दोहा
चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि,
जिमि हरिभगत पाइ श्रम तजहि आश्रमी चारि ||१६ ||
चौपाई
सुखी मीन जे नीर अगाधा, जिमि हरि सरन न एकउ बाधा ||
फूलें कमल सोह सर कैसा, निर्गुन ब्रम्ह सगुन भएँ जैसा ||१||
गुंजत मधुकर मुखर अनूपा, सुंदर खग रव नाना रूपा ||
चक्रबाक मन दुख निसि पैखी, जिमि दुर्जन पर संपति देखी ||२||
चातक रटत तृषा अति ओही, जिमि सुख लहइ न संकरद्रोही ||
सरदातप निसि ससि अपहरई, संत दरस जिमि पातक टरई ||३||
देखि इंदु चकोर समुदाई, चितवतहिं जिमि हरिजन हरि पाई ||
मसक दंस बीते हिम त्रासा, जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा ||४||
दोहा
भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ,
सदगुर मिले जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ ||१७ ||
चौपाई
बरषा गत निर्मल रितु आई, सुधि न तात सीता कै पाई ||
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं, कालहु जीत निमिष महुँ आनौं ||१||
कतहुँ रहउ जौं जीवति होई, तात जतन करि आनेउँ सोई ||
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी, पावा राज कोस पुर नारी ||२||
जेहिं सायक मारा मैं बाली, तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली ||
जासु कृपाँ छूटहीं मद मोहा, ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा ||३||
जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी, जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी ||
लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना, धनुष चढ़ाइ गहे कर बाना ||४||
दोहा
तब अनुजहि समुझावा रघुपति करुना सींव ||
भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव ||१८ ||
चौपाई
इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा, राम काजु सुग्रीवँ बिसारा ||
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा, चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा ||१||
सुनि सुग्रीवँ परम भय माना, बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना ||
अब मारुतसुत दूत समूहा, पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा ||२||
कहहु पाख महुँ आव न जोई, मोरें कर ता कर बध होई ||
तब हनुमंत बोलाए दूता, सब कर करि सनमान बहूता ||३||
भय अरु प्रीति नीति देखाई, चले सकल चरनन्हि सिर नाई ||
एहि अवसर लछिमन पुर आए, क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए ||४||
दोहा
धनुष चढ़ाइ कहा तब जारि करउँ पुर छार,
ब्याकुल नगर देखि तब आयउ बालिकुमार ||१९ ||
चौपाई
चरन नाइ सिरु बिनती कीन्ही, लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही ||
क्रोधवंत लछिमन सुनि काना, कह कपीस अति भयँ अकुलाना ||१||
सुनु हनुमंत संग लै तारा, करि बिनती समुझाउ कुमारा ||
तारा सहित जाइ हनुमाना, चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना ||२||
करि बिनती मंदिर लै आए, चरन पखारि पलँग बैठाए ||
तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा, गहि भुज लछिमन कंठ लगावा ||३||
नाथ बिषय सम मद कछु नाहीं, मुनि मन मोह करइ छन माहीं ||
सुनत बिनीत बचन सुख पावा, लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा ||४||
पवन तनय सब कथा सुनाई, जेहि बिधि गए दूत समुदाई ||५||
दोहा
हरषि चले सुग्रीव तब अंगदादि कपि साथ,
रामानुज आगें करि आए जहँ रघुनाथ ||२० ||
चौपाई
नाइ चरन सिरु कह कर जोरी, नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी ||
अतिसय प्रबल देव तब माया, छूटइ राम करहु जौं दाया ||१||
बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी, मैं पावँर पसु कपि अति कामी ||
नारि नयन सर जाहि न लागा, घोर क्रोध तम निसि जो जागा ||२||
लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया, सो नर तुम्ह समान रघुराया ||
यह गुन साधन तें नहिं होई, तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई ||३||
तब रघुपति बोले मुसकाई, तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई ||
अब सोइ जतनु करहु मन लाई, जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई ||४||
दोहा
एहि बिधि होत बतकही आए बानर जूथ,
नाना बरन सकल दिसि देखिअ कीस बरुथ ||२१ ||
चौपाई
बानर कटक उमा में देखा, सो मूरुख जो करन चह लेखा ||
आइ राम पद नावहिं माथा, निरखि बदनु सब होहिं सनाथा ||१||
अस कपि एक न सेना माहीं, राम कुसल जेहि पूछी नाहीं ||
यह कछु नहिं प्रभु कइ अधिकाई, बिस्वरूप ब्यापक रघुराई ||२||
ठाढ़े जहँ तहँ आयसु पाई, कह सुग्रीव सबहि समुझाई ||
राम काजु अरु मोर निहोरा, बानर जूथ जाहु चहुँ ओरा ||३||
जनकसुता कहुँ खोजहु जाई, मास दिवस महँ आएहु भाई ||
अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाएँ, आवइ बनिहि सो मोहि मराएँ ||४||
दोहा
बचन सुनत सब बानर जहँ तहँ चले तुरंत,
तब सुग्रीवँ बोलाए अंगद नल हनुमंत ||२२ ||
चौपाई
सुनहु नील अंगद हनुमाना, जामवंत मतिधीर सुजाना ||
सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू, सीता सुधि पूँछेउ सब काहू ||१||
मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु, रामचंद्र कर काजु सँवारेहु ||
भानु पीठि सेइअ उर आगी, स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी ||२||
तजि माया सेइअ परलोका, मिटहिं सकल भव संभव सोका ||
देह धरे कर यह फलु भाई, भजिअ राम सब काम बिहाई ||३||
सोइ गुनग्य सोई बड़भागी, जो रघुबीर चरन अनुरागी ||
आयसु मागि चरन सिरु नाई, चले हरषि सुमिरत रघुराई ||४||
पाछें पवन तनय सिरु नावा, जानि काज प्रभु निकट बोलावा ||
परसा सीस सरोरुह पानी, करमुद्रिका दीन्हि जन जानी ||५||
बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु, कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु ||
हनुमत जन्म सुफल करि माना, चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना ||६||
जद्यपि प्रभु जानत सब बाता, राजनीति राखत सुरत्राता ||७||
दोहा
चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह,
राम काज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह ||२३ ||
चौपाई
कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा, प्रान लेहिं एक एक चपेटा ||
बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं, कोउ मुनि मिलत ताहि सब घेरहिं ||१||
लागि तृषा अतिसय अकुलाने, मिलइ न जल घन गहन भुलाने ||
मन हनुमान कीन्ह अनुमाना, मरन चहत सब बिनु जल पाना ||२||
चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा, भूमि बिबिर एक कौतुक पेखा ||
चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं, बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं ||३||
गिरि ते उतरि पवनसुत आवा, सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा ||
आगें कै हनुमंतहि लीन्हा, पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा ||४||
दोहा
दीख जाइ उपवन बर सर बिगसित बहु कंज,
मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज ||२४ ||
चौपाई
दूरि ते ताहि सबन्हि सिर नावा, पूछें निज बृत्तांत सुनावा ||
तेहिं तब कहा करहु जल पाना, खाहु सुरस सुंदर फल नाना ||१||
मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए, तासु निकट पुनि सब चलि आए ||
तेहिं सब आपनि कथा सुनाई, मैं अब जाब जहाँ रघुराई ||२||
मूदहु नयन बिबर तजि जाहू, पैहहु सीतहि जनि पछिताहू ||
नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा, ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा ||३||
सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा, जाइ कमल पद नाएसि माथा ||
नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्ही, अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही ||४||
दोहा
बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस,
उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस ||२५ ||
चौपाई
इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं, बीती अवधि काज कछु नाहीं ||
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता, बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता ||१||
कह अंगद लोचन भरि बारी, दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी ||
इहाँ न सुधि सीता कै पाई, उहाँ गएँ मारिहि कपिराई ||२||
पिता बधे पर मारत मोही, राखा राम निहोर न ओही ||
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं, मरन भयउ कछु संसय नाहीं ||३||
अंगद बचन सुनत कपि बीरा, बोलि न सकहिं नयन बह नीरा ||
छन एक सोच मगन होइ रहे, पुनि अस वचन कहत सब भए ||४||
हम सीता कै सुधि लिन्हें बिना, नहिं जैंहैं जुबराज प्रबीना ||
अस कहि लवन सिंधु तट जाई, बैठे कपि सब दर्भ डसाई ||५||
जामवंत अंगद दुख देखी, कहिं कथा उपदेस बिसेषी ||
तात राम कहुँ नर जनि मानहु, निर्गुन ब्रम्ह अजित अज जानहु ||६||
दोहा
निज इच्छा प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि,
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि ||२६ ||
चौपाई
एहि बिधि कथा कहहि बहु भाँती गिरि कंदराँ सुनी संपाती ||
बाहेर होइ देखि बहु कीसा, मोहि अहार दीन्ह जगदीसा ||१||
आजु सबहि कहँ भच्छन करऊँ, दिन बहु चले अहार बिनु मरऊँ ||
कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा, आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा ||२||
डरपे गीध बचन सुनि काना, अब भा मरन सत्य हम जाना ||
कपि सब उठे गीध कहँ देखी, जामवंत मन सोच बिसेषी ||३||
कह अंगद बिचारि मन माहीं, धन्य जटायू सम कोउ नाहीं ||
राम काज कारन तनु त्यागी , हरि पुर गयउ परम बड़ भागी ||४||
सुनि खग हरष सोक जुत बानी , आवा निकट कपिन्ह भय मानी ||
तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई, कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई ||५||
सुनि संपाति बंधु कै करनी, रघुपति महिमा बधुबिधि बरनी ||६||
दोहा
मोहि लै जाहु सिंधुतट देउँ तिलांजलि ताहि,
बचन सहाइ करवि मैं पैहहु खोजहु जाहि ||२७ ||
चौपाई
अनुज क्रिया करि सागर तीरा, कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा ||
हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई , गगन गए रबि निकट उडाई ||१||
तेज न सहि सक सो फिरि आवा , मै अभिमानी रबि निअरावा ||
जरे पंख अति तेज अपारा , परेउँ भूमि करि घोर चिकारा ||२||
मुनि एक नाम चंद्रमा ओही, लागी दया देखी करि मोही ||
बहु प्रकार तेंहि ग्यान सुनावा , देहि जनित अभिमानी छड़ावा ||३||
त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही, तासु नारि निसिचर पति हरिही ||
तासु खोज पठइहि प्रभू दूता, तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता ||४||
जमिहहिं पंख करसि जनि चिंता , तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता ||
मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू , सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू ||५||
गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका , तहँ रह रावन सहज असंका ||
तहँ असोक उपबन जहँ रहई | सीता बैठि सोच रत अहई ||६||
दोहा
मैं देखउँ तुम्ह नाहि गीघहि दष्टि अपार ||
बूढ भयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार ||२८ ||
चौपाई
जो नाघइ सत जोजन सागर , करइ सो राम काज मति आगर ||
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा , राम कृपाँ कस भयउ सरीरा ||१||
पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं, अति अपार भवसागर तरहीं ||
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई, राम हृदयँ धरि करहु उपाई ||२||
अस कहि गरुड़ गीध जब गयऊ, तिन्ह कें मन अति बिसमय भयऊ ||
निज निज बल सब काहूँ भाषा, पार जाइ कर संसय राखा ||३||
जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा, नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा ||
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी, तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी ||४||
दोहा
बलि बाँधत प्रभु बाढेउ सो तनु बरनि न जाई,
उभय धरी महँ दीन्ही सात प्रदच्छिन धाइ ||२९ ||
चौपाई
अंगद कहइ जाउँ मैं पारा, जियँ संसय कछु फिरती बारा ||
जामवंत कह तुम्ह सब लायक, पठइअ किमि सब ही कर नायक ||१||
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना, का चुप साधि रहेहु बलवाना ||
पवन तनय बल पवन समाना, बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ||२||
कवन सो काज कठिन जग माहीं, जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं ||
राम काज लगि तब अवतारा, सुनतहिं भयउ पर्वताकारा ||३||
कनक बरन तन तेज बिराजा, मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा ||
सिंहनाद करि बारहिं बारा, लीलहीं नाषउँ जलनिधि खारा ||४||
सहित सहाय रावनहि मारी, आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी ||
जामवंत मैं पूँछउँ तोही, उचित सिखावनु दीजहु मोही ||५||
एतना करहु तात तुम्ह जाई, सीतहि देखि कहहु सुधि आई ||
तब निज भुज बल राजिव नैना, कौतुक लागि संग कपि सेना ||६||
छंद
कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं,
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं ||
जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई,
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई ||
दोहा
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहि जे नर अरु नारि,
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करिहि त्रिसिरारि ||३०(क) ||
नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक,
सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक ||३०(ख) ||
मासपारायण, तेईसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने चतुर्थ सोपानः समाप्तः
(किष्किन्धाकाण्ड समाप्त)