । जुग सम भई सिराति न राती ॥
करति बिलाप मनहिं मन भारी । राम बिरहँ जानकी दुखारी ॥२॥
जब अति भयउ बिरह उर दाहू । फरकेउ बाम नयन अरु बाहू ॥
सगुन बिचारि धरी मन धीरा । अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा ॥३॥
इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा । निज सारथि सन खीझन लागा ॥
सठ रनभूमि छड़ाइसि मोही । धिग धिग अधम मंदमति तोही ॥४॥
तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा । भौरु भएँ रथ चढ़ि पुनि धावा ॥
सुनि आगवनु दसानन केरा । कपि दल खरभर भयउ घनेरा ॥५॥
जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी । धाए कटकटाइ भट भारी ॥६॥
छंद
धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा ।
अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा ॥
बिचलाइ दल बलवंत कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो ।
चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तनु ब्याकुल कियो ॥
दोहा
देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार ।
अंतरहित होइ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार ॥ १०० ॥
छंद
जब कीन्ह तेहिं पाषंड । भए प्रगट जंतु प्रचंड ॥
बेताल भूत पिसाच । कर धरें धनु नाराच ॥ १ ॥
जोगिनि गहें करबाल । एक हाथ मनुज कपाल ॥
करि सद्य सोनित पान । नाचहिं करहिं बहु गान ॥ २ ॥
धरु मारु बोलहिं घोर । रहि पूरि धुनि चहुँ ओर ॥
मुख बाइ धावहिं खान । तब लगे कीस परान ॥ ३ ॥
जहँ जाहिं मर्कट भागि । तहँ बरत देखहिं आगि ॥
भए बिकल बानर भालु । पुनि लाग बरषै बालु ॥ ४ ॥
जहँ तहँ थकित करि कीस । गर्जेउ बहुरि दससीस ॥
लछिमन कपीस समेत । भए सकल बीर अचेत ॥ ५ ॥
हा राम हा रघुनाथ । कहि सुभट मीजहिं हाथ ॥
एहि बिधि सकल बल तोरि । तेहिं कीन्ह कपट बहोरि ॥ ६ ॥
प्रगटेसि बिपुल हनुमान । धाए गहे पाषान ॥
तिन्ह रामु घेरे जाइ । चहुँ दिसि बरूथ बनाइ ॥ ७ ॥
मारहु धरहु जनि जाइ । कटकटहिं पूँछ उठाइ ॥
दहँ दिसि लँगूर बिराज । तेहिं मध्य कोसलराज ॥ ८ ॥
छंद
तेहिं मध्य कोसलराज सुंदर स्याम तन सोभा लही ।
जनु इंद्रधनुष अनेक की बर बारि तुंग तमालही ॥
प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी ।
रघुबीर एकहि तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी ॥ १ ॥
माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे ।
सर निकर छाड़े राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे ॥
श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं ।
सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीं ॥ २ ॥
दोहा
ताके गुन गन कछु कहे जड़मति तुलसीदास ।
जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़इ अकास ॥ १०१(क) ॥
काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेस ।
प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस ॥ १०१(ख) ॥
चौपाई
काटत बढ़हिं सीस समुदाई । जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ॥
मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा । राम बिभीषन तन तब देखा ॥१॥
उमा काल मर जाकीं ईछा । सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा ॥
सुनु सरबग्य चराचर नायक । प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक ॥२॥
नाभिकुंड पियूष बस याकें । नाथ जिअत रावनु बल ताकें ॥
सुनत बिभीषन बचन कृपाला । हरषि गहे कर बान कराला ॥३॥
असुभ होन लागे तब नाना । रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना ॥
बोलहि खग जग आरति हेतू । प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू ॥४॥
दस दिसि दाह होन अति लागा । भयउ परब बिनु रबि उपरागा ॥
मंदोदरि उर कंपति भारी । प्रतिमा स्त्रवहिं नयन मग बारी ॥५॥
छंद
प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही ।
बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही ॥
उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहि जय जए ।
सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए ॥
दोहा
खैचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस ।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस ॥ १०२ ॥
चौपाई
सायक एक नाभि सर सोषा । अपर लगे भुज सिर करि रोषा ॥
लै सिर बाहु चले नाराचा । सिर भुज हीन रुंड महि नाचा ॥१॥
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा । तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा ॥
गर्जेउ मरत घोर रव भारी । कहाँ रामु रन हतौं पचारी ॥२॥
डोली भूमि गिरत दसकंधर । छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर ॥
धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई । चापि भालु मर्कट समुदाई ॥३॥
मंदोदरि आगें भुज सीसा । धरि सर चले जहाँ जगदीसा ॥
प्रबिसे सब निषंग महु जाई । देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई ॥४॥
तासु तेज समान प्रभु आनन । हरषे देखि संभु चतुरानन ॥
जय जय धुनि पूरी ब्रह्मंडा । जय रघुबीर प्रबल भुजदंडा ॥५॥
बरषहि सुमन देव मुनि बृंदा । जय कृपाल जय जयति मुकुंदा ॥६॥
छंद
जय कृपा कंद मुकंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो ।
खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो ॥
सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही ।
संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही ॥
सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं ।
जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उड़ुगन भ्राजहीं ॥
भुजदंड सर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने ।
जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने ॥
दोहा
कृपादृष्टि करि प्रभु अभय किए सुर बृंद ।
भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकंद ॥ १०३ ॥
चौपाई
पति सिर देखत मंदोदरी । मुरुछित बिकल धरनि खसि परी ॥
जुबति बृंद रोवत उठि धाईं । तेहि उठाइ रावन पहिं आई ॥१॥
पति गति देखि ते करहिं पुकारा । छूटे कच नहिं बपुष सँभारा ॥
उर ताड़ना करहिं बिधि नाना । रोवत करहिं प्रताप बखाना ॥२॥
तव बल नाथ डोल नित धरनी । तेज हीन पावक ससि तरनी ॥
सेष कमठ सहि सकहिं न भारा । सो तनु भूमि परेउ भरि छारा ॥३॥
बरुन कुबेर सुरेस समीरा । रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा ॥
भुजबल जितेहु काल जम साईं । आजु परेहु अनाथ की नाईं ॥४॥
जगत बिदित तुम्हारी प्रभुताई । सुत परिजन बल बरनि न जाई ॥
राम बिमुख अस हाल तुम्हारा । रहा न कोउ कुल रोवनिहारा ॥५॥
तव बस बिधि प्रपंच सब नाथा । सभय दिसिप नित नावहिं माथा ॥
अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं । राम बिमुख यह अनुचित नाहीं ॥६॥
काल बिबस पति कहा न माना । अग जग नाथु मनुज करि जाना ॥७॥
छंद
जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं ।
जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं ॥
आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं ।
तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं ॥
दोहा
अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन ।
जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान ॥ १०४ ॥
चौपाई
मंदोदरी बचन सुनि काना । सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना ॥
अज महेस नारद सनकादी । जे मुनिबर परमारथबादी ॥१॥
भरि लोचन रघुपतिहि निहारी । प्रेम मगन सब भए सुखारी ॥
रुदन करत देखीं सब नारी । गयउ बिभीषनु मन दुख भारी ॥२॥
बंधु दसा बिलोकि दुख कीन्हा । तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा ॥
लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो । बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो ॥३॥
कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका । करहु क्रिया परिहरि सब सोका ॥
कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी । बिधिवत देस काल जियँ जानी ॥४॥
दोहा
मंदोदरी आदि सब देइ तिलांजलि ताहि ।
भवन गई रघुपति गुन गन बरनत मन माहि ॥ १०५ ॥
चौपाई
आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो । कृपासिंधु तब अनुज बोलायो ॥
तुम्ह कपीस अंगद नल नीला । जामवंत मारुति नयसीला ॥१॥
सब मिलि जाहु बिभीषन साथा । सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा ॥
पिता बचन मैं नगर न आवउँ । आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ ॥२॥
तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना । कीन्ही जाइ तिलक की रचना ॥
सादर सिंहासन बैठारी । तिलक सारि अस्तुति अनुसारी ॥३॥
जोरि पानि सबहीं सिर नाए । सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए ॥
तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे । कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे ॥४॥
छंद
किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो ।
पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो ॥
मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं ।
संसार सिंधु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैं ॥
दोहा
प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुंज ।
बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कंज ॥ १०६ ॥
चौपाई
पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना । लंका जाहु कहेउ भगवाना ॥
समाचार जानकिहि सुनावहु । तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु ॥१॥
तब हनुमंत नगर महुँ आए । सुनि निसिचरी निसाचर धाए ॥
बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही । जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही ॥२॥
दूरहि ते प्रनाम कपि कीन्हा । रघुपति दूत जानकीं चीन्हा ॥
कहहु तात प्रभु कृपानिकेता । कुसल अनुज कपि सेन समेता ॥३॥
सब बिधि कुसल कोसलाधीसा । मातु समर जीत्यो दससीसा ॥
अबिचल राजु बिभीषन पायो । सुनि कपि बचन हरष उर छायो ॥४॥
छंद
अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा ।
का देउँ तोहि त्रेलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा ॥
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं ।
रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामयं ॥
दोहा
सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमंत ।
सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत ॥ १०७ ॥
चौपाई
अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता । देखौं नयन स्याम मृदु गाता ॥
तब हनुमान राम पहिं जाई । जनकसुता कै कुसल सुनाई ॥१॥
सुनि संदेसु भानुकुलभूषन । बोलि लिए जुबराज बिभीषन ॥
मारुतसुत के संग सिधावहु । सादर जनकसुतहि लै आवहु ॥२॥
तुरतहिं सकल गए जहँ सीता । सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता ॥
बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो । तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो ॥३॥
बहु प्रकार भूषन पहिराए । सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए ॥
ता पर हरषि चढ़ी बैदेही । सुमिरि राम सुखधाम सनेही ॥४॥
बेतपानि रच्छक चहुँ पासा । चले सकल मन परम हुलासा ॥
देखन भालु कीस सब आए । रच्छक कोपि निवारन धाए ॥५॥
कह रघुबीर कहा मम मानहु । सीतहि सखा पयादें आनहु ॥
देखहुँ कपि जननी की नाईं । बिहसि कहा रघुनाथ गोसाई ॥६॥
सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे । नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे ॥
सीता प्रथम अनल महुँ राखी । प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी ॥७॥
दोहा
तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद ।
सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद ॥ १०८ ॥
चौपाई
प्रभु के बचन सीस धरि सीता । बोली मन क्रम बचन पुनीता ॥
लछिमन होहु धरम के नेगी । पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी ॥१॥
सुनि लछिमन सीता कै बानी । बिरह बिबेक धरम निति सानी ॥
लोचन सजल जोरि कर दोऊ । प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ ॥२॥
देखि राम रुख लछिमन धाए । पावक प्रगटि काठ बहु लाए ॥
पावक प्रबल देखि बैदेही । हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही ॥३॥
जौं मन बच क्रम मम उर माहीं । तजि रघुबीर आन गति नाहीं ॥
तौ कृसानु सब कै गति जाना । मो कहुँ होउ श्रीखंड समाना ॥४॥
छंद
श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली ।
जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली ॥
प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे ।
प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे ॥ १ ॥
धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो ।
जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्पी आनि सो ॥
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली ।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली ॥ २ ॥
दोहा
बरषहिं सुमन हरषि सुन बाजहिं गगन निसान ।
गावहिं किंनर सुरबधू नाचहिं चढ़ीं बिमान ॥ १०९(क) ॥
जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार ।
देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार ॥ १०९(ख) ॥
चौपाई
तब रघुपति अनुसासन पाई । मातलि चलेउ चरन सिरु नाई ॥
आए देव सदा स्वारथी । बचन कहहिं जनु परमारथी ॥१॥
दीन बंधु दयाल रघुराया । देव कीन्हि देवन्ह पर दाया ॥
बिस्व द्रोह रत यह खल कामी । निज अघ गयउ कुमारगगामी ॥२॥
तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी । सदा एकरस सहज उदासी ॥
अकल अगुन अज अनघ अनामय । अजित अमोघसक्ति करुनामय ॥३॥
मीन कमठ सूकर नरहरी । बामन परसुराम बपु धरी ॥
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो । नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो ॥४॥
यह खल मलिन सदा सुरद्रोही । काम लोभ मद रत अति कोही ॥
अधम सिरोमनि तव पद पावा । यह हमरे मन बिसमय आवा ॥५॥
हम देवता परम अधिकारी । स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी ॥
भव प्रबाहँ संतत हम परे । अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे ॥६॥
दोहा
करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि ।
अति सप्रेम तन पुलकि बिधि अस्तुति करत बहोरि ॥ ११० ॥
छंद
जय राम सदा सुखधाम हरे । रघुनायक सायक चाप धरे ॥
भव बारन दारन सिंह प्रभो । गुन सागर नागर नाथ बिभो ॥
तन काम अनेक अनूप छबी । गुन गावत सिद्ध मुनींद्र कबी ॥
जसु पावन रावन नाग महा । खगनाथ जथा करि कोप गहा ॥
जन रंजन भंजन सोक भयं । गतक्रोध सदा प्रभु बोधमयं ॥
अवतार उदार अपार गुनं । महि भार बिभंजन ग्यानघनं ॥
अज ब्यापकमेकमनादि सदा । करुनाकर राम नमामि मुदा ॥
रघुबंस बिभूषन दूषन हा । कृत भूप बिभीषन दीन रहा ॥
गुन ग्यान निधान अमान अजं । नित राम नमामि बिभुं बिरजं ॥
भुजदंड प्रचंड प्रताप बलं । खल बृंद निकंद महा कुसलं ॥
बिनु कारन दीन दयाल हितं । छबि धाम नमामि रमा सहितं ॥
भव तारन कारन काज परं । मन संभव दारुन दोष हरं ॥
सर चाप मनोहर त्रोन धरं । जरजारुन लोचन भूपबरं ॥
सुख मंदिर सुंदर श्रीरमनं । मद मार मुधा ममता समनं ॥
अनवद्य अखंड न गोचर गो । सबरूप सदा सब होइ न गो ॥
इति बेद बदंति न दंतकथा । रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा ॥
कृतकृत्य बिभो सब बानर ए । निरखंति तवानन सादर ए ॥
धिग जीवन देव सरीर हरे । तव भक्ति बिना भव भूलि परे ॥
अब दीन दयाल दया करिऐ । मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ ॥
जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ । दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ ॥
खल खंडन मंडन रम्य छमा । पद पंकज सेवित संभु उमा ॥
नृप नायक दे बरदानमिदं । चरनांबुज प्रेम सदा सुभदं ॥
दोहा
बिनय कीन्हि चतुरानन प्रेम पुलक अति गात ।
सोभासिंधु बिलोकत लोचन नहीं अघात ॥ १११ ॥
चौपाई
तेहि अवसर दसरथ तहँ आए । तनय बिलोकि नयन जल छाए ॥
अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा । आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा ॥१॥
तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ । जीत्यों अजय निसाचर राऊ ॥
सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ी । नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ी ॥२॥
रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना । चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना ॥
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो । दसरथ भेद भगति मन लायो ॥३॥
सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं । तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं ॥
बार बार करि प्रभुहि प्रनामा । दसरथ हरषि गए सुरधामा ॥४॥
दोहा
अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस ।
सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस ॥ ११२ ॥
छंद
जय राम सोभा धाम । दायक प्रनत बिश्राम ॥
धृत त्रोन बर सर चाप । भुजदंड प्रबल प्रताप ॥ १ ॥
जय दूषनारि खरारि । मर्दन निसाचर धारि ॥
यह दुष्ट मारेउ नाथ । भए देव सकल सनाथ ॥ २ ॥
जय हरन धरनी भार । महिमा उदार अपार ॥
जय रावनारि कृपाल । किए जातुधान बिहाल ॥ ३ ॥
लंकेस अति बल गर्ब । किए बस्य सुर गंधर्ब ॥
मुनि सिद्ध नर खग नाग । हठि पंथ सब कें लाग ॥ ४ ॥
परद्रोह रत अति दुष्ट । पायो सो फलु पापिष्ट ॥
अब सुनहु दीन दयाल । राजीव नयन बिसाल ॥ ५ ॥
मोहि रहा अति अभिमान । नहिं कोउ मोहि समान ॥
अब देखि प्रभु पद कंज । गत मान प्रद दुख पुंज ॥ ६ ॥
कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव । अब्यक्त जेहि श्रुति गाव ॥
मोहि भाव कोसल भूप । श्रीराम सगुन सरूप ॥ ७ ॥
बैदेहि अनुज समेत । मम हृदयँ करहु निकेत ॥
मोहि जानिए निज दास । दे भक्ति रमानिवास ॥ ८ ॥
दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं ।
सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं ॥
सुर बृंद रंजन द्वंद भंजन मनुज तनु अतुलितबलं ।
ब्रह्मादि संकर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं ॥
दोहा
अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल ।
काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल ॥ ११३ ॥
चौपाई
सुनु सुरपति कपि भालु हमारे । परे भूमि निसचरन्हि जे मारे ॥
मम हित लागि तजे इन्ह प्राना । सकल जिआउ सुरेस सुजाना ॥१॥
सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी । अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी ॥
प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई । केवल सक्रहि दीन्हि बड़ाई ॥२॥
सुधा बरषि कपि भालु जिआए । हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए ॥
सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर । जिए भालु कपि नहिं रजनीचर ॥३॥
रामाकार भए तिन्ह के मन । मुक्त भए छूटे भव बंधन ॥
सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा । जिए सकल रघुपति कीं ईछा ॥४॥
राम सरिस को दीन हितकारी । कीन्हे मुकुत निसाचर झारी ॥
खल मल धाम काम रत रावन । गति पाई जो मुनिबर पाव न ॥५॥
दोहा
सुमन बरषि सब सुर चले चढ़ि चढ़ि रुचिर बिमान ।
देखि सुअवसरु प्रभु पहिं आयउ संभु सुजान ॥ ११४(क) ॥
परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि ।
पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि ॥ ११४(ख) ॥
छंद
मामभिरक्षय रघुकुल नायक ।
धृत बर चाप रुचिर कर सायक ॥
मोह महा घन पटल प्रभंजन ।
संसय बिपिन अनल सुर रंजन ॥ १ ॥
अगुन सगुन गुन मंदिर सुंदर ।
भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर ॥
काम क्रोध मद गज पंचानन ।
बसहु निरंतर जन मन कानन ॥ २ ॥
बिषय मनोरथ पुंज कंज बन ।
प्रबल तुषार उदार पार मन ॥
भव बारिधि मंदर परमं दर ।
बारय तारय संसृति दुस्तर ॥ ३ ॥
स्याम गात राजीव बिलोचन ।
दीन बंधु प्रनतारति मोचन ॥
अनुज जानकी सहित निरंतर ।
बसहु राम नृप मम उर अंतर ॥ ४ ॥
मुनि रंजन महि मंडल मंडन ।
तुलसिदास प्रभु त्रास बिखंडन ॥ ५ ॥
दोहा
नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार ।
कृपासिंधु मैं आउब देखन चरित उदार ॥ ११५ ॥
चौपाई
करि बिनती जब संभु सिधाए । तब प्रभु निकट बिभीषनु आए ॥
नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी । बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी ॥१॥
सकुल सदल प्रभु रावन मार यो । पावन जस त्रिभुवन बिस्तार यो ॥
दीन मलीन हीन मति जाती । मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती ॥२॥
अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे । मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे ॥
देखि कोस मंदिर संपदा । देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा ॥३॥
सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ । पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ ॥
सुनत बचन मृदु दीनदयाला । सजल भए द्वौ नयन बिसाला ॥४॥
दोहा
तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात ।
भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात ॥ ११६(क) ॥
तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि ।
देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि ॥ ११६(ख) ॥
बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर ।
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर ॥ ११६(ग) ॥
करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं ।
पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ संत सब जाहिं ॥ ११६(घ) ॥
चौपाई
सुनत बिभीषन बचन राम के । हरषि गहे पद कृपाधाम के ॥
बानर भालु सकल हरषाने । गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने ॥१॥
बहुरि बिभीषन भवन सिधायो । मनि गन बसन बिमान भरायो ॥
लै पुष्पक प्रभु आगें राखा । हँसि करि कृपासिंधु तब भाषा ॥२॥
चढ़ि बिमान सुनु सखा बिभीषन । गगन जाइ बरषहु पट भूषन ॥
नभ पर जाइ बिभीषन तबही । बरषि दिए मनि अंबर सबही ॥३॥
जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं । मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं ॥
हँसे रामु श्री अनुज समेता । परम कौतुकी कृपा निकेता ॥४॥
दोहा
मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद ।
कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद ॥ ११७(क) ॥
उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम ।
राम कृपा नहि करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम ॥ ११७(ख) ॥
चौपाई
भालु कपिन्ह पट भूषन पाए । पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए ॥
नाना जिनस देखि सब कीसा । पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा ॥१॥
चितइ सबन्हि पर कीन्हि दाया । बोले मृदुल बचन रघुराया ॥
तुम्हरें बल मैं रावनु मार यो । तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार यो ॥२॥
निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू । सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू ॥
सुनत बचन प्रेमाकुल बानर । जोरि पानि बोले सब सादर ॥३॥
प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा । हमरे होत बचन सुनि मोहा ॥
दीन जानि कपि किए सनाथा । तुम्ह त्रेलोक ईस रघुनाथा ॥४॥
सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं । मसक कहूँ खगपति हित करहीं ॥
देखि राम रुख बानर रीछा । प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा ॥५॥
दोहा
प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि ।
हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि ॥ ११८(क) ॥
कपिपति नील रीछपति अंगद नल हनुमान ।
सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान ॥ ११८(ख) ॥
कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि ।
सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि ॥ ११८(ग) ॥
चौपाई
अतिसय प्रीति देख रघुराई । लिन्हे सकल बिमान चढ़ाई ॥
मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो । उत्तर दिसिहि बिमान चलायो ॥१॥
चलत बिमान कोलाहल होई । जय रघुबीर कहइ सबु कोई ॥
सिंहासन अति उच्च मनोहर । श्री समेत प्रभु बैठै ता पर ॥२॥
राजत रामु सहित भामिनी । मेरु सृंग जनु घन दामिनी ॥
रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर । कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर ॥३॥
परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी । सागर सर सरि निर्मल बारी ॥
सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा । मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा ॥४॥
कह रघुबीर देखु रन सीता । लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता ॥
हनूमान अंगद के मारे । रन महि परे निसाचर भारे ॥५॥
कुंभकरन रावन द्वौ भाई । इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई ॥६॥
दोहा
इहाँ सेतु बाँध्यो अरु थापेउँ सिव सुख धाम ।
सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम ॥ ११९(क) ॥
जहँ जहँ कृपासिंधु बन कीन्ह बास बिश्राम ।
सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम ॥ ११९(ख) ॥
चौपाई
तुरत बिमान तहाँ चलि आवा । दंडक बन जहँ परम सुहावा ॥
कुंभजादि मुनिनायक नाना । गए रामु सब कें अस्थाना ॥१॥
सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा । चित्रकूट आए जगदीसा ॥
तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा । चला बिमानु तहाँ ते चोखा ॥२॥
बहुरि राम जानकिहि देखाई । जमुना कलि मल हरनि सुहाई ॥
पुनि देखी सुरसरी पुनीता । राम कहा प्रनाम करु सीता ॥३॥
तीरथपति पुनि देखु प्रयागा । निरखत जन्म कोटि अघ भागा ॥
देखु परम पावनि पुनि बेनी । हरनि सोक हरि लोक निसेनी ॥४॥
पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि । त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि ॥५॥
दोहा
सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम ।
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम ॥ १२०(क) ॥
पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह ।
कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह ॥ १२०(ख) ॥
चौपाई
प्रभु हनुमंतहि कहा बुझाई । धरि बटु रूप अवधपुर जाई ॥
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु । समाचार लै तुम्ह चलि आएहु ॥१॥
तुरत पवनसुत गवनत भयउ । तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ ॥
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही । अस्तुती करि पुनि आसिष दीन्ही ॥२॥
मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी । चढ़ि बिमान प्रभु चले बहोरी ॥
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए । नाव नाव कहँ लोग बोलाए ॥३॥
सुरसरि नाघि जान तब आयो । उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो ॥
तब सीताँ पूजी सुरसरी । बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी ॥४॥
दीन्हि असीस हरषि मन गंगा । सुंदरि तव अहिवात अभंगा ॥
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल । आयउ निकट परम सुख संकुल ॥५॥
प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही । परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही ॥
प्रीति परम बिलोकि रघुराई । हरषि उठाइ लियो उर लाई ॥६॥
छंद
लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापती ।
बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती ।
अब कुसल पद पंकज बिलोकि बिरंचि संकर सेब्य जे ।
सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते ॥ १ ॥
सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो ।
मतिमंद तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो ॥
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा ।
कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा ॥ २ ॥
दोहा
समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान ।
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान ॥ १२१(क) ॥
यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार ।
श्रीरघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार ॥ १२१(ख) ॥
।। मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम ।।
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने षष्ठः सोपानः समाप्तः ।
(लंकाकाण्ड समाप्त)