दोहा

अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास ।

सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास ॥ ३१(क) ॥

जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक ।

खाहीं निसाचर दिवस निसि मूढ़ समुझु तजि टेक ॥ ३१(ख) ॥

 

चौपाई

जब तेहिं कीन्ह राम कै निंदा । क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा ॥

हरि हर निंदा सुनइ जो काना । होइ पाप गोघात समाना ॥१॥

कटकटान कपिकुंजर भारी । दुहु भुजदंड तमकि महि मारी ॥

डोलत धरनि सभासद खसे । चले भाजि भय मारुत ग्रसे ॥२॥

गिरत सँभारि उठा दसकंधर । भूतल परे मुकुट अति सुंदर ॥

कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे । कछु अंगद प्रभु पास पबारे ॥३॥

आवत मुकुट देखि कपि भागे । दिनहीं लूक परन बिधि लागे ॥

की रावन करि कोप चलाए । कुलिस चारि आवत अति धाए ॥४॥

कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू । लूक न असनि केतु नहिं राहू ॥

ए किरीट दसकंधर केरे । आवत बालितनय के प्रेरे ॥५॥

 

दोहा

तरकि पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास ।

कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास ॥ ३२(क) ॥

उहाँ सकोपि दसानन सब सन कहत रिसाइ ।

धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अंगद मुसुकाइ ॥ ३२(ख) ॥

 

चौपाई

एहि बिधि बेगि सूभट सब धावहु । खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु ॥

मर्कटहीन करहु महि जाई । जिअत धरहु तापस द्वौ भाई ॥१॥

पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा । गाल बजावत तोहि न लाजा ॥

मरु गर काटि निलज कुलघाती । बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती ॥२॥

रे त्रिय चोर कुमारग गामी । खल मल रासि मंदमति कामी ॥

सन्यपात जल्पसि दुर्बादा । भएसि कालबस खल मनुजादा ॥३॥

याको फलु पावहिगो आगें । बानर भालु चपेटन्हि लागें ॥

रामु मनुज बोलत असि बानी । गिरहिं न तव रसना अभिमानी ॥४॥

गिरिहहिं रसना संसय नाहीं । सिरन्हि समेत समर महि माहीं ॥५॥

 

सोरठा

सो नर क्यों दसकंध बालि बध्यो जेहिं एक सर ।

बीसहुँ लोचन अंध धिग तव जन्म कुजाति जड़ ॥ ३३(क) ॥

तब सोनित की प्यास तृषित राम सायक निकर ।

तजउँ तोहि तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम ॥ ३३(ख) ॥

 

चौपाई

मै तव दसन तोरिबे लायक । आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक ॥

असि रिस होति दसउ मुख तोरौं । लंका गहि समुद्र महँ बोरौं ॥१॥

गूलरि फल समान तव लंका । बसहु मध्य तुम्ह जंतु असंका ॥

मैं बानर फल खात न बारा । आयसु दीन्ह न राम उदारा ॥२॥

जुगति सुनत रावन मुसुकाई । मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई ॥

बालि न कबहुँ गाल अस मारा । मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा ॥३॥

साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा । जौं न उपारिउँ तव दस जीहा ॥

समुझि राम प्रताप कपि कोपा । सभा माझ पन करि पद रोपा ॥४॥

जौं मम चरन सकसि सठ टारी । फिरहिं रामु सीता मैं हारी ॥

सुनहु सुभट सब कह दससीसा । पद गहि धरनि पछारहु कीसा ॥५॥

इंद्रजीत आदिक बलवाना । हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना ॥

झपटहिं करि बल बिपुल उपाई । पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई ॥६॥

पुनि उठि झपटहीं सुर आराती । टरइ न कीस चरन एहि भाँती ॥

पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी । मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी ॥७॥

 

दोहा

कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ ।

झपटहिं टरै न कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ ॥ ३४(क) ॥

भूमि न छाँडत कपि चरन देखत रिपु मद भाग ॥

कोटि बिघ्न ते संत कर मन जिमि नीति न त्याग ॥ ३४(ख) ॥

 

चौपाई

कपि बल देखि सकल हियँ हारे । उठा आपु कपि कें परचारे ॥

गहत चरन कह बालिकुमारा । मम पद गहें न तोर उबारा ॥१॥

गहसि न राम चरन सठ जाई । सुनत फिरा मन अति सकुचाई ॥

भयउ तेजहत श्री सब गई । मध्य दिवस जिमि ससि सोहई ॥२॥

सिंघासन बैठेउ सिर नाई । मानहुँ संपति सकल गँवाई ॥

जगदातमा प्रानपति रामा । तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा ॥३॥

उमा राम की भृकुटि बिलासा । होइ बिस्व पुनि पावइ नासा ॥

तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई । तासु दूत पन कहु किमि टरई ॥४॥

पुनि कपि कही नीति बिधि नाना । मान न ताहि कालु निअराना ॥

रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो । यह कहि चल्यो बालि नृप जायो ॥५॥

हतौं न खेत खेलाइ खेलाई । तोहि अबहिं का करौं बड़ाई ॥

प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा । सो सुनि रावन भयउ दुखारा ॥६॥

जातुधान अंगद पन देखी । भय ब्याकुल सब भए बिसेषी ॥७॥

 

दोहा

रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुंज ।

पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कंज ॥ ३५(क) ॥

साँझ जानि दसकंधर भवन गयउ बिलखाइ ।

मंदोदरी रावनहि बहुरि कहा समुझाइ ॥ (ख) ॥

 

चौपाई

कंत समुझि मन तजहु कुमतिही । सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही ॥

रामानुज लघु रेख खचाई । सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई ॥१॥

पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा । जाके दूत केर यह कामा ॥

कौतुक सिंधु नाघी तव लंका । आयउ कपि केहरी असंका ॥२॥

रखवारे हति बिपिन उजारा । देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा ॥

जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा । कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा ॥३॥

अब पति मृषा गाल जनि मारहु । मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु ॥

पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु । अग जग नाथ अतुल बल जानहु ॥४॥

बान प्रताप जान मारीचा । तासु कहा नहिं मानेहि नीचा ॥

जनक सभाँ अगनित भूपाला । रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला ॥५॥

भंजि धनुष जानकी बिआही । तब संग्राम जितेहु किन ताही ॥

सुरपति सुत जानइ बल थोरा । राखा जिअत आँखि गहि फोरा ॥६॥

सूपनखा कै गति तुम्ह देखी । तदपि हृदयँ नहिं लाज बिषेषी ॥७॥

 

दोहा

बधि बिराध खर दूषनहि लीँलाँ हत्यो कबंध ।

बालि एक सर मारयो तेहि जानहु दसकंध ॥ ३६ ॥

 

चौपाई

जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला । उतरे प्रभु दल सहित सुबेला ॥

कारुनीक दिनकर कुल केतू । दूत पठायउ तव हित हेतू ॥१॥

सभा माझ जेहिं तव बल मथा । करि बरूथ महुँ मृगपति जथा ॥

अंगद हनुमत अनुचर जाके । रन बाँकुरे बीर अति बाँके ॥२॥

तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू । मुधा मान ममता मद बहहू ॥

अहह कंत कृत राम बिरोधा । काल बिबस मन उपज न बोधा ॥३॥

काल दंड गहि काहु न मारा । हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा ॥

निकट काल जेहि आवत साईं । तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं ॥४॥

 

दोहा

दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु ।

कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु ॥ ३७ ॥

 

चौपाई

नारि बचन सुनि बिसिख समाना । सभाँ गयउ उठि होत बिहाना ॥

बैठ जाइ सिंघासन फूली । अति अभिमान त्रास सब भूली ॥१॥

इहाँ राम अंगदहि बोलावा । आइ चरन पंकज सिरु नावा ॥

अति आदर सपीप बैठारी । बोले बिहँसि कृपाल खरारी ॥२॥

बालितनय कौतुक अति मोही । तात सत्य कहु पूछउँ तोही ॥

रावनु जातुधान कुल टीका । भुज बल अतुल जासु जग लीका ॥३॥

तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए । कहहु तात कवनी बिधि पाए ॥

सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी । मुकुट न होहिं भूप गुन चारी ॥४॥

साम दान अरु दंड बिभेदा । नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा ॥

नीति धर्म के चरन सुहाए । अस जियँ जानि नाथ पहिं आए ॥५॥

 

दोहा

धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस ।

तेहि परिहरि गुन आए सुनहु कोसलाधीस ॥३८(क) ॥

परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार ।

समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालिकुमार ॥ ३८(ख) ॥

 

चौपाई

रिपु के समाचार जब पाए । राम सचिव सब निकट बोलाए ॥

लंका बाँके चारि दुआरा । केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा ॥१॥

तब कपीस रिच्छेस बिभीषन । सुमिरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन ॥

करि बिचार तिन्ह मंत्र दृढ़ावा । चारि अनी कपि कटकु बनावा ॥२॥

जथाजोग सेनापति कीन्हे । जूथप सकल बोलि तब लीन्हे ॥

प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए । सुनि कपि सिंघनाद करि धाए ॥३॥

हरषित राम चरन सिर नावहिं । गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिं ॥

गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा । जय रघुबीर कोसलाधीसा ॥४॥

जानत परम दुर्ग अति लंका । प्रभु प्रताप कपि चले असंका ॥

घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी । मुखहिं निसान बजावहीं भेरी ॥५॥

 

दोहा

जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव ।

गर्जहिं सिंघनाद कपि भालु महा बल सींव ॥ ३९ ॥

 

चौपाई

लंकाँ भयउ कोलाहल भारी । सुना दसानन अति अहँकारी ॥

देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई । बिहँसि निसाचर सेन बोलाई ॥१॥

आए कीस काल के प्रेरे । छुधावंत सब निसिचर मेरे ॥

अस कहि अट्टहास सठ कीन्हा । गृह बैठे अहार बिधि दीन्हा ॥२॥

सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू । धरि धरि भालु कीस सब खाहू ॥

उमा रावनहि अस अभिमाना । जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना ॥३॥

चले निसाचर आयसु मागी । गहि कर भिंडिपाल बर साँगी ॥

तोमर मुग्दर परसु प्रचंडा । सुल कृपान परिघ गिरिखंडा ॥४॥

जिमि अरुनोपल निकर निहारी । धावहिं सठ खग मांस अहारी ॥

चोंच भंग दुख तिन्हहि न सूझा । तिमि धाए मनुजाद अबूझा ॥५॥

 

दोहा

नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर ।

कोट कँगूरन्हि चढ़ि गए कोटि कोटि रनधीर ॥ ४० ॥

 

चौपाई

कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे । मेरु के सृंगनि जनु घन बैसे ॥

बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ । सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ ॥१॥

बाजहिं भेरि नफीरि अपारा । सुनि कादर उर जाहिं दरारा ॥

देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा । अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा ॥२॥

धावहिं गनहिं न अवघट घाटा । पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा ॥

कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं । दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं ॥३॥

उत रावन इत राम दोहाई । जयति जयति जय परी लराई ॥

निसिचर सिखर समूह ढहावहिं । कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं ॥४॥

धरि कुधर खंड प्रचंड कर्कट भालु गढ़ पर डारहीं ।

झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं ॥

अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़ि चढ़ि गए ।

कपि भालु चढ़ि मंदिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए ॥

 

दोहा

एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ ।

ऊपर आपु हेठ भट गिरहिं धरनि पर आइ ॥ ४१ ॥

 

चौपाई

राम प्रताप प्रबल कपिजूथा । मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा ॥

चढ़े दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर । जय रघुबीर प्रताप दिवाकर ॥१॥

चले निसाचर निकर पराई । प्रबल पवन जिमि घन समुदाई ॥

हाहाकार भयउ पुर भारी । रोवहिं बालक आतुर नारी ॥२॥

सब मिलि देहिं रावनहि गारी । राज करत एहिं मृत्यु हँकारी ॥

निज दल बिचल सुनी तेहिं काना । फेरि सुभट लंकेस रिसाना ॥३॥

जो रन बिमुख सुना मैं काना । सो मैं हतब कराल कृपाना ॥

सर्बसु खाइ भोग करि नाना । समर भूमि भए बल्लभ प्राना ॥४॥

उग्र बचन सुनि सकल डेराने । चले क्रोध करि सुभट लजाने ॥

सन्मुख मरन बीर कै सोभा । तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा ॥५॥

 

दोहा

बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि ।

ब्याकुल किए भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि मारी ॥ ४२ ॥

 

चौपाई

भय आतुर कपि भागन लागे । जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे ॥

कोउ कह कहँ अंगद हनुमंता । कहँ नल नील दुबिद बलवंता ॥१॥

निज दल बिकल सुना हनुमाना । पच्छिम द्वार रहा बलवाना ॥

मेघनाद तहँ करइ लराई । टूट न द्वार परम कठिनाई ॥२॥

पवनतनय मन भा अति क्रोधा । गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा ॥

कूदि लंक गढ़ ऊपर आवा । गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा ॥३॥

भंजेउ रथ सारथी निपाता । ताहि हृदय महुँ मारेसि लाता ॥

दुसरें सूत बिकल तेहि जाना । स्यंदन घालि तुरत गृह आना ॥४॥

 

दोहा

अंगद सुना पवनसुत गढ़ पर गयउ अकेल ।

रन बाँकुरा बालिसुत तरकि चढ़ेउ कपि खेल ॥ ४३ ॥

 

चौपाई

जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बंदर । राम प्रताप सुमिरि उर अंतर ॥

रावन भवन चढ़े द्वौ धाई । करहि कोसलाधीस दोहाई ॥१॥

कलस सहित गहि भवनु ढहावा । देखि निसाचरपति भय पावा ॥

नारि बृंद कर पीटहिं छाती । अब दुइ कपि आए उतपाती ॥२॥

कपिलीला करि तिन्हहि डेरावहिं । रामचंद्र कर सुजसु सुनावहिं ॥

पुनि कर गहि कंचन के खंभा । कहेन्हि करिअ उतपात अरंभा ॥३॥

गर्जि परे रिपु कटक मझारी । लागे मर्दै भुज बल भारी ॥

काहुहि लात चपेटन्हि केहू । भजहु न रामहि सो फल लेहू ॥४॥

 

दोहा

एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुंड ।

रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुंड ॥ ४४ ॥

 

चौपाई

महा महा मुखिआ जे पावहिं । ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं ॥

कहइ बिभीषनु तिन्ह के नामा । देहिं राम तिन्हहू निज धामा ॥१॥

खल मनुजाद द्विजामिष भोगी । पावहिं गति जो जाचत जोगी ॥

उमा राम मृदुचित करुनाकर । बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर ॥२॥

देहिं परम गति सो जियँ जानी । अस कृपाल को कहहु भवानी ॥

अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी । नर मतिमंद ते परम अभागी ॥३॥

अंगद अरु हनुमंत प्रबेसा । कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा ॥

लंकाँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें । मथहि सिंधु दुइ मंदर जैसें ॥४॥

 

दोहा

भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अंत ।

कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवंत ॥ ४५ ॥

 

चौपाई

प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए । देखि सुभट रघुपति मन भाए ॥

राम कृपा करि जुगल निहारे । भए बिगतश्रम परम सुखारे ॥१॥

गए जानि अंगद हनुमाना । फिरे भालु मर्कट भट नाना ॥

जातुधान प्रदोष बल पाई । धाए करि दससीस दोहाई ॥२॥

निसिचर अनी देखि कपि फिरे । जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे ॥

द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी । लरत सुभट नहिं मानहिं हारी ॥३॥

महाबीर निसिचर सब कारे । नाना बरन बलीमुख भारे ॥

सबल जुगल दल समबल जोधा । कौतुक करत लरत करि क्रोधा ॥४॥

प्राबिट सरद पयोद घनेरे । लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे ॥

अनिप अकंपन अरु अतिकाया । बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया ॥५॥

भयउ निमिष महँ अति अँधियारा । बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा ॥६॥

 

दोहा

देखि निबिड़ तम दसहुँ दिसि कपिदल भयउ खभार ।

एकहि एक न देखई जहँ तहँ करहिं पुकार ॥ ४६ ॥

 

चौपाई

सकल मरमु रघुनायक जाना । लिए बोलि अंगद हनुमाना ॥

समाचार सब कहि समुझाए । सुनत कोपि कपिकुंजर धाए ॥१॥

पुनि कृपाल हँसि चाप चढ़ावा । पावक सायक सपदि चलावा ॥

भयउ प्रकास कतहुँ तम नाहीं । ग्यान उदयँ जिमि संसय जाहीं ॥२॥

भालु बलीमुख पाइ प्रकासा । धाए हरष बिगत श्रम त्रासा ॥

हनूमान अंगद रन गाजे । हाँक सुनत रजनीचर भाजे ॥३॥

भागत पट पटकहिं धरि धरनी । करहिं भालु कपि अद्भुत करनी ॥

गहि पद डारहिं सागर माहीं । मकर उरग झष धरि धरि खाहीं ॥४॥

 

दोहा

कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़े पराइ ।

गर्जहिं भालु बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ ॥ ४७ ॥

 

चौपाई

निसा जानि कपि चारिउ अनी । आए जहाँ कोसला धनी ॥

राम कृपा करि चितवा सबही । भए बिगतश्रम बानर तबही ॥१॥

उहाँ दसानन सचिव हँकारे । सब सन कहेसि सुभट जे मारे ॥

आधा कटकु कपिन्ह संघारा । कहहु बेगि का करिअ बिचारा ॥२॥

माल्यवंत अति जरठ निसाचर । रावन मातु पिता मंत्री बर ॥

बोला बचन नीति अति पावन । सुनहु तात कछु मोर सिखावन ॥३॥

जब ते तुम्ह सीता हरि आनी । असगुन होहिं न जाहिं बखानी ॥

बेद पुरान जासु जसु गायो । राम बिमुख काहुँ न सुख पायो ॥४॥

 

दोहा

हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान ।

जेहि मारे सोइ अवतरेउ कृपासिंधु भगवान ॥ ४८(क) ॥

 

।। मासपारायण, पचीसवाँ विश्राम ।।

 

दोहा

कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध ।

सिव बिरंचि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध ॥ ४८(ख) ॥

 

चौपाई

परिहरि बयरु देहु बैदेही । भजहु कृपानिधि परम सनेही ॥

ताके बचन बान सम लागे । करिआ मुह करि जाहि अभागे ॥१॥

बूढ़ भएसि न त मरतेउँ तोही । अब जनि नयन देखावसि मोही ॥

तेहि अपने मन अस अनुमाना । बध्यो चहत एहि कृपानिधाना ॥२॥

सो उठि गयउ कहत दुर्बादा । तब सकोप बोलेउ घननादा ॥

कौतुक प्रात देखिअहु मोरा । करिहउँ बहुत कहौं का थोरा ॥३॥

सुनि सुत बचन भरोसा आवा । प्रीति समेत अंक बैठावा ॥

करत बिचार भयउ भिनुसारा । लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा ॥४॥

कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ु घेरा । नगर कोलाहलु भयउ घनेरा ॥

बिबिधायुध धर निसिचर धाए । गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए ॥५॥

 

छंद

ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले ।

घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले ॥

मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए ।

गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहिं जहँ सो तहँ निसिचर हए ॥

 

दोहा

मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़ु पुनि छेंका आइ ।

उतर्यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ ॥ ४९ ॥

 

चौपाई

कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता । धन्वी सकल लोक बिख्याता ॥

कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा । अंगद हनूमंत बल सींवा ॥१॥

कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही । आजु सबहि हठि मारउँ ओही ॥

अस कहि कठिन बान संधाने । अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने ॥२॥

सर समुह सो छाड़ै लागा । जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा ॥

जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर । सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर ॥३॥

जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा । बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा ॥

सो कपि भालु न रन महँ देखा । कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा ॥४॥

 

दोहा

दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर ।

सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर ॥ ५० ॥

 

चौपाई

देखि पवनसुत कटक बिहाला । क्रोधवंत जनु धायउ काला ॥

महासैल एक तुरत उपारा । अति रिस मेघनाद पर डारा ॥१॥

आवत देखि गयउ नभ सोई । रथ सारथी तुरग सब खोई ॥

बार बार पचार हनुमाना । निकट न आव मरमु सो जाना ॥२॥

रघुपति निकट गयउ घननादा । नाना भाँति करेसि दुर्बादा ॥

अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे । कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे ॥३॥

देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना । करै लाग माया बिधि नाना ॥

जिमि कोउ करै गरुड़ सैं खेला । डरपावै गहि स्वल्प सपेला ॥४॥

 

दोहा

जासु प्रबल माया बल सिव बिरंचि बड़ छोट ।

ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट ॥ ५१ ॥

 

चौपाई

नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा । महि ते प्रगट होहिं जलधारा ॥

नाना भाँति पिसाच पिसाची । मारु काटु धुनि बोलहिं नाची ॥१॥

बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़ा । बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा ॥

बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा । सूझ न आपन हाथ पसारा ॥२॥

कपि अकुलाने माया देखें । सब कर मरन बना एहि लेखें ॥

कौतुक देखि राम मुसुकाने । भए सभीत सकल कपि जाने ॥३॥

एक बान काटी सब माया । जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया ॥

कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके । भए प्रबल रन रहहिं न रोके ॥४॥

 

दोहा

आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ ।

लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ ॥ ५२ ॥

 

चौपाई

छतज नयन उर बाहु बिसाला । हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला ॥

इहाँ दसानन सुभट पठाए । नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए ॥१॥

भूधर नख बिटपायुध धारी । धाए कपि जय राम पुकारी ॥

भिरे सकल जोरिहि सन जोरी । इत उत जय इच्छा नहिं थोरी ॥२॥

मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं । कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं ॥

मारु मारु धरु धरु धरु मारू । सीस तोरि गहि भुजा उपारू ॥३॥

असि रव पूरि रही नव खंडा । धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा ॥

देखहिं कौतुक नभ सुर बृंदा । कबहुँक बिसमय कबहुँ अनंदा ॥४॥

 

दोहा

रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़ाइ ।

जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ ॥ ५३ ॥

 

चौपाई

घायल बीर बिराजहिं कैसे । कुसुमित किंसुक के तरु जैसे ॥

लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा । भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा ॥१॥

एकहि एक सकइ नहिं जीती । निसिचर छल बल करइ अनीती ॥

क्रोधवंत तब भयउ अनंता । भंजेउ रथ सारथी तुरंता ॥२॥

नाना बिधि प्रहार कर सेषा । राच्छस भयउ प्रान अवसेषा ॥

रावन सुत निज मन अनुमाना । संकठ भयउ हरिहि मम प्राना ॥३॥

बीरघातिनी छाड़िसि साँगी । तेज पुंज लछिमन उर लागी ॥

मुरुछा भई सक्ति के लागें । तब चलि गयउ निकट भय त्यागें ॥४॥

 

दोहा

मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ ।

जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ ॥ ५४ ॥

 

चौपाई

सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू । जारइ भुवन चारिदस आसू ॥

सक संग्राम जीति को ताही । सेवहिं सुर नर अग जग जाही ॥१॥

यह कौतूहल जानइ सोई । जा पर कृपा राम कै होई ॥

संध्या भइ फिरि द्वौ बाहनी । लगे सँभारन निज निज अनी ॥२॥

ब्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर । लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर ॥

तब लगि लै आयउ हनुमाना । अनुज देखि प्रभु अति दुख माना ॥३॥

जामवंत कह बैद सुषेना । लंकाँ रहइ को पठई लेना ॥

धरि लघु रूप गयउ हनुमंता । आनेउ भवन समेत तुरंता ॥४॥

 

दोहा

राम पदारबिंद सिर नायउ आइ सुषेन ।

कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन ॥ ५५ ॥

 

चौपाई

राम चरन सरसिज उर राखी । चला प्रभंजन सुत बल भाषी ॥

उहाँ दूत एक मरमु जनावा । रावन कालनेमि गृह आवा ॥१॥

दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना । पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना ॥

देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा । तासु पंथ को रोकन पारा ॥२॥

भजि रघुपति करु हित आपना । छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना ॥

नील कंज तनु सुंदर स्यामा । हृदयँ राखु लोचनाभिरामा ॥३॥

मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू । महा मोह निसि सूतत जागू ॥

काल ब्याल कर भच्छक जोई । सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई ॥४॥

 

दोहा

सुनि दसकंठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार ।

राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार ॥ ५६ ॥

 

चौपाई

अस कहि चला रचिसि मग माया । सर मंदिर बर बाग बनाया ॥

मारुतसुत देखा सुभ आश्रम । मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम ॥१॥

राच्छस कपट बेष तहँ सोहा । मायापति दूतहि चह मोहा ॥

जाइ पवनसुत नायउ माथा । लाग सो कहै राम गुन गाथा ॥२॥

होत महा रन रावन रामहिं । जितहहिं राम न संसय या महिं ॥

इहाँ भएँ मैं देखेउँ भाई । ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई ॥३॥

मागा जल तेहिं दीन्ह कमंडल । कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल ॥

सर मज्जन करि आतुर आवहु । दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु ॥४॥

 

दोहा

सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान ।

मारी सो धरि दिव्य तनु चली गगन चढ़ि जान ॥ ५७ ॥

 

चौपाई

कपि तव दरस भइउँ निष्पापा । मिटा तात मुनिबर कर सापा ॥

मुनि न होइ यह निसिचर घोरा । मानहु सत्य बचन कपि मोरा ॥१॥

अस कहि गई अपछरा जबहीं । निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं ॥

कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू । पाछें हमहि मंत्र तुम्ह देहू ॥२॥

सिर लंगूर लपेटि पछारा । निज तनु प्रगटेसि मरती बारा ॥

राम राम कहि छाड़ेसि प्राना । सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना ॥३॥

देखा सैल न औषध चीन्हा । सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा ॥

गहि गिरि निसि नभ धावत भयऊ । अवधपुरी उपर कपि गयऊ ॥४॥

 

दोहा

देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि ।

बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि ॥ ५८ ॥

 

चौपाई

परेउ मुरुछि महि लागत सायक । सुमिरत राम राम रघुनायक ॥

सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए । कपि समीप अति आतुर आए ॥१॥

बिकल बिलोकि कीस उर लावा । जागत नहिं बहु भाँति जगावा ॥

मुख मलीन मन भए दुखारी । कहत बचन भरि लोचन बारी ॥२॥

जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा । तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा ॥

जौं मोरें मन बच अरु काया । प्रीति राम पद कमल अमाया ॥३॥

तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला । जौं मो पर रघुपति अनुकूला ॥

सुनत बचन उठि बैठ कपीसा । कहि जय जयति कोसलाधीसा ॥४॥

 

दोहा

लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल ।

प्रीति न हृदयँ समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक ॥ ५९ ॥

 

चौपाई

तात कुसल कहु सुखनिधान की । सहित अनुज अरु मातु जानकी ॥

कपि सब चरित समास बखाने । भए दुखी मन महुँ पछिताने ॥१॥

अहह दैव मैं कत जग जायउँ । प्रभु के एकहु काज न आयउँ ॥

जानि कुअवसरु मन धरि धीरा । पुनि कपि सन बोले बलबीरा ॥२॥

तात गहरु होइहि तोहि जाता । काजु नसाइहि होत प्रभाता ॥

चढ़ु मम सायक सैल समेता । पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता ॥३॥

सुनि कपि मन उपजा अभिमाना । मोरें भार चलिहि किमि बाना ॥

राम प्रभाव बिचारि बहोरी । बंदि चरन कह कपि कर जोरी ॥४॥

 

दोहा

तव प्रताप उर राखि प्रभु जेहउँ नाथ तुरंत ।

अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत ॥ ६०(क) ॥

भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार ।

मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार ॥ ६०(ख) ॥

 

चौपाई

उहाँ राम लछिमनहिं निहारी । बोले बचन मनुज अनुसारी ॥

अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ । राम उठाइ अनुज उर लायउ ॥१॥

सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ । बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ ॥

मम हित लागि तजेहु पितु माता । सहेहु बिपिन हिम आतप बाता ॥२॥

सो अनुराग कहाँ अब भाई । उठहु न सुनि मम बच बिकलाई ॥

जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू । पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू ॥३॥

सुत बित नारि भवन परिवारा । होहिं जाहिं जग बारहिं बारा ॥

अस बिचारि जियँ जागहु ताता । मिलइ न जगत सहोदर भ्राता ॥४॥

जथा पंख बिनु खग अति दीना । मनि बिनु फनि करिबर कर हीना ॥

अस मम जिवन बंधु बिनु तोही । जौं जड़ दैव जिआवै मोही ॥५॥

जैहउँ अवध कवन मुहु लाई । नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई ॥

बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं । नारि हानि बिसेष छति नाहीं ॥६॥

अब अपलोकु सोकु सुत तोरा । सहिहि निठुर कठोर उर मोरा ॥

निज जननी के एक कुमारा । तात तासु तुम्ह प्रान अधारा ॥७॥

सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी । सब बिधि सुखद परम हित जानी ॥

उतरु काह दैहउँ तेहि जाई । उठि किन मोहि सिखावहु भाई ॥८॥

बहु बिधि सिचत सोच बिमोचन । स्त्रवत सलिल राजिव दल लोचन ॥

उमा एक अखंड रघुराई । नर गति भगत कृपाल देखाई ॥९॥