दोहा

प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर ।

आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस ॥ ६१ ॥

 

चौपाई

हरषि राम भेंटेउ हनुमाना । अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना ॥

तुरत बैद तब कीन्ह उपाई । उठि बैठे लछिमन हरषाई ॥१॥

हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता । हरषे सकल भालु कपि ब्राता ॥

कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा । जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा ॥२॥

यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ । अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ ॥

ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा । बिबिध जतन करि ताहि जगावा ॥३॥

जागा निसिचर देखिअ कैसा । मानहुँ कालु देह धरि बैसा ॥

कुंभकरन बूझा कहु भाई । काहे तव मुख रहे सुखाई ॥४॥

कथा कही सब तेहिं अभिमानी । जेहि प्रकार सीता हरि आनी ॥

तात कपिन्ह सब निसिचर मारे । महामहा जोधा संघारे ॥५॥

दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी । भट अतिकाय अकंपन भारी ॥

अपर महोदर आदिक बीरा । परे समर महि सब रनधीरा ॥६॥

 

दोहा

सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान ।

जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान ॥ ६२ ॥

 

चौपाई

भचल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा । अब मोहि आइ जगाएहि काहा ॥

अजहूँ तात त्यागि अभिमाना । भजहु राम होइहि कल्याना ॥१॥

हैं दससीस मनुज रघुनायक । जाके हनूमान से पायक ॥

अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई । प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई ॥२॥

कीन्हेहु प्रभू बिरोध तेहि देवक । सिव बिरंचि सुर जाके सेवक ॥

नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा । कहतेउँ तोहि समय निरबहा ॥३॥

अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई । लोचन सूफल करौ मैं जाई ॥

स्याम गात सरसीरुह लोचन । देखौं जाइ ताप त्रय मोचन ॥४॥

 

दोहा

राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक ।

रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक ॥ ६३ ॥

 

चौपाई

महिष खाइ करि मदिरा पाना । गर्जा बज्राघात समाना ॥

कुंभकरन दुर्मद रन रंगा । चला दुर्ग तजि सेन न संगा ॥१॥

देखि बिभीषनु आगें आयउ । परेउ चरन निज नाम सुनायउ ॥

अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो । रघुपति भक्त जानि मन भायो ॥२॥

तात लात रावन मोहि मारा । कहत परम हित मंत्र बिचारा ॥

तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ । देखि दीन प्रभु के मन भायउँ ॥३॥

सुनु सुत भयउ कालबस रावन । सो कि मान अब परम सिखावन ॥

धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन । भयहु तात निसिचर कुल भूषन ॥४॥

बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर । भजेहु राम सोभा सुख सागर ॥५॥

 

दोहा

बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर ।

जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर ।६४ ॥

 

चौपाई

बंधु बचन सुनि चला बिभीषन । आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन ॥

नाथ भूधराकार सरीरा । कुंभकरन आवत रनधीरा ॥१॥

एतना कपिन्ह सुना जब काना । किलकिलाइ धाए बलवाना ॥

लिए उठाइ बिटप अरु भूधर । कटकटाइ डारहिं ता ऊपर ॥२॥

कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा । करहिं भालु कपि एक एक बारा ॥

मुर यो न मन तनु टर यो न टार यो । जिमि गज अर्क फलनि को मार्यो ॥३॥

तब मारुतसुत मुठिका हन्यो । पर यो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो ॥

पुनि उठि तेहिं मारेउ हनुमंता । घुर्मित भूतल परेउ तुरंता ॥४॥

पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि । जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि ॥

चली बलीमुख सेन पराई । अति भय त्रसित न कोउ समुहाई ॥५॥

 

दोहा

अंगदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव ।

काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव ॥ ६५ ॥

 

चौपाई

उमा करत रघुपति नरलीला । खेलत गरुड़ जिमि अहिगन मीला ॥

भृकुटि भंग जो कालहि खाई । ताहि कि सोहइ ऐसि लराई ॥१॥

जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं । गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिं ॥

मुरुछा गइ मारुतसुत जागा । सुग्रीवहि तब खोजन लागा ॥२॥

सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती । निबुक गयउ तेहि मृतक प्रतीती ॥

काटेसि दसन नासिका काना । गरजि अकास चलउ तेहिं जाना ॥३॥

गहेउ चरन गहि भूमि पछारा । अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा ॥

पुनि आयसु प्रभु पहिं बलवाना । जयति जयति जय कृपानिधाना ॥४॥

नाक कान काटे जियँ जानी । फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी ॥

सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा । देखत कपि दल उपजी त्रासा ॥५॥

 

दोहा

जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह ।

एकहि बार तासु पर छाड़ेन्हि गिरि तरु जूह ॥ ६६ ॥

 

चौपाई

कुंभकरन रन रंग बिरुद्धा । सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा ॥

कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई । जनु टीड़ी गिरि गुहाँ समाई ॥१॥

कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा । कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा ॥

मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा । निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा ॥२॥

रन मद मत्त निसाचर दर्पा । बिस्व ग्रसिहि जनु एहि बिधि अर्पा ॥

मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे । सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे ॥३॥

कुंभकरन कपि फौज बिडारी । सुनि धाई रजनीचर धारी ॥

देखि राम बिकल कटकाई । रिपु अनीक नाना बिधि आई ॥४॥

 

दोहा

सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन ।

मैं देखउँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन ॥ ६७ ॥

 

चौपाई

कर सारंग साजि कटि भाथा । अरि दल दलन चले रघुनाथा ॥

प्रथम कीन्ह प्रभु धनुष टँकोरा । रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा ॥१॥

सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा । कालसर्प जनु चले सपच्छा ॥

जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा । लगे कटन भट बिकट पिसाचा ॥२॥

कटहिं चरन उर सिर भुजदंडा । बहुतक बीर होहिं सत खंडा ॥

घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं । उठि संभारि सुभट पुनि लरहीं ॥३॥

लागत बान जलद जिमि गाजहीं । बहुतक देखी कठिन सर भाजहिं ॥

रुंड प्रचंड मुंड बिनु धावहिं । धरु धरु मारू मारु धुनि गावहिं ॥४॥

 

दोहा

छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच ।

पुनि रघुबीर निषंग महुँ प्रबिसे सब नाराच ॥ ६८ ॥

 

चौपाई

कुंभकरन मन दीख बिचारी । हति धन माझ निसाचर धारी ॥

भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा । कियो मृगनायक नाद गँभीरा ॥१॥

कोपि महीधर लेइ उपारी । डारइ जहँ मर्कट भट भारी ॥

आवत देखि सैल प्रभू भारे । सरन्हि काटि रज सम करि डारे ॥२॥

पुनि धनु तानि कोपि रघुनायक । छाँड़े अति कराल बहु सायक ॥

तनु महुँ प्रबिसि निसरि सर जाहीं । जिमि दामिनि घन माझ समाहीं ॥३॥

सोनित स्त्रवत सोह तन कारे । जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे ॥

बिकल बिलोकि भालु कपि धाए । बिहँसा जबहिं निकट कपि आए ॥४॥

 

दोहा

महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस ।

महि पटकइ गजराज इव सपथ करइ दससीस ॥ ६९ ॥

 

चौपाई

भागे भालु बलीमुख जूथा । बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा ॥

चले भागि कपि भालु भवानी । बिकल पुकारत आरत बानी ॥१॥

यह निसिचर दुकाल सम अहई । कपिकुल देस परन अब चहई ॥

कृपा बारिधर राम खरारी । पाहि पाहि प्रनतारति हारी ॥२॥

सकरुन बचन सुनत भगवाना । चले सुधारि सरासन बाना ॥

राम सेन निज पाछैं घाली । चले सकोप महा बलसाली ॥३॥

खैंचि धनुष सर सत संधाने । छूटे तीर सरीर समाने ॥

लागत सर धावा रिस भरा । कुधर डगमगत डोलति धरा ॥४॥

लीन्ह एक तेहिं सैल उपाटी । रघुकुल तिलक भुजा सोइ काटी ॥

धावा बाम बाहु गिरि धारी । प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी ॥५॥

काटें भुजा सोह खल कैसा । पच्छहीन मंदर गिरि जैसा ॥

उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका । ग्रसन चहत मानहुँ त्रेलोका ॥६॥

 

दोहा

करि चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि ।

गगन सिद्ध सुर त्रासित हा हा हेति पुकारि ॥ ७० ॥

 

चौपाई

सभय देव करुनानिधि जान्यो । श्रवन प्रजंत सरासनु तान्यो ॥

बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ । तदपि महाबल भूमि न परेऊ ॥१॥

सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा । काल त्रोन सजीव जनु आवा ॥

तब प्रभु कोपि तीब्र सर लीन्हा । धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा ॥२॥

सो सिर परेउ दसानन आगें । बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें ॥

धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा । तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा ॥३॥

परे भूमि जिमि नभ तें भूधर । हेठ दाबि कपि भालु निसाचर ॥

तासु तेज प्रभु बदन समाना । सुर मुनि सबहिं अचंभव माना ॥४॥

सुर दुंदुभीं बजावहिं हरषहिं । अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं ॥

करि बिनती सुर सकल सिधाए । तेही समय देवरिषि आए ॥५॥

गगनोपरि हरि गुन गन गाए । रुचिर बीररस प्रभु मन भाए ॥

बेगि हतहु खल कहि मुनि गए । राम समर महि सोभत भए ॥६॥

 

छंद

संग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी ।

श्रम बिंदु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी ॥

भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने ।

कह दास तुलसी कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने ॥

 

दोहा

निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम ।

गिरिजा ते नर मंदमति जे न भजहिं श्रीराम ॥ ७१ ॥

 

चौपाई

दिन कें अंत फिरीं दोउ अनी । समर भई सुभटन्ह श्रम घनी ॥

राम कृपाँ कपि दल बल बाढ़ा । जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़ा ॥१॥

छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती । निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती ॥

बहु बिलाप दसकंधर करई । बंधु सीस पुनि पुनि उर धरई ॥२॥

रोवहिं नारि हृदय हति पानी । तासु तेज बल बिपुल बखानी ॥

मेघनाद तेहि अवसर आयउ । कहि बहु कथा पिता समुझायउ ॥३॥

देखेहु कालि मोरि मनुसाई । अबहिं बहुत का करौं बड़ाई ॥

इष्टदेव सैं बल रथ पायउँ । सो बल तात न तोहि देखायउँ ॥४॥

एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना । चहुँ दुआर लागे कपि नाना ॥

इत कपि भालु काल सम बीरा । उत रजनीचर अति रनधीरा ॥५॥

लरहिं सुभट निज निज जय हेतू । बरनि न जाइ समर खगकेतू ॥६॥

 

दोहा

मेघनाद मायामय रथ चढ़ि गयउ अकास ॥

गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास ॥ ७२ ॥

 

चौपाई

सक्ति सूल तरवारि कृपाना । अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना ॥

डारह परसु परिघ पाषाना । लागेउ बृष्टि करै बहु बाना ॥१॥

दस दिसि रहे बान नभ छाई । मानहुँ मघा मेघ झरि लाई ॥

धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना । जो मारइ तेहि कोउ न जाना ॥२॥

गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं । देखहि तेहि न दुखित फिरि आवहिं ॥

अवघट घाट बाट गिरि कंदर । माया बल कीन्हेसि सर पंजर ॥३॥

जाहिं कहाँ ब्याकुल भए बंदर । सुरपति बंदि परे जनु मंदर ॥

मारुतसुत अंगद नल नीला । कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला ॥४॥

पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन । सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन ॥

पुनि रघुपति सैं जूझे लागा । सर छाँड़इ होइ लागहिं नागा ॥५॥

ब्याल पास बस भए खरारी । स्वबस अनंत एक अबिकारी ॥

नट इव कपट चरित कर नाना । सदा स्वतंत्र एक भगवाना ॥६॥

रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो । नागपास देवन्ह भय पायो ॥७॥

 

दोहा

गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास ।

सो कि बंध तर आवइ ब्यापक बिस्व निवास ॥ ७३ ॥

 

चौपाई

चरित राम के सगुन भवानी । तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी ॥

अस बिचारि जे तग्य बिरागी । रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी ॥१॥

ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा । पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा ॥

जामवंत कह खल रहु ठाढ़ा । सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़ा ॥२॥

बूढ़ जानि सठ छाँड़ेउँ तोही । लागेसि अधम पचारै मोही ॥

अस कहि तरल त्रिसूल चलायो । जामवंत कर गहि सोइ धायो ॥३॥

मारिसि मेघनाद कै छाती । परा भूमि घुर्मित सुरघाती ॥

पुनि रिसान गहि चरन फिरायौ । महि पछारि निज बल देखरायो ॥४॥

बर प्रसाद सो मरइ न मारा । तब गहि पद लंका पर डारा ॥

इहाँ देवरिषि गरुड़ पठायो । राम समीप सपदि सो आयो ॥५॥

 

दोहा

खगपति सब धरि खाए माया नाग बरूथ ।

माया बिगत भए सब हरषे बानर जूथ ।७४(क) ॥

गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ ।

चले तमीचर बिकलतर गढ़ पर चढ़े पराइ ॥ ७४(ख) ॥

 

चौपाई

मेघनाद के मुरछा जागी । पितहि बिलोकि लाज अति लागी ॥

तुरत गयउ गिरिबर कंदरा । करौं अजय मख अस मन धरा ॥१॥

इहाँ बिभीषन मंत्र बिचारा । सुनहु नाथ बल अतुल उदारा ॥

मेघनाद मख करइ अपावन । खल मायावी देव सतावन ॥२॥

जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि । नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि ॥

सुनि रघुपति अतिसय सुख माना । बोले अंगदादि कपि नाना ॥३॥

लछिमन संग जाहु सब भाई । करहु बिधंस जग्य कर जाई ॥

तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही । देखि सभय सुर दुख अति मोही ॥४॥

मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई । जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई ॥

जामवंत सुग्रीव बिभीषन । सेन समेत रहेहु तीनिउ जन ॥५॥

जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन । कटि निषंग कसि साजि सरासन ॥

प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा । बोले घन इव गिरा गँभीरा ॥६॥

जौं तेहि आजु बधें बिनु आवौं । तौ रघुपति सेवक न कहावौं ॥

जौं सत संकर करहिं सहाई । तदपि हतउँ रघुबीर दोहाई ॥७॥

 

दोहा

रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरंत अनंत ।

अंगद नील मयंद नल संग सुभट हनुमंत ॥ ७५ ॥

 

चौपाई

जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा । आहुति देत रुधिर अरु भैंसा ॥

कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा । जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा ॥१॥

तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई । लातन्हि हति हति चले पराई ॥

लै त्रिसुल धावा कपि भागे । आए जहँ रामानुज आगे ॥२॥

आवा परम क्रोध कर मारा । गर्ज घोर रव बारहिं बारा ॥

कोपि मरुतसुत अंगद धाए । हति त्रिसूल उर धरनि गिराए ॥३॥

प्रभु कहँ छाँड़ेसि सूल प्रचंडा । सर हति कृत अनंत जुग खंडा ॥

उठि बहोरि मारुति जुबराजा । हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा ॥४॥

फिरे बीर रिपु मरइ न मारा । तब धावा करि घोर चिकारा ॥

आवत देखि क्रुद्ध जनु काला । लछिमन छाड़े बिसिख कराला ॥६॥

देखेसि आवत पबि सम बाना । तुरत भयउ खल अंतरधाना ॥

बिबिध बेष धरि करइ लराई । कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई ॥७॥

देखि अजय रिपु डरपे कीसा । परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा ॥

लछिमन मन अस मंत्र दृढ़ावा । एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा ॥८॥

सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा । सर संधान कीन्ह करि दापा ॥

छाड़ा बान माझ उर लागा । मरती बार कपटु सब त्यागा ॥९॥

 

दोहा

रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान ।

धन्य धन्य तव जननी कह अंगद हनुमान ॥ ७६ ॥

 

चौपाई

बिनु प्रयास हनुमान उठायो । लंका द्वार राखि पुनि आयो ॥

तासु मरन सुनि सुर गंधर्बा । चढ़ि बिमान आए नभ सर्बा ॥१॥

बरषि सुमन दुंदुभीं बजावहिं । श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं ॥

जय अनंत जय जगदाधारा । तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा ॥२॥

अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए । लछिमन कृपासिन्धु पहिं आए ॥

सुत बध सुना दसानन जबहीं । मुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं ॥३॥

मंदोदरी रुदन कर भारी । उर ताड़न बहु भाँति पुकारी ॥

नगर लोग सब ब्याकुल सोचा । सकल कहहिं दसकंधर पोचा ॥४॥

 

दोहा

तब दसकंठ बिबिध बिधि समुझाईं सब नारि ।

नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि ॥ ७७ ॥

 

चौपाई

तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन । आपुन मंद कथा सुभ पावन ॥

पर उपदेस कुसल बहुतेरे । जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥१॥

निसा सिरानि भयउ भिनुसारा । लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा ॥

सुभट बोलाइ दसानन बोला । रन सन्मुख जा कर मन डोला ॥२॥

सो अबहीं बरु जाउ पराई । संजुग बिमुख भएँ न भलाई ॥

निज भुज बल मैं बयरु बढ़ावा । देहउँ उतरु जो रिपु चढ़ि आवा ॥३॥

अस कहि मरुत बेग रथ साजा । बाजे सकल जुझाऊ बाजा ॥

चले बीर सब अतुलित बली । जनु कज्जल कै आँधी चली ॥४॥

असगुन अमित होहिं तेहि काला । गनइ न भुजबल गर्ब बिसाला ॥५॥

 

छंद

अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्त्रवहिं आयुध हाथ ते ।

भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते ॥

गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने ।

जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने ॥

 

दोहा

ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम ।

भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम ॥ ७८ ॥

 

चौपाई

चलेउ निसाचर कटकु अपारा । चतुरंगिनी अनी बहु धारा ॥

बिबिध भाँति बाहन रथ जाना । बिपुल बरन पताक ध्वज नाना ॥१॥

चले मत्त गज जूथ घनेरे । प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे ॥

बरन बरद बिरदैत निकाया । समर सूर जानहिं बहु माया ॥२॥

अति बिचित्र बाहिनी बिराजी । बीर बसंत सेन जनु साजी ॥

चलत कटक दिगसिधुंर डगहीं । छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं ॥३॥

उठी रेनु रबि गयउ छपाई । मरुत थकित बसुधा अकुलाई ॥

पनव निसान घोर रव बाजहिं । प्रलय समय के घन जनु गाजहिं ॥४॥

भेरि नफीरि बाज सहनाई । मारू राग सुभट सुखदाई ॥

केहरि नाद बीर सब करहीं । निज निज बल पौरुष उच्चरहीं ॥५॥

कहइ दसानन सुनहु सुभट्टा । मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा ॥

हौं मारिहउँ भूप द्वौ भाई । अस कहि सन्मुख फौज रेंगाई ॥६॥

यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई । धाए करि रघुबीर दोहाई ॥७॥

 

छंद

धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते ।

मानहुँ सपच्छ उड़ाहिं भूधर बृंद नाना बान ते ॥

नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल संक न मानहीं ।

जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं ॥

 

दोहा

दुहु दिसि जय जयकार करि निज निज जोरी जानि ।

भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि ॥ ७९ ॥

 

चौपाई

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा । देखि बिभीषन भयउ अधीरा ॥

अधिक प्रीति मन भा संदेहा । बंदि चरन कह सहित सनेहा ॥१॥

नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना । केहि बिधि जितब बीर बलवाना ॥

सुनहु सखा कह कृपानिधाना । जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना ॥२॥

सौरज धीरज तेहि रथ चाका । सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ॥

बल बिबेक दम परहित घोरे । छमा कृपा समता रजु जोरे ॥३॥

ईस भजनु सारथी सुजाना । बिरति चर्म संतोष कृपाना ॥

दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा । बर बिग्यान कठिन कोदंडा ॥४॥

अमल अचल मन त्रोन समाना । सम जम नियम सिलीमुख नाना ॥

कवच अभेद बिप्र गुर पूजा । एहि सम बिजय उपाय न दूजा ॥५॥

सखा धर्ममय अस रथ जाकें । जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें ॥६॥

 

दोहा

महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर ।

जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर ॥ ८०(क) ॥

सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज ।

एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुंज ॥ ८०(ख) ॥

उत पचार दसकंधर इत अंगद हनुमान ।

लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन ॥ ८०(ग) ॥

 

चौपाई

सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना । देखत रन नभ चढ़े बिमाना ॥

हमहू उमा रहे तेहि संगा । देखत राम चरित रन रंगा ॥१॥

सुभट समर रस दुहु दिसि माते । कपि जयसील राम बल ताते ॥

एक एक सन भिरहिं पचारहिं । एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं ॥२॥

मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं । सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं ॥

उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं । गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं ॥३॥

निसिचर भट महि गाड़हि भालू । ऊपर ढारि देहिं बहु बालू ॥

बीर बलिमुख जुद्ध बिरुद्धे । देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे ॥४॥

 

छंद

क्रुद्धे कृतांत समान कपि तन स्त्रवत सोनित राजहीं ।

मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवंत घन जिमि गाजहीं ॥

मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं ।

चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं ॥

धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं ।

प्रहलादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अंगन खेलहीं ॥

धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही ।

जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही ॥

 

दोहा

निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप ।

रथ चढ़ि चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप ॥ ८१ ॥

 

चौपाई

धायउ परम क्रुद्ध दसकंधर । सन्मुख चले हूह दै बंदर ॥

गहि कर पादप उपल पहारा । डारेन्हि ता पर एकहिं बारा ॥१॥

लागहिं सैल बज्र तन तासू । खंड खंड होइ फूटहिं आसू ॥

चला न अचल रहा रथ रोपी । रन दुर्मद रावन अति कोपी ॥२॥

इत उत झपटि दपटि कपि जोधा । मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा ॥

चले पराइ भालु कपि नाना । त्राहि त्राहि अंगद हनुमाना ॥३॥

पाहि पाहि रघुबीर गोसाई । यह खल खाइ काल की नाई ॥

तेहि देखे कपि सकल पराने । दसहुँ चाप सायक संधाने ॥४॥

 

छंद

संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उड़ि लागहीं ।

रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदसि कहँ कपि भागहीं ॥

भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे ।

रघुबीर करुना सिंधु आरत बंधु जन रच्छक हरे ॥

 

दोहा

निज दल बिकल देखि कटि कसि निषंग धनु हाथ ।

लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ ॥ ८२ ॥

 

चौपाई

रे खल का मारसि कपि भालू । मोहि बिलोकु तोर मैं कालू ॥

खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती । आजु निपाति जुड़ावउँ छाती ॥१॥

अस कहि छाड़ेसि बान प्रचंडा । लछिमन किए सकल सत खंडा ॥

कोटिन्ह आयुध रावन डारे । तिल प्रवान करि काटि निवारे ॥२॥

पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा । स्यंदनु भंजि सारथी मारा ॥

सत सत सर मारे दस भाला । गिरि सृंगन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला ॥३॥

पुनि सत सर मारा उर माहीं । परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं ॥

उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी । छाड़िसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी ॥४॥

 

छंद

सो ब्रह्म दत्त प्रचंड सक्ति अनंत उर लागी सही ।

पर्यो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही ॥

ब्रह्मांड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी ।

तेहि चह उठावन मूढ़ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी ॥

 

दोहा

देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर ।

आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर ॥ ८३ ॥

 

चौपाई

जानु टेकि कपि भूमि न गिरा । उठा सँभारि बहुत रिस भरा ॥

मुठिका एक ताहि कपि मारा । परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा ॥१॥

मुरुछा गै बहोरि सो जागा । कपि बल बिपुल सराहन लागा ॥

धिग धिग मम पौरुष धिग मोही । जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही ॥२॥

अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो । देखि दसानन बिसमय पायो ॥

कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता । तुम्ह कृतांत भच्छक सुर त्राता ॥३॥

सुनत बचन उठि बैठ कृपाला । गई गगन सो सकति कराला ॥

पुनि कोदंड बान गहि धाए । रिपु सन्मुख अति आतुर आए ॥४॥

 

छंद

आतुर बहोरि बिभंजि स्यंदन सूत हति ब्याकुल कियो ।

गिर यो धरनि दसकंधर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो ॥

सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लंका लै गयो ।

रघुबीर बंधु प्रताप पुंज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो ॥

 

दोहा

उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य ।

राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य ॥ ८४ ॥

 

चौपाई

इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई । सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई ॥

नाथ करइ रावन एक जागा । सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा ॥१॥

पठवहु नाथ बेगि भट बंदर । करहिं बिधंस आव दसकंधर ॥

प्रात होत प्रभु सुभट पठाए । हनुमदादि अंगद सब धाए ॥२॥

कौतुक कूदि चढ़े कपि लंका । पैठे रावन भवन असंका ॥

जग्य करत जबहीं सो देखा । सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा ॥३॥

रन ते निलज भाजि गृह आवा । इहाँ आइ बक ध्यान लगावा ॥

अस कहि अंगद मारा लाता । चितव न सठ स्वारथ मन राता ॥४॥

 

छंद

नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं ।

धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं ॥

तब उठेउ क्रुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई ।

एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई ॥

 

दोहा

जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास ।

चलेउ निसाचर क्रुर्द्ध होइ त्यागि जिवन कै आस ॥ ८५ ॥

 

चौपाई

चलत होहिं अति असुभ भयंकर । बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर ॥

भयउ कालबस काहु न माना । कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना ॥१॥

चली तमीचर अनी अपारा । बहु गज रथ पदाति असवारा ॥

प्रभु सन्मुख धाए खल कैंसें । सलभ समूह अनल कहँ जैंसें ॥२॥

इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही । दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही ॥

अब जनि राम खेलावहु एही । अतिसय दुखित होति बैदेही ॥३॥

देव बचन सुनि प्रभु मुसकाना । उठि रघुबीर सुधारे बाना ॥

जटा जूट दृढ़ बाँधै माथे । सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे ॥४॥

अरुन नयन बारिद तनु स्यामा । अखिल लोक लोचनाभिरामा ॥

कटितट परिकर कस्यो निषंगा । कर कोदंड कठिन सारंगा ॥५॥

 

छंद

सारंग कर सुंदर निषंग सिलीमुखाकर कटि कस्यो ।

भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो ॥

कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे ।

ब्रह्मांड दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे ॥

 

दोहा

सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार ।

जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार ॥ ८६ ॥

 

चौपाई

एहीं बीच निसाचर अनी । कसमसात आई अति घनी ॥

देखि चले सन्मुख कपि भट्टा । प्रलयकाल के जनु घन घट्टा ॥१॥

बहु कृपान तरवारि चमंकहिं । जनु दहँ दिसि दामिनीं दमंकहिं ॥

गज रथ तुरग चिकार कठोरा । गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा ॥२॥

कपि लंगूर बिपुल नभ छाए । मनहुँ इंद्रधनु उए सुहाए ॥

उठइ धूरि मानहुँ जलधारा । बान बुंद भै बृष्टि अपारा ॥३॥

दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा । बज्रपात जनु बारहिं बारा ॥

रघुपति कोपि बान झरि लाई । घायल भै निसिचर समुदाई ॥४॥

लागत बान बीर चिक्करहीं । घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीं ॥

स्त्रवहिं सैल जनु निर्झर भारी । सोनित सरि कादर भयकारी ॥५॥

 

छंद

कादर भयंकर रुधिर सरिता चली परम अपावनी ।

दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी ॥

जल जंतुगज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने ।

सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने ॥

 

दोहा

बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन ।

कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन ॥ ८७ ॥

 

चौपाई

मज्जहि भूत पिसाच बेताला । प्रमथ महा झोटिंग कराला ॥

काक कंक लै भुजा उड़ाहीं । एक ते छीनि एक लै खाहीं ॥१॥

एक कहहिं ऐसिउ सौंघाई । सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई ॥

कहँरत भट घायल तट गिरे । जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे ॥२॥

खैंचहिं गीध आँत तट भए । जनु बंसी खेलत चित दए ॥

बहु भट बहहिं चढ़े खग जाहीं । जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं ॥३॥

जोगिनि भरि भरि खप्पर संचहिं । भूत पिसाच बधू नभ नंचहिं ॥

भट कपाल करताल बजावहिं । चामुंडा नाना बिधि गावहिं ॥४॥

जंबुक निकर कटक्कट कट्टहिं । खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं ॥

कोटिन्ह रुंड मुंड बिनु डोल्लहिं । सीस परे महि जय जय बोल्लहिं ॥५॥

 

छंद

बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं ।

खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं ॥

बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए ।

संग्राम अंगन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए ॥

 

दोहा

रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर संघार ।

मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार ॥ ८८ ॥

 

चौपाई

देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा । उपजा उर अति छोभ बिसेषा ॥

सुरपति निज रथ तुरत पठावा । हरष सहित मातलि लै आवा ॥१॥

तेज पुंज रथ दिब्य अनूपा । हरषि चढ़े कोसलपुर भूपा ॥

चंचल तुरग मनोहर चारी । अजर अमर मन सम गतिकारी ॥२॥

रथारूढ़ रघुनाथहि देखी । धाए कपि बलु पाइ बिसेषी ॥

सही न जाइ कपिन्ह कै मारी । तब रावन माया बिस्तारी ॥३॥

सो माया रघुबीरहि बाँची । लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची ॥

देखी कपिन्ह निसाचर अनी । अनुज सहित बहु कोसलधनी ॥४॥

 

छंद

बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे ।

जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे ॥

निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसल धनी ।

माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी ॥

 

दोहा

बहुरि राम सब तन चितइ बोले बचन गँभीर ।

द्वंदजुद्ध देखहु सकल श्रमित भए अति बीर ॥ ८९ ॥

 

चौपाई

अस कहि रथ रघुनाथ चलावा । बिप्र चरन पंकज सिरु नावा ॥

तब लंकेस क्रोध उर छावा । गर्जत तर्जत सन्मुख धावा ॥१॥

जीतेहु जे भट संजुग माहीं । सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं ॥

रावन नाम जगत जस जाना । लोकप जाकें बंदीखाना ॥२॥

खर दूषन बिराध तुम्ह मारा । बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा ॥

निसिचर निकर सुभट संघारेहु । कुंभकरन घननादहि मारेहु ॥३॥

आजु बयरु सबु लेउँ निबाही । जौं रन भूप भाजि नहिं जाहीं ॥

आजु करउँ खलु काल हवाले । परेहु कठिन रावन के पाले ॥४॥

सुनि दुर्बचन कालबस जाना । बिहँसि बचन कह कृपानिधाना ॥

सत्य सत्य सब तव प्रभुताई । जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई ॥५॥

 

छंद

जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा ।

संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा ॥

एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं ।

एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं ॥

 

दोहा

राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान ।

बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान ॥ ९० ॥

 

चौपाई

कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकंधर । कुलिस समान लाग छाँड़ै सर ॥

नानाकार सिलीमुख धाए । दिसि अरु बिदिस गगन महि छाए ॥१॥

पावक सर छाँड़ेउ रघुबीरा । छन महुँ जरे निसाचर तीरा ॥

छाड़िसि तीब्र सक्ति खिसिआई । बान संग प्रभु फेरि चलाई ॥२॥

कोटिक चक्र त्रिसूल पबारै । बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै ॥

निफल होहिं रावन सर कैसें । खल के सकल मनोरथ जैसें ॥३॥

तब सत बान सारथी मारेसि । परेउ भूमि जय राम पुकारेसि ॥

राम कृपा करि सूत उठावा । तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा ॥४॥

 

छंद

भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे ।

कोदंड धुनि अति चंड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे ॥

मँदोदरी उर कंप कंपति कमठ भू भूधर त्रसे ।

चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे ॥