लंका काण्ड

|| श्री गणेशाय नमः ||

श्री रामचरितमानस षष्ठ सोपान - लंकाकाण्ड

 

श्लोक

रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं

योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम ।

मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं वन्दे

कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम ॥ १ ॥

शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं

कालव्यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम ।

काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं

नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम ॥ २ ॥

यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम ।

खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे ॥ ३ ॥

 

दोहा

लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चंड ।

भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदंड ॥

 

सोरठा

सिंधु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ ।

अब बिलंबु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु ॥

सुनहु भानुकुल केतु जामवंत कर जोरि कह ।

नाथ नाम तव सेतु नर चढ़ि भव सागर तरिहिं ॥

 

चौपाई

यह लघु जलधि तरत कति बारा । अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा ॥

प्रभु प्रताप बड़वानल भारी । सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी ॥

तब रिपु नारी रुदन जल धारा । भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा ॥

सुनि अति उकुति पवनसुत केरी । हरषे कपि रघुपति तन हेरी ॥

जामवंत बोले दोउ भाई । नल नीलहि सब कथा सुनाई ॥

राम प्रताप सुमिरि मन माहीं । करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं ॥

बोलि लिए कपि निकर बहोरी । सकल सुनहु बिनती कछु मोरी ॥

राम चरन पंकज उर धरहू । कौतुक एक भालु कपि करहू ॥

धावहु मर्कट बिकट बरूथा । आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा ॥

सुनि कपि भालु चले करि हूहा । जय रघुबीर प्रताप समूहा ॥

 

दोहा

अति उतंग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ ।

आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ ॥ १ ॥

 

चौपाई

सैल बिसाल आनि कपि देहीं । कंदुक इव नल नील ते लेहीं ॥

देखि सेतु अति सुंदर रचना । बिहसि कृपानिधि बोले बचना ॥१॥

परम रम्य उत्तम यह धरनी । महिमा अमित जाइ नहिं बरनी ॥

करिहउँ इहाँ संभु थापना । मोरे हृदयँ परम कलपना ॥२॥

सुनि कपीस बहु दूत पठाए । मुनिबर सकल बोलि लै आए ॥

लिंग थापि बिधिवत करि पूजा । सिव समान प्रिय मोहि न दूजा ॥३॥

सिव द्रोही मम भगत कहावा । सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ॥

संकर बिमुख भगति चह मोरी । सो नारकी मूढ़ मति थोरी ॥४॥

 

दोहा

संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास ।

ते नर करहि कलप भरि धोर नरक महुँ बास ॥ २ ॥

 

चौपाई

जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं । ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं ॥

जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि । सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि ॥१॥

होइ अकाम जो छल तजि सेइहि । भगति मोरि तेहि संकर देइहि ॥

मम कृत सेतु जो दरसनु करिही । सो बिनु श्रम भवसागर तरिही ॥२॥

राम बचन सब के जिय भाए । मुनिबर निज निज आश्रम आए ॥

गिरिजा रघुपति कै यह रीती । संतत करहिं प्रनत पर प्रीती ॥३॥

बाँधा सेतु नील नल नागर । राम कृपाँ जसु भयउ उजागर ॥

बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई । भए उपल बोहित सम तेई ॥४॥

महिमा यह न जलधि कइ बरनी । पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी ॥५॥

 

दोहा

श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान ।

ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन ॥ ३ ॥

 

चौपाई

बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा । देखि कृपानिधि के मन भावा ॥

चली सेन कछु बरनि न जाई । गर्जहिं मर्कट भट समुदाई ॥१॥

सेतुबंध ढिग चढ़ि रघुराई । चितव कृपाल सिंधु बहुताई ॥

देखन कहुँ प्रभु करुना कंदा । प्रगट भए सब जलचर बृंदा ॥२॥

मकर नक्र नाना झष ब्याला । सत जोजन तन परम बिसाला ॥

अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं । एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं ॥३॥

प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे । मन हरषित सब भए सुखारे ॥

तिन्ह की ओट न देखिअ बारी । मगन भए हरि रूप निहारी ॥४॥

चला कटकु प्रभु आयसु पाई । को कहि सक कपि दल बिपुलाई ॥५॥

 

दोहा

सेतुबंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं ।

अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहि जाहिं ॥ ४ ॥

 

चौपाई

अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई । बिहँसि चले कृपाल रघुराई ॥

सेन सहित उतरे रघुबीरा । कहि न जाइ कपि जूथप भीरा ॥१॥

सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा । सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा ॥

खाहु जाइ फल मूल सुहाए । सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए ॥२॥

सब तरु फरे राम हित लागी । रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी ॥

खाहिं मधुर फल बटप हलावहिं । लंका सन्मुख सिखर चलावहिं ॥३॥

जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं । घेरि सकल बहु नाच नचावहिं ॥

दसनन्हि काटि नासिका काना । कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना ॥४॥

जिन्ह कर नासा कान निपाता । तिन्ह रावनहि कही सब बाता ॥

सुनत श्रवन बारिधि बंधाना । दस मुख बोलि उठा अकुलाना ॥५॥

 

दोहा

बांध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस ।

सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस ॥ ५ ॥

 

चौपाई

निज बिकलता बिचारि बहोरी । बिहँसि गयउ ग्रह करि भय भोरी ॥

मंदोदरीं सुन्यो प्रभु आयो । कौतुकहीं पाथोधि बँधायो ॥१॥

कर गहि पतिहि भवन निज आनी । बोली परम मनोहर बानी ॥

चरन नाइ सिरु अंचलु रोपा । सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा ॥२॥

नाथ बयरु कीजे ताही सों । बुधि बल सकिअ जीति जाही सों ॥

तुम्हहि रघुपतिहि अंतर कैसा । खलु खद्योत दिनकरहि जैसा ॥३॥

अतिबल मधु कैटभ जेहिं मारे । महाबीर दितिसुत संघारे ॥

जेहिं बलि बाँधि सहजभुज मारा । सोइ अवतरेउ हरन महि भारा ॥४॥

तासु बिरोध न कीजिअ नाथा । काल करम जिव जाकें हाथा ॥५॥

 

दोहा

रामहि सौपि जानकी नाइ कमल पद माथ ।

सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ ॥ ६ ॥

 

चौपाई

नाथ दीनदयाल रघुराई । बाघउ सनमुख गएँ न खाई ॥

चाहिअ करन सो सब करि बीते । तुम्ह सुर असुर चराचर जीते ॥१॥

संत कहहिं असि नीति दसानन । चौथेंपन जाइहि नृप कानन ॥

तासु भजन कीजिअ तहँ भर्ता । जो कर्ता पालक संहर्ता ॥२॥

सोइ रघुवीर प्रनत अनुरागी । भजहु नाथ ममता सब त्यागी ॥

मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी । भूप राजु तजि होहिं बिरागी ॥३॥

सोइ कोसलधीस रघुराया । आयउ करन तोहि पर दाया ॥

जौं पिय मानहु मोर सिखावन । सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन ॥४॥

 

दोहा

अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कंपित गात ।

नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात ॥ ७ ॥

 

चौपाई

तब रावन मयसुता उठाई । कहै लाग खल निज प्रभुताई ॥

सुनु तै प्रिया बृथा भय माना । जग जोधा को मोहि समाना ॥१॥

बरुन कुबेर पवन जम काला । भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला ॥

देव दनुज नर सब बस मोरें । कवन हेतु उपजा भय तोरें ॥२॥

नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई । सभाँ बहोरि बैठ सो जाई ॥

मंदोदरीं हदयँ अस जाना । काल बस्य उपजा अभिमाना ॥३॥

सभाँ आइ मंत्रिन्ह तेंहि बूझा । करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा ॥

कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा । बार बार प्रभु पूछहु काहा ॥४॥

कहहु कवन भय करिअ बिचारा । नर कपि भालु अहार हमारा ॥५॥

 

दोहा

सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि ।

निति बिरोध न करिअ प्रभु मत्रिंन्ह मति अति थोरि ॥ ८ ॥

 

चौपाई

कहहिं सचिव सठ ठकुरसोहाती । नाथ न पूर आव एहि भाँती ॥

बारिधि नाघि एक कपि आवा । तासु चरित मन महुँ सबु गावा ॥१॥

छुधा न रही तुम्हहि तब काहू । जारत नगरु कस न धरि खाहू ॥

सुनत नीक आगें दुख पावा । सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा ॥२॥

जेहिं बारीस बँधायउ हेला । उतरेउ सेन समेत सुबेला ॥

सो भनु मनुज खाब हम भाई । बचन कहहिं सब गाल फुलाई ॥३॥

तात बचन मम सुनु अति आदर । जनि मन गुनहु मोहि करि कादर ॥

प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं । ऐसे नर निकाय जग अहहीं ॥४॥

बचन परम हित सुनत कठोरे । सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे ॥

प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती । सीता देइ करहु पुनि प्रीती ॥५॥

 

दोहा

नारि पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढ़ाइअ रारि ।

नाहिं त सन्मुख समर महि तात करिअ हठि मारि ॥ ९ ॥

 

चौपाई

यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा । उभय प्रकार सुजसु जग तोरा ॥

सुत सन कह दसकंठ रिसाई । असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई ॥१॥

अबहीं ते उर संसय होई । बेनुमूल सुत भयहु घमोई ॥

सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा । चला भवन कहि बचन कठोरा ॥२॥

हित मत तोहि न लागत कैसें । काल बिबस कहुँ भेषज जैसें ॥

संध्या समय जानि दससीसा । भवन चलेउ निरखत भुज बीसा ॥३॥

लंका सिखर उपर आगारा । अति बिचित्र तहँ होइ अखारा ॥

बैठ जाइ तेही मंदिर रावन । लागे किंनर गुन गन गावन ॥४॥

बाजहिं ताल पखाउज बीना । नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना ॥५॥

 

दोहा

सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास ।

परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास ॥ १० ॥

 

चौपाई

इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा । उतरे सेन सहित अति भीरा ॥

सिखर एक उतंग अति देखी । परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी ॥१॥

तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए । लछिमन रचि निज हाथ डसाए ॥

ता पर रूचिर मृदुल मृगछाला । तेहीं आसान आसीन कृपाला ॥२॥

प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा । बाम दहिन दिसि चाप निषंगा ॥

दुहुँ कर कमल सुधारत बाना । कह लंकेस मंत्र लगि काना ॥३॥

बड़भागी अंगद हनुमाना । चरन कमल चापत बिधि नाना ॥

प्रभु पाछें लछिमन बीरासन । कटि निषंग कर बान सरासन ॥४॥

 

दोहा

एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन ।

धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन ॥ ११(क) ॥

पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मंयक ।

कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असंक ॥ ११(ख) ॥

 

चौपाई

पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी । परम प्रताप तेज बल रासी ॥

मत्त नाग तम कुंभ बिदारी । ससि केसरी गगन बन चारी ॥१॥

बिथुरे नभ मुकुताहल तारा । निसि सुंदरी केर सिंगारा ॥

कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई । कहहु काह निज निज मति भाई ॥२॥

कह सुग़ीव सुनहु रघुराई । ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई ॥

मारेउ राहु ससिहि कह कोई । उर महँ परी स्यामता सोई ॥३॥

कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा । सार भाग ससि कर हरि लीन्हा ॥

छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं । तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं ॥४॥

प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा । अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा ॥

बिष संजुत कर निकर पसारी । जारत बिरहवंत नर नारी ॥५॥

 

दोहा

कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हारा प्रिय दास ।

तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास ॥ १२(क) ॥

 

।। नवान्हपारायण सातवाँ विश्राम ।।

 

दोहा

पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान ।

दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान ॥ १२(ख) ॥

 

चौपाई

देखु बिभीषन दच्छिन आसा । घन घंमड दामिनि बिलासा ॥

मधुर मधुर गरजइ घन घोरा । होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा ॥१॥

कहत बिभीषन सुनहु कृपाला । होइ न तड़ित न बारिद माला ॥

लंका सिखर उपर आगारा । तहँ दसकंघर देख अखारा ॥२॥

छत्र मेघडंबर सिर धारी । सोइ जनु जलद घटा अति कारी ॥

मंदोदरी श्रवन ताटंका । सोइ प्रभु जनु दामिनी दमंका ॥३॥

बाजहिं ताल मृदंग अनूपा । सोइ रव मधुर सुनहु सुरभूपा ॥

प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना । चाप चढ़ाइ बान संधाना ॥४॥

 

दोहा

छत्र मुकुट ताटंक तब हते एकहीं बान ।

सबकें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान ॥ १३(क) ॥

अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आइ निषंग ।

रावन सभा ससंक सब देखि महा रसभंग ॥ १३(ख) ॥

 

चौपाई

कंप न भूमि न मरुत बिसेषा । अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा ॥

सोचहिं सब निज हृदय मझारी । असगुन भयउ भयंकर भारी ॥१॥

दसमुख देखि सभा भय पाई । बिहसि बचन कह जुगुति बनाई ॥

सिरउ गिरे संतत सुभ जाही । मुकुट परे कस असगुन ताही ॥२॥

सयन करहु निज निज गृह जाई । गवने भवन सकल सिर नाई ॥

मंदोदरी सोच उर बसेऊ । जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ ॥३॥

सजल नयन कह जुग कर जोरी । सुनहु प्रानपति बिनती मोरी ॥

कंत राम बिरोध परिहरहू । जानि मनुज जनि हठ मन धरहू ॥४॥

 

दोहा

बिस्वरुप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु ।

लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु ॥ १४ ॥

 

चौपाई

पद पाताल सीस अज धामा । अपर लोक अँग अँग बिश्रामा ॥

भृकुटि बिलास भयंकर काला । नयन दिवाकर कच घन माला ॥१॥

जासु घ्रान अस्विनीकुमारा । निसि अरु दिवस निमेष अपारा ॥

श्रवन दिसा दस बेद बखानी । मारुत स्वास निगम निज बानी ॥२॥

अधर लोभ जम दसन कराला । माया हास बाहु दिगपाला ॥

आनन अनल अंबुपति जीहा । उतपति पालन प्रलय समीहा ॥३॥

रोम राजि अष्टादस भारा । अस्थि सैल सरिता नस जारा ॥

उदर उदधि अधगो जातना । जगमय प्रभु का बहु कलपना ॥४॥

 

दोहा

अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान ।

मनुज बास सचराचर रुप राम भगवान ॥ १५ क ॥

अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ ।

प्रीति करहु रघुबीर पद मम अहिवात न जाइ ॥ १५ ख ॥

 

चौपाई

बिहँसा नारि बचन सुनि काना । अहो मोह महिमा बलवाना ॥

नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं । अवगुन आठ सदा उर रहहीं ॥१॥

साहस अनृत चपलता माया । भय अबिबेक असौच अदाया ॥

रिपु कर रुप सकल तैं गावा । अति बिसाल भय मोहि सुनावा ॥२॥

सो सब प्रिया सहज बस मोरें । समुझि परा प्रसाद अब तोरें ॥

जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई । एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई ॥३॥

तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि । समुझत सुखद सुनत भय मोचनि ॥

मंदोदरि मन महुँ अस ठयऊ । पियहि काल बस मतिभ्रम भयऊ ॥४॥

 

दोहा

एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध ।

सहज असंक लंकपति सभाँ गयउ मद अंध ॥ १६(क) ॥

फूलह फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद ।

मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम ॥ १६(ख) ॥

 

चौपाई

इहाँ प्रात जागे रघुराई । पूछा मत सब सचिव बोलाई ॥

कहहु बेगि का करिअ उपाई । जामवंत कह पद सिरु नाई ॥१॥

सुनु सर्बग्य सकल उर बासी । बुधि बल तेज धर्म गुन रासी ॥

मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा । दूत पठाइअ बालिकुमारा ॥२॥

नीक मंत्र सब के मन माना । अंगद सन कह कृपानिधाना ॥

बालितनय बुधि बल गुन धामा । लंका जाहु तात मम कामा ॥३॥

बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ । परम चतुर मैं जानत अहऊँ ॥

काजु हमार तासु हित होई । रिपु सन करेहु बतकही सोई ॥४॥

 

सोरठा

प्रभु अग्या धरि सीस चरन बंदि अंगद उठेउ ।

सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा पर करहु ॥ १७(क) ॥

स्वयं सिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ ।

अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ ॥ १७(ख) ॥

 

चौपाई

बंदि चरन उर धरि प्रभुताई । अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई ॥

प्रभु प्रताप उर सहज असंका । रन बाँकुरा बालिसुत बंका ॥१॥

पुर पैठत रावन कर बेटा । खेलत रहा सो होइ गै भैंटा ॥

बातहिं बात करष बढ़ि आई । जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई ॥२॥

तेहि अंगद कहुँ लात उठाई । गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई ॥

निसिचर निकर देखि भट भारी । जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी ॥३॥

एक एक सन मरमु न कहहीं । समुझि तासु बध चुप करि रहहीं ॥

भयउ कोलाहल नगर मझारी । आवा कपि लंका जेहीं जारी ॥४॥

अब धौं कहा करिहि करतारा । अति सभीत सब करहिं बिचारा ॥

बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई । जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई ॥५॥

 

दोहा

गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कंज ।

सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुंज ॥ १८ ॥

 

चौपाई

तुरत निसाचर एक पठावा । समाचार रावनहि जनावा ॥

सुनत बिहँसि बोला दससीसा । आनहु बोलि कहाँ कर कीसा ॥१॥

आयसु पाइ दूत बहु धाए । कपिकुंजरहि बोलि लै आए ॥

अंगद दीख दसानन बैंसें । सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें ॥२॥

भुजा बिटप सिर सृंग समाना । रोमावली लता जनु नाना ॥

मुख नासिका नयन अरु काना । गिरि कंदरा खोह अनुमाना ॥३॥

गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा । बालितनय अतिबल बाँकुरा ॥

उठे सभासद कपि कहुँ देखी । रावन उर भा क्रौध बिसेषी ॥४॥

 

दोहा

जथा मत्त गज जूथ महुँ पंचानन चलि जाइ ।

राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ ॥ १९ ॥

 

चौपाई

कह दसकंठ कवन तैं बंदर । मैं रघुबीर दूत दसकंधर ॥

मम जनकहि तोहि रही मिताई । तव हित कारन आयउँ भाई ॥१॥

उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती । सिव बिरंचि पूजेहु बहु भाँती ॥

बर पायहु कीन्हेहु सब काजा । जीतेहु लोकपाल सब राजा ॥२॥

नृप अभिमान मोह बस किंबा । हरि आनिहु सीता जगदंबा ॥

अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा । सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा ॥३॥

दसन गहहु तृन कंठ कुठारी । परिजन सहित संग निज नारी ॥

सादर जनकसुता करि आगें । एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें ॥४॥

 

दोहा

प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि ।

आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि ॥ २० ॥

 

चौपाई

रे कपिपोत बोलु संभारी । मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी ॥

कहु निज नाम जनक कर भाई । केहि नातें मानिऐ मिताई ॥१॥

अंगद नाम बालि कर बेटा । तासों कबहुँ भई ही भेटा ॥

अंगद बचन सुनत सकुचाना । रहा बालि बानर मैं जाना ॥२॥

अंगद तहीं बालि कर बालक । उपजेहु बंस अनल कुल घालक ॥

गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु । निज मुख तापस दूत कहायहु ॥३॥

अब कहु कुसल बालि कहँ अहई । बिहँसि बचन तब अंगद कहई ॥

दिन दस गएँ बालि पहिं जाई । बूझेहु कुसल सखा उर लाई ॥४॥

राम बिरोध कुसल जसि होई । सो सब तोहि सुनाइहि सोई ॥

सुनु सठ भेद होइ मन ताकें । श्रीरघुबीर हृदय नहिं जाकें ॥५॥

 

दोहा

हम कुल घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस ।

अंधउ बधिर न अस कहहिं नयन कान तव बीस ॥२१ ।

 

चौपाई

सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई । चाहत जासु चरन सेवकाई ॥

तासु दूत होइ हम कुल बोरा । अइसिहुँ मति उर बिहर न तोरा ॥१॥

सुनि कठोर बानी कपि केरी । कहत दसानन नयन तरेरी ॥

खल तव कठिन बचन सब सहऊँ । नीति धर्म मैं जानत अहऊँ ॥२॥

कह कपि धर्मसीलता तोरी । हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी ॥

देखी नयन दूत रखवारी । बूड़ि न मरहु धर्म ब्रतधारी ॥३॥

कान नाक बिनु भगिनि निहारी । छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी ॥

धर्मसीलता तव जग जागी । पावा दरसु हमहुँ बड़भागी ॥४॥

 

दोहा

जनि जल्पसि जड़ जंतु कपि सठ बिलोकु मम बाहु ।

लोकपाल बल बिपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु ॥ २२(क) ॥

पुनि नभ सर मम कर निकर कमलन्हि पर करि बास ।

सोभत भयउ मराल इव संभु सहित कैलास ॥ २२(ख) ॥

 

चौपाई

तुम्हरे कटक माझ सुनु अंगद । मो सन भिरिहि कवन जोधा बद ॥

तव प्रभु नारि बिरहँ बलहीना । अनुज तासु दुख दुखी मलीना ॥१॥

तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ । अनुज हमार भीरु अति सोऊ ॥

जामवंत मंत्री अति बूढ़ा । सो कि होइ अब समरारूढ़ा ॥२॥

सिल्पि कर्म जानहिं नल नीला । है कपि एक महा बलसीला ॥

आवा प्रथम नगरु जेंहिं जारा । सुनत बचन कह बालिकुमारा ॥३॥

सत्य बचन कहु निसिचर नाहा । साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा ॥

रावन नगर अल्प कपि दहई । सुनि अस बचन सत्य को कहई ॥४॥

जो अति सुभट सराहेहु रावन । सो सुग्रीव केर लघु धावन ॥

चलइ बहुत सो बीर न होई । पठवा खबरि लेन हम सोई ॥५॥

 

दोहा

सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ ।

फिरि न गयउ सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ ॥ २३(क) ॥

सत्य कहहि दसकंठ सब मोहि न सुनि कछु कोह ।

कोउ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह ॥ २३(ख) ॥

प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि ।

जौं मृगपति बध मेड़ुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि ॥ २३(ग) ॥

जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड़ दोष ।

तदपि कठिन दसकंठ सुनु छत्र जाति कर रोष ॥ २३(घ) ॥

बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस ।

प्रतिउत्तर सड़सिन्ह मनहुँ काढ़त भट दससीस ॥ २३(ङ) ॥

हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक ।

जो प्रतिपालइ तासु हित करइ उपाय अनेक ॥ २३(छ) ॥

 

चौपाई

धन्य कीस जो निज प्रभु काजा । जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा ॥

नाचि कूदि करि लोग रिझाई । पति हित करइ धर्म निपुनाई ॥१॥

अंगद स्वामिभक्त तव जाती । प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती ॥

मैं गुन गाहक परम सुजाना । तव कटु रटनि करउँ नहिं काना ॥२॥

कह कपि तव गुन गाहकताई । सत्य पवनसुत मोहि सुनाई ॥

बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा । तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा ॥३॥

सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई । दसकंधर मैं कीन्हि ढिठाई ॥

देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा । तुम्हरें लाज न रोष न माखा ॥४॥

जौं असि मति पितु खाए कीसा । कहि अस बचन हँसा दससीसा ॥

पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही । अबहीं समुझि परा कछु मोही ॥५॥

बालि बिमल जस भाजन जानी । हतउँ न तोहि अधम अभिमानी ॥

कहु रावन रावन जग केते । मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते ॥६॥

बलिहि जितन एक गयउ पताला । राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला ॥

खेलहिं बालक मारहिं जाई । दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई ॥७॥

एक बहोरि सहसभुज देखा । धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा ॥

कौतुक लागि भवन लै आवा । सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा ॥८॥

 

दोहा

एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि की काँख ।

इन्ह महुँ रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख ॥ २४ ॥

 

चौपाई

सुनु सठ सोइ रावन बलसीला । हरगिरि जान जासु भुज लीला ॥

जान उमापति जासु सुराई । पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढ़ाई ॥१॥

सिर सरोज निज करन्हि उतारी । पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी ॥

भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला । सठ अजहूँ जिन्ह कें उर साला ॥२॥

जानहिं दिग्गज उर कठिनाई । जब जब भिरउँ जाइ बरिआई ॥

जिन्ह के दसन कराल न फूटे । उर लागत मूलक इव टूटे ॥३॥

जासु चलत डोलति इमि धरनी । चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी ॥

सोइ रावन जग बिदित प्रतापी । सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी ॥४॥

 

दोहा

तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान ।

रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान ॥ २५ ॥

 

चौपाई

सुनि अंगद सकोप कह बानी । बोलु सँभारि अधम अभिमानी ॥

सहसबाहु भुज गहन अपारा । दहन अनल सम जासु कुठारा ॥१॥

जासु परसु सागर खर धारा । बूड़े नृप अगनित बहु बारा ॥

तासु गर्ब जेहि देखत भागा । सो नर क्यों दससीस अभागा ॥२॥

राम मनुज कस रे सठ बंगा । धन्वी कामु नदी पुनि गंगा ॥

पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा । अन्न दान अरु रस पीयूषा ॥३॥

बैनतेय खग अहि सहसानन । चिंतामनि पुनि उपल दसानन ॥

सुनु मतिमंद लोक बैकुंठा । लाभ कि रघुपति भगति अकुंठा ॥४॥

 

दोहा

सेन सहित तब मान मथि बन उजारि पुर जारि ॥

कस रे सठ हनुमान कपि गयउ जो तव सुत मारि ॥ २६ ॥

 

चौपाई

सुनु रावन परिहरि चतुराई । भजसि न कृपासिंधु रघुराई ॥

जौ खल भएसि राम कर द्रोही । ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही ॥१॥

मूढ़ बृथा जनि मारसि गाला । राम बयर अस होइहि हाला ॥

तव सिर निकर कपिन्ह के आगें । परिहहिं धरनि राम सर लागें ॥२॥

ते तव सिर कंदुक सम नाना । खेलहहिं भालु कीस चौगाना ॥

जबहिं समर कोपहि रघुनायक । छुटिहहिं अति कराल बहु सायक ॥३॥

तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा । अस बिचारि भजु राम उदारा ॥

सुनत बचन रावन परजरा । जरत महानल जनु घृत परा ॥४॥

 

दोहा

कुंभकरन अस बंधु मम सुत प्रसिद्ध सक्रारि ।

मोर पराक्रम नहिं सुनेहि जितेउँ चराचर झारि ॥ २७ ॥

 

चौपाई

सठ साखामृग जोरि सहाई । बाँधा सिंधु इहइ प्रभुताई ॥

नाघहिं खग अनेक बारीसा । सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा ॥१॥

मम भुज सागर बल जल पूरा । जहँ बूड़े बहु सुर नर सूरा ॥

बीस पयोधि अगाध अपारा । को अस बीर जो पाइहि पारा ॥२॥

दिगपालन्ह मैं नीर भरावा । भूप सुजस खल मोहि सुनावा ॥

जौं पै समर सुभट तव नाथा । पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा ॥३॥

तौ बसीठ पठवत केहि काजा । रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा ॥

हरगिरि मथन निरखु मम बाहू । पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू ॥४॥

 

दोहा

सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस ।

हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस ॥ २८ ॥

 

चौपाई

जरत बिलोकेउँ जबहिं कपाला । बिधि के लिखे अंक निज भाला ॥

नर कें कर आपन बध बाँची । हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची ॥१॥

सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें । लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें ॥

आन बीर बल सठ मम आगें । पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागे ॥२॥

कह अंगद सलज्ज जग माहीं । रावन तोहि समान कोउ नाहीं ॥

लाजवंत तव सहज सुभाऊ । निज मुख निज गुन कहसि न काऊ ॥३॥

सिर अरु सैल कथा चित रही । ताते बार बीस तैं कही ॥

सो भुजबल राखेउ उर घाली । जीतेहु सहसबाहु बलि बाली ॥४॥

सुनु मतिमंद देहि अब पूरा । काटें सीस कि होइअ सूरा ॥

इंद्रजालि कहु कहिअ न बीरा । काटइ निज कर सकल सरीरा ॥५॥

 

दोहा

जरहिं पतंग मोह बस भार बहहिं खर बृंद ।

ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमंद ॥ २९ ॥

 

चौपाई

अब जनि बतबढ़ाव खल करही । सुनु मम बचन मान परिहरही ॥

दसमुख मैं न बसीठीं आयउँ । अस बिचारि रघुबीष पठायउँ ॥१॥

बार बार अस कहइ कृपाला । नहिं गजारि जसु बधें सृकाला ॥

मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे । सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे ॥२॥

नाहिं त करि मुख भंजन तोरा । लै जातेउँ सीतहि बरजोरा ॥

जानेउँ तव बल अधम सुरारी । सूनें हरि आनिहि परनारी ॥३॥

तैं निसिचर पति गर्ब बहूता । मैं रघुपति सेवक कर दूता ॥

जौं न राम अपमानहि डरउँ । तोहि देखत अस कौतुक करऊँ ॥४॥

 

दोहा

तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ ।

तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ ॥ ३० ॥

 

चौपाई

जौ अस करौं तदपि न बड़ाई । मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई ॥

कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा । अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा ॥१॥

सदा रोगबस संतत क्रोधी । बिष्नु बिमूख श्रुति संत बिरोधी ॥

तनु पोषक निंदक अघ खानी । जीवन सव सम चौदह प्रानी ॥२॥

अस बिचारि खल बधउँ न तोही । अब जनि रिस उपजावसि मोही ॥

सुनि सकोप कह निसिचर नाथा । अधर दसन दसि मीजत हाथा ॥३॥

रे कपि अधम मरन अब चहसी । छोटे बदन बात बड़ि कहसी ॥

कटु जल्पसि जड़ कपि बल जाकें । बल प्रताप बुधि तेज न ताकें ॥४॥